नियमितता संयम और व्यवस्था

May 1962

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नियमित, संयत और व्यवस्थित जीवन जीने से वह शान्ति और सुविधापूर्वक चलता है। मनुष्य शरीर ही नहीं मामूली वस्तुऐं भी यही अपेक्षा करती हैं कि उनका संचालन क्रमबद्ध रीति से हो। घड़ी को सधे हाथ से नियत समय पर चाबी दिया कीजिए संभालकर रखा कीजिए तो ही वह पूरे दिन जी सकेगी। यदि दिन में कई बार,समय कुसमय, झटके से चाबी भरें, गलत हो जायगी। कपड़ों की साज संभाल रखने से वे काफी दिन काम देते हैं जो उन्हें ऐसे ही इधर−उधर बेसिल−सिले पटकते रहते हैं उन्हें कीड़े, चूहे, झींगुर खा जाते हैं, मैल और उपेक्षा से उनकी जिन्दगी आधी रह जाती है। संसार की कोई वस्तु यह नहीं चाहती कि उसके साथ उपेक्षा बरती जाय। उपेक्षा एक प्रकार का तिरस्कार है। तिरस्कार सब को बुरा लगता है। हमारा शरीर भी उपेक्षा बर्दाश्त नहीं करता, वह रूठकर कोप भवन में चला जाता है बीमार पड़ जाता है और तब तक रूठा ही पड़ा रहता है जब तक उसे पुनः उचित सत्कार का—व्यवस्थितता का आश्वासन न दिया जाय।

नियमित विधि व्यवस्था

स्कूल की शिक्षा में प्रत्येक विषय के घेरे नियत होते हैं। कल कारखानों के हर विभाग में समय की पाबंदी कार्यशैली और गतिविधि को नियमित रखा जाता है। शरीर का कार्य भी तभी चलता है जब उसका संचालन पूर्ण व्यवस्थित रूप से किया जाय। दिनभर के कार्यक्रम की हमारी उचित दिनचर्या बनी होनी चाहिए और हर कार्य नियत समय पर व्यवस्थित विधि व्यवस्था के साथ होना चाहिए, तभी स्वास्थ्य की सुरक्षा संभव हो सकेगी।

भोजन का समय दो बार हो सकता है। मध्याह्न और सायंकाल को दो बार नियत आहार लेते रहने से पाचन क्रिया ठीक प्रकार अपना काम करती रहती है। सारे दिन बकरी की तरह मुँह चलाते रहने से पेट की वही दशा हो जाती है जो अध−पकी खिचड़ी में बीच में ही कुछ और उसी में पकने के लिए डाल देने से होती है। चूल्हे पर चढ़ी हुई पतीली तभी कोई भोजन ठीक प्रकार पकाकर देगी जब बीच में उसके साथ छेड़खानी न की जाय। थोड़ी−थोड़ी देर बाद अनेक प्रकार की अनेक चीजें यदि पकने के लिए डालते रहा जाय तो उस पतीली की कुछ चीजें घुल जायेंगी, कुछ जलने लगेंगी कुछ कच्ची रह जावेंगी। जो लोग समय, कुसमय जीभ के चटोरेपन या दोस्ती एवं शेखी के लिए बार−बार बिस्किट, नाश्ता, तफरीह उड़ाते रहते हैं उनके पाचन कभी ठीक नहीं रह सकते। भोजन के बारे में यह कठोर नियम बनाया जाना चाहिए कि दिन में दो बार ही खाया जाय। बीच के समय में कुछ भी न खाने का कठोर प्रतिबंध रखा जाय।

संयमित और संतुलित आहार

प्रातःकाल पतली, रसीली चीजें लेनी चाहिए। पानी में नींबू, शहद मिलाकर उसका शरबत लिया जा सकता है। फलों का रस दूध या छाछ भी ठीक हो सकते हैं। जिन्हें कठोर शारीरिक श्रम करना है वे ही कोई भारी चीज खाया करें। हलके काम करने वाले या बैठे रहने वालों के लिए एक गिलास कोई द्रव पदार्थ लेकर काम चला लेना चाहिए। कारण कि रात का किया हुआ भोजन सोते समय पाचन क्रिया के शिथिल हो जाने से सबेरे तक अच्छी तरह नहीं पचता। उसका ठीक परिपाक दोपहर तक हो पाता है, यदि सवेरे ही भारी नाश्ता कर लिया जाय तो रात का बिना पचा भोजन नये भोजन के साथ मिलकर गड़बड़ी पैदा करता है। प्रातः भारी नाश्ता करने की आदत दुर्बलों और रोगियों के लिए तो सर्वथा हानिकारक ही है।

