शक्ति का उत्पादन शिथिल न होने पावे

May 1962

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जिन मिलों और कारखानों में अनेकों मशीनें लगी रहती हैं और भारी उत्पादन होता रहता है, उनकी भी उत्पादन शक्ति का केन्द्र वह इंजन या मोटर ही रहता है जो इन सारे यंत्रों को चलाने के लिए शक्ति उत्पन्न करता है। मनुष्य शरीर भी एक बड़े मिल या कारखाने के समान है जिसमें अनेकों प्रकार के गुण, चातुर्य, कला कौशल एवं विशेषण परिलक्षित होते हैं। डाक्टर, इञ्जीनियर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, वकील, नेता, लेखक, कवि, गायक, चित्रकार, नट, अभिनेता, कलाकार, पहलवान, खिलाड़ी, व्यापारी, योगी, तपस्वी आदि की अपनी-अपनी ऐसी विशेषताऐं होती हैं जिनसे मनुष्य का गौरव बढ़ता है। मानव शरीर में ऐसी-ऐसी असंख्यों विशेषताऐं, किसी मिल में लगी अनेकों मशीनों की तरह भरी रहती है। पर वे रहती हैं सुप्त स्थिति में। उनके जागरण के लिए समुचित शक्ति प्राप्त हो तो उनमें से किसी भी विशेषता को जीवित करके कोई भी व्यक्ति महान बन सकता है और उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है, पर यह संभव तभी हो सकता है जबकि उन विशेषताओं को जागृत कर सकने योग्य समुचित शक्ति प्राप्त हो।

खराब इंजन की मशीन

बाइलर या मोटर खराब होने से किसी भी मिल में लगी हुई अनेकों मशीनें बेकार पड़ी रहती हैं या बहुत थोड़ा काम कर पाती है। कीमती से कीमती मशीन तभी अपना काम करेगी जब उसे चलाने के लिए शक्ति प्राप्त हो। मनुष्य अपनी प्रगति की अनेकों आकांक्षाऐं करता रहता है पर उसमें शारीरिक एवं मानसिक शक्ति का समुचित उत्पादन न होने से कर कुछ नहीं पाता। उसके मनोरथ कल्पना मात्र रहकर ही मुरझा जाते हैं। विशेषताओं के बीज हर मनुष्य के भीतर मौजूद हैं पर उन बीजों को वृक्ष रूप में परिणत करने के लिए जिस स्थिति एवं साधन सामग्री की आवश्यकता है वह समुचित मात्रा में न हो तो प्रगति का पथ अवरुद्ध ही रहेगा। शक्ति का समुचित उत्पादन हमारे जीवन की एक ऐसी आवश्यकता है जिसकी पूर्ति हुए बिना जीवन एक प्रकार से असफल ही बना रहता है।

एक छात्र अच्छे डिवीजनों में उत्तीर्ण होता हुआ उच्च-शिक्षा प्राप्त करना चाहता है। उसकी इच्छा सच्ची और लगन पक्की है, इसके लिए वह प्रयत्न भी भरपूर करता रहता है पर शरीर में शक्ति का समुचित उत्पादन न होने से बेचारा कुछ कर नहीं पाता। स्मरण शक्ति कुंठित हो रही है, सिर दर्द करता है, शरीर थका-थका सा रहता है, पुस्तकों से मन उचटा रहता है, उदासी छाई रहती है, जो याद करता है भूल जाता है, ऐसी स्थिति में उच्च-शिक्षा प्राप्त करने का उसका मनोरथ कैसे पूरा हो? यह सारे लक्षण शक्ति की न्यूनता प्रकट करते हैं। मस्तिष्क में सजीवता होने के लिए जितनी शक्ति आवश्यक है वह बनती नहीं और थकान घेरे रहती है। ऐसी स्थिति में उसकी पढ़ाई का उद्देश्य कैसे पूरा हो सकेगा? विद्यार्थी की ही तरह प्रत्येक महत्वपूर्ण व्यक्ति को अपने कार्य को ठीक तरह चलाने एवं योग्यताऐं निखारने के लिए कुछ विशेष सामर्थ्य की जरूरत पड़ती है।