फल, दूध, शाक,रोटी जो कुछ लेना हो दोपहर के भोजन के समय ले लेना चाहिए। एक समय में बहुत अधिक प्रकार की वस्तुऐं न हों इसका ध्यान रखना चाहिए। जितनी कम प्रकार की चीजें थाली में होंगी उतना ही पाचन अच्छा रहेगा। साधारण रोटी, उबली हुई सब्जी, शहद,दूध, कोई फल, सलाद इतनी चीजें भाजन में रहें तो पर्याप्त है। मसालों से परहेज करना चाहिए। लाल मिर्च तो बहुत ही बुरी है। नमक, अदरक, नींबू अच्छे मसाले हैं, इनकी सहायता से भोजन को स्वादिष्ट भी बनाया जा सकता है। प्रातः काल उठते ही एक गिलास पानी पी लेने की आदत बहुत ही अच्छी है। पानी पीकर कुछ देर बाद शौच जाया जाय तो उससे दस्त साफ और खुलकर पेशाब होता है। इससे भीतर की सफाई करने की एक वैसी ही आवश्यकता पूरी होती है जैसे म्युनिसिपल कर्मचारी रुकी हुई नालियों को पानी डालकर बुहारी लगाने की क्रिया द्वारा सफाई करते हैं।

ब्रह्म मुहूर्त की अमृत वेला

रात को जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने की आदत स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही आवश्यक है। प्रकृति ने रात सोने के लिए और दिन काम करने के लिए बनाये हैं। दिन छिपते ही चिड़ियाँ अपने घोंसलों में जाती हैं, पशु जंगल में चरकर अपने आश्रय स्थानों को लौट आते हैं। रात्रि में काम करने वाले हिंसक पशु पक्षी या चोर बटमार सरीखे ही कोई हो सकते हैं इसलिए उन्हें निशाचर के बुरे नाम से संबोधन किया जाता है। जो लोग देर तक रात को जागते, मटरगश्ती करते, खेल−तमाशों में घूमते, हाहा हूं हूं करते रहते हैं वे उतने ही अंश से निशाचर हैं जितनी कि रात जागने में गँवाते हैं। रेल, पुलिस आदि की जिनकी ड्यूटी ही रात की है उनकी मजबूरी समझ में आती है पर जो लोग अकारण रात में जागते रहते हैं और सवेरे दिन निकले तक पड़े सोते रहते हैं वे स्वास्थ्य सम्बन्धी एक भयंकर भूल करते हैं। शाम का भोजन जल्दी ही कर लेना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके सो जाना चाहिए। नींद पूरी करके ब्रह्म मुहूर्त में आँख खुलती है तो शरीर में एक उत्साहवर्धक ताजगी दिखाई पड़ती है। उस समय जो भी काम किया जायेगा बहुत ही अच्छा होगा। विद्यार्थी यदि उस समय पढ़ते हैं तो थोड़ी ही देर की पढ़ाई अन्य समयों में कई घण्टे पढ़ने से अधिक फलप्रद होती है। जो लोग भगवान का भजन करना चाहते हैं उनके लिए भी वह समय सर्वोत्तम है जो स्वास्थ्य सुधार के लिए भ्रमण को जाना चाहते हैं उनके लिए प्रातः ब्रह्म मुहूर्त की वायु अमृतमयी है। सूर्योदय से पूर्व दो घण्टे से लेकर दिन निकलने तक का समय ‘अमृत’ कहा जाता है। उस समय का अपने प्रिय विषय के लिए उपयोग करके कोई भी बहुत आशाजनक लाभ हो सकता है। यह अमृत समय सोने में नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। पर ऐसा संभव उन्हीं के लिए है जो रात को जल्दी से जल्दी सोने की व्यवस्था बनावें। देर से सोकर जल्दी उठने का क्रम बनाया जायेगा तो उससे तो नींद भी पूरी न हो सकेगी और कच्ची नींद में उठना लाभ के स्थान पर हानिकारक ही होता है।

नियत दिनचर्या की आवश्यकता

अपनी सुविधा और स्वास्थ्य के नियमों का ध्यान रखते हुए अपनी एक नियत दिनचर्या बना लेनी चाहिए और फिर दृढ़तापूर्वक उसी पर चलते रहना चाहिए। समय का विभाजन यदि ठीक प्रकार किया जाय और उस कार्यक्रम का कड़ाई के साथ पालन किया जाता रहे तो आलस्य और प्रमाद में यों ही बर्बाद होते रहने वाला बहुत सा समय बच सकता है और उस बचे समय का सुव्यवस्थित उपयोग करके मनुष्य स्वास्थ्य को ही नहीं सुधारता वरन् उन्नति के अनेकों द्वार खोल लेता है। संसार का एक भी उन्नतिशील व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने अपना दैनिक कार्य−क्रम बनाकर समय की बर्बादी को न रोका हो। आलसी और फूहड़ लोग बहुत धीमी गति से इधर−उधर चहकते हुए, सहज−सहज थोड़े से काम में घण्टों गुजार देते हैं। कुछ लोग एक काम पूरा होने से पहले नया काम शुरू कर देते है और पहले काम को अधूरा ही पड़ा रहने देते हैं। ऐसे लोगों का कोई भी काम पूरा नहीं हो पाता। चाहिये यह कि जो काम समय से किया है उसे ठीक तरह पूरा करके समेट लें तब दूसरा काम आरंभ करें। दस अधूरे काम करने की अपेक्षा दो पूरे काम करना सदा अधिक लाभप्रद सिद्ध होता है।

बहुमूल्य एवं अलभ्य सम्पत्ति

समय ही जीवन है। यही हमारी सर्वोत्तम सम्पत्ति है। भगवान ने आयुष्य की अमूल्य पूँजी मनुष्य को दी है और कहा है कि वह इस पूँजी का जिस ओर भी सदुपयोग करेगा उधर ही उसे आशा−जनक सफलताऐं प्राप्त होने लगेंगी। रुपया हाथ में हो तो उसके बदलें में बाजार में बिकने वाली हर चीज खरीदी जा सकती है। समय भी एक प्रकार का रुपया है उसे जिस काम में भी खर्च किया जायेगा उसी दिशा में प्रगति होने लगेगी। रुपये से दवा भी खरीदी जा सकती है और जहर भी। समय को आलस्य प्रमाद, व्यसन लापरवाही मटरगश्ती और शौक-मौज की निस्सार बातों में या कुविचारों एवं दुष्कर्मों में खर्च करना जहर खरीदने की बराबर है पर जो अपना एक−एक मिनट बहुमूल्य समझ कर उसे सुव्यवस्थित कार्यक्रम बनाकर खर्च करते हैं वे अपने जीवन का सच्चा लाभ उठा लेते हैं। व्यवस्थित आदतों वाले मनुष्य का अन्तर्मन भी व्यवस्थित हो जाता है और फिर उसके नियंत्रण में चलने वाला शरीर भी नियमित और व्यवस्थित रीति से काम करने लगता है। काम कम हो या ज्यादा, हर व्यक्ति को नियत दिनचर्या के अनुसार ही उसे पूरा करना चाहिए। नौकरी में काम करने के घंटे नियम होते हैं, स्कूल में पढ़ने के घंटे विषय वार विभाजित रहते हैं। बाजार की दुकानें खुलने और बन्द होने का समय सरकार ने नियत कर दिया है। व्यवस्थित रीति से नियत समय में ही बहुत काम हो जाता है और अव्यवस्थित कार्यप्रणाली से समय तो बहुत बर्बाद होता है पर काम जरा−सा दिखाई पड़ता है। समय की अव्यवस्था का सबसे खराब प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है। शौच, स्नान, कुल्ला, दातौन, सोना जागना, खाना, पीना,किसी भी बात का जिनका नियम नहीं उन्हें अनुशासन भंग करने का दंड प्रकृति देगी ही और उन्हें अस्वस्थता की शिकायत बनी ही रहेगी।

अनावश्यक अपव्यय रोका जाय

शक्तियों का अनावश्यक अपव्यय न होने पावे इसका पूरा−पूरा ध्यान रखना चाहिए। दिन भर के प्रकाश में काम करने के बाद आँखें रात में अंधेरे का आराम चाहती हैं। जहाँ तक हो सके रात को बिजली के तेज प्रकाश से बचना चाहिए। सिनेमा की नैतिक बुराई तो प्रसिद्ध ही है। आँखों पर उस तेज रोशनी का बुरा असर पड़ता है। आँखों की बीमारियाँ बढ़ाने में सिनेमा भी एक प्रमुख कारण है। कपडे़ इतने न पहनने चाहिए जो शरीर को सर्दी गर्मी का अनुभव ही न होने दें। ऋतु प्रभाव से शरीर को पूर्णतया बचाये रहने पर सहन शक्ति का गुण नष्ट होने लगता है। ऐसे लोगों को जरा गर्मी लगने पर लू लगने की आशंका बनी रहती है।