महत्वपूर्ण कार्य के लिए या महत्वपूर्ण व्यक्ति के लिए ही क्यों—साधारण मजदूर को भी कार्य शक्ति तो चाहिए ही, उसके बिना वह श्रम कहाँ से कर सकेगा और रोटी कैसे कमा सकेगा? हर छोटे या बड़े—महत्वपूर्ण या महत्वहीन—व्यक्ति को प्रगति न सही साधारण जीवनक्रम चलाने के लिए शक्ति की आवश्यकता पड़ती है और वह जिसके पास जितनी मात्रा में अधिक है वह उतना ही सफल होते देखा गया है। किसी मिल या कारखाने को ठीक तरह चलाने में उसकी शक्ति-उत्पादन-प्रणाली का सबसे अधिक महत्व है। इसी प्रकार जीवन की विभिन्न दिशा में गतिशील रहने वाली विशेषताओं का जागरण एवं अभिवर्धन इस बात पर निर्भर रहता है कि शरीर में शक्ति का उत्पादन कितना होता है और उस उत्पादन का उपयोग कैसे किया जाता है।

महत्वपूर्ण समस्या

जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं में शक्ति के उत्पादन की समस्या सर्वोपरि है। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि कई लोग शक्ति होते हुए भी उसका ठीक उपयोग न करके उसे आलस्य और प्रमाद में बर्बाद करते रहते हैं, पर अधिकतर होता यह है कि शक्ति की कमी ही प्रगति के पथ को अवरुद्ध किये रहती है। जिस प्रकार बिना पूँजी के व्यापार नहीं हो सकता, बिना शिक्षा के अच्छा पद नहीं मिल सकता उसी प्रकार समुचित मात्रा में शक्ति का उत्पादन शरीर में न होता रहे तो किसी भी दिशा में सफलता प्राप्त होना कठिन ही बना रहेगा। हमें शक्ति के समुचित मात्रा में उत्पादन की चिन्ता करनी चाहिए और उसके लिए उत्पादन के एकमात्र संस्थान पाचन यंत्र पर ध्यान देना चाहिए, यही हमारे शरीर रूपी मिल का बाइलर या इंजन है। इसकी उपेक्षा करके कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सका, किसी की भी जिन्दगी चैन से नहीं कटी, फिर हम यदि उस ओर उपेक्षा धारण किये रहें तो शिकारी से डरकर बालू में मुँह गाढ़कर अपनी जान बचाने की बात सोचने वाले शुतुरमुर्ग की भाँति हम केवल अपने अनिष्ट को ही आमंत्रित करेंगे। इंजन की उपेक्षा करके कोई रेलगाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती, पेट की मशीन को बिगड़ी पड़ी रहने देकर कोई व्यक्ति अपनी सुख-शान्ति और श्री समृद्धि देर तक स्थिर नहीं रख सकता। शक्ति के अभाव में शरीर क्षीण होता है, साथ-साथ उसमें सन्निहित विशेषताऐं भी क्षीण होने लगती हैं। जिसकी आमदनी टूट गई है और खर्च ज्यों का त्यों बढ़ा हुआ है उस फर्म का आज नहीं तो कल दिवाला पिटने ही वाला है। हमें देखना होगा कि हमारा जीवन-फर्म कहीं इसी प्रकार दिवालिया बनने तो नहीं जा रहा है। जो व्यापारी अपने गिरते हुए व्यापार और घाटे की समय रहते व्यवस्था नहीं सोचता उसके हाथ में अन्ततः पश्चात्ताप ही रह जाता है। देखना है कि हम भी कहीं हाथ मल-मलकर पछताने की स्थिति की ओर ही तो नहीं बढ़ रहे हैं।