आहार और साँस की स्वच्छता

मुँह ढ़ककर सोने की आदत रक्त की शुद्धता के मार्ग में भारी बाधा पहुँचाती है। स्वच्छ जल और स्वच्छ भोजन मिलने पर बीमारी आ घेरती हैं इसे सभी जानते हैं। गंदगी से रोग फैलते हैं। भोजन और जल यदि गंदे बर्तनों से गंदे हाथों, गंदे व्यक्तियों, गंदे स्थानों से सम्बन्धित रहेगा तो अवश्य ही गंदा एवं हानिकर हो जायेगा। इसलिए आहार में सफाई का पूरा पूरा ध्यान रखना आवश्यक माना जाता है। वायु के संबंध में भी यह सफाई बरती जानी चाहिए। अन्न और जल के बिना कुछ समय मनुष्य जीवित भी रह सकता है पर वायु के बिना क्षणभर भी जीवित रहना कठिन है। इससे वायु की उपयोगिता स्पष्ट है। उसे ग्रहण करते समय स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिए। हमारे रहने और काम करने का स्थान ऐसा न हो जहाँ स्वच्छ हवा और सीधी धूप नहीं पहुँचती हो। कहते हैं कि जहाँ स्वच्छ हवा और सीधी धूप नहीं पहुँचती वहाँ डाक्टर पहुँचा करते हैं। सोते समय मुँह ढक कर सोने से शरीर का विष लेकर बाहर निकलने वाली हवा का ही पुनः पुनः फेफड़ों में प्रवेश होने लगता है इस प्रकार वह हर बार, हर साँस अधिक विषैली होती जाती है। शरीर में से जो भी चीज बाहर निकलती है अशुद्ध और विषैली होती है इसलिए मलमूत्र आदि को दूर ही रखा जाता है। शरीर से बाहर आई हुई साँस भी मल मूत्र की तरह ही विषैली होती है उसे दुबारा कदापि प्रयोग न करना चाहिए। मुँह ढ़ककर सोने की आदत में यही गलती दुहरानी पड़ती है और उस गलती से शरीर में विषैले तत्व बढ़ने लगते हैं।

ब्रह्मचर्य ही जीवन है

ब्रह्मचर्य का आरोग्य रक्षा की दृष्टि से बहुत महत्व है। रज वीर्य शरीर के सत्व भाग हैं। इनकी मात्रा कम पड़ जाने से देह खोखली हो जाती है और प्रत्येक इन्द्रिय की शक्ति घटने लगती है। 40 बूँद रक्त का 1 बूँद वीर्य बनता है। यदि इस अमूल्य सम्पत्ति को संचित रखा जाय तो अंग प्रत्यंग स्वयमेव पुष्ट होते चलेंगे। पर यदि इस जीवन रस को निचोड़ते रहा जायेगा तो बाहर का लिफाफा भले ही चमकता रहे भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला हो जाता है और यह कहने की आवश्यकता नहीं कि खोखली देह पर किसी भी बीमारी का कितनी जल्दी आक्रमण हो सकता है। ब्रह्मचारियों और विधुरों के लिए तो संयम का जो स्वाभाविक सौभाग्य मिला हुआ है उसका उन्हें पूरा पूरा लाभ उठाना चाहिए। विवाहितों को भी इस सम्बन्ध में मर्यादाओं का पूरा−पूरा ध्यान रखना चाहिए। गृहस्थ के महान उत्तरदायित्व को निबाहने के लिए गाड़ी के दो पहियों की तरह पति−पत्नी का दाम्पत्य जीवन होता है। सन्तानोत्पत्ति अनिवार्य आवश्यकता अनुभव होने पर ही काम सेवन किया जाना चाहिए। एक महीने में एकबार से अधिक तो ब्रह्मचर्य को तोड़ना ही न चाहिए। संयमी दम्पत्ति अपने स्वास्थ्य को ही ठीक नहीं रखते वरन् अपनी संतति का भी स्वस्थ निर्माण करते हैं। विषयी और असंयमी माता पिता द्वारा उत्पन्न की गई संतान शारीरिक दृष्टि से तो दुर्बल एवं अस्वस्थ होती ही है, मानसिक दृष्टि से भी उसमें अनेकों त्रुटियाँ रह जाती हैं। कच्चे बीज से उत्पन्न होने वाला पौधा दुर्बल ही रहेगा। इसी प्रकार संयम द्वारा जिनने अपनी जीवनी शक्ति को परिपुष्ट नहीं किया है उन पति−पत्नी को कोई होनहार एवं तेजस्वी बालक प्राप्त नहीं हो सकते। इन्द्रियों का अमर्यादित उपयोग करने से योनि रोग, एवं मूत्र रोग उत्पन्न होने की संभावना भी सदा बनी ही रहती हैं।

नियत समय,नियत कार्य, नियत मात्रा, नियत कार्यक्रम, नियत व्यवस्था, नियत खर्च, नियत आहार नियत विहार की व्यवस्था बना लेने वाले व्यक्ति ही अपने जीवन का पूरा लाभ उठा सकते हैं और उनका सर्वांगीण स्वास्थ्य स्थिर रहता है।


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