शक्ति के उत्पादन की न्यूनता

शरीर के अन्य अंग भी समय-समय पर रुग्ण होते रहते हैं। पर उनके मूल में अपच ही छिपा रहता है। शक्ति के उत्पादन की न्यूनता और खर्च का ज्यों का त्यों रहना देह के विभिन्न अंगों की सामर्थ्य को दिन-दिन घटाता चलता है। वे बाहर से तो ज्यों के त्यों दीखते हैं पर भीतर ही भीतर घुनी लकड़ी की तरह खोखले हो जाते हैं। इन दुर्बल अंगों पर कोई भी साधारण-सा कारण भयंकर आक्रमण जैसा रूप धारण कर लेता है। सीढ़ी पर पैर फिसलने मात्र की छोटी सी चोट खाकर एक व्यक्ति की दोनों पैरों की हड्डियाँ पाँच जगह से टूटते हमने अपनी आँखों देखी हैं। सीढ़ियों की ऊँचाई बहुत मामूली थी। दो तीन सीढ़ी गिरने मात्र से ऐसी दुर्घटना हो गई और फिर वह आठ महीने अस्पताल में रह कर चलने फिरने लायक बन सके। घटना मामूली और परिणाम इतना घातक! इस प्रश्न का उत्तर डाक्टर ने एक ही दिया कि इनकी हड्डियाँ खोखली हो चुकी थीं। एक ओर तिमंजिले मकान पर से गिर पड़ने पर भी एक बच्चे को मामूली सी चोट लगी और दूसरी ओर तीन सीढ़ियों पर से पैर फिसलने पर पाँच जगह हड्डी टूटी। इसे यदि भाग्य कहकर संतोष न किया जाय और विचारपूर्वक खोला जाय तो एक के शरीर में जीवनी शक्ति का बाहुल्य और दूसरे के शरीर में उसकी न्यूनता ही सिद्ध होती है।

दुर्बलता के दुष्परिणाम

मामूली सी ठण्ड लगने पर जुकाम, जरा-सी ठण्ड लगने पर पसली का दर्द, थोड़ी-सी चिकना खाते ही खाँसी, दस दिन बुखार आते ही तपैदिक, छोटा सा जख्म होते ही विषव्रण होने के आसार बन जाते हैं। इलाज करने वाले इस पीड़ित अंग की चिकित्सा में जुटे रहते हैं पर यह भूल जाते कि यह अंग जीवनतत्व रहित खोखले लिफाफे की तरह खड़े हुए हैं जिनमें एक पिन जितना आघात सहने की सामर्थ्य नहीं रह गई है। दवा उन रोगों की सामाजिक चिकित्सा तो कर देती है पर शक्ति के अभाव की पूर्ति उनके द्वारा कैसे की जा सकती है? यदि दवाओं में शक्ति उत्पादन की इतनी क्षमता रही होती तो प्रत्येक धनी आदमी दवा खाकर हनुमान और भीम की तरह बलवान हो गया होता।

कारणवश किसी अंग में कोई रोग हो भी जाय तो नसों में पर्याप्त मात्रा में शुद्ध रक्त भरा रहने पर कठिन से कठिन रोग भी चन्द दिनों में अच्छा हो जाता है। शुद्ध रक्त की तेजस्विता अपने शत्रु रोग कीटाणुओं को बात की बात बाहर निकाल फेंकती है। प्रचंड पवन के सामने हलके-फुलके तिनके उड़ते ही दीखते हैं उसी प्रकार धमनियों में परिपूर्ण मात्रा में प्रवाहित होने वाला शुद्ध रक्त किसी भी रोग को शरीर में देर तक टिका रहने नहीं दे सकता। इसलिए विभिन्न अंग की छुट-पुट बीमारियों पर अधिक ध्यान न देकर हमें यही प्रयत्न करना चाहिए कि परिपूर्ण मात्रा में शुद्ध रक्त का उत्पादन होता रहे और यह तभी संभव है जब पाचक यंत्र ठीक काम कर रहे हैं, जिन्हें आरोग्य की अभिलाषा है उन्हें आगे चलकर पौष्टिक भोजन की आवश्यकता हो सकती है। व्यायामशाला की जरूरत पड़ सकती है, पर सबसे पहला काम उसके सामने एक ही है कि पेट ठीक काम करे और जो रूखा−सूखा खाया गया है वह ठीक प्रकार पचकर शुद्ध रक्त के रूप में ठीक प्रकार परिणत होने लगे। इतनी समस्या हल हो जाने पर आरोग्य की ही नहीं जीवन के सर्वांगीण विकास की आधी से अधिक कठिनाई दूर हो जाती है।

मृगतृष्णा में न भटकें

पेट क्यों खराब होता है और उसके सुधारने के क्या उपाय हैं, अब हमें इन दो प्रश्नों पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा। किसी दवा या जादू से पाचन−क्रिया सुधारी जा सकती है इस मृगतृष्णा को हम जितनी जल्दी छोड़ सकें उतना ही कल्याण है। पेट हमारी बुरी आदतों के लगातार अत्याचार करने से खराब हुआ होता है उसके सुधार का उपाय भी एकमात्र यही है कि पाचन क्रिया को ठीक रखने वाली आदतों को कठोरता पूर्वक अपने स्वभाव का एक अंग बनावें। आरोग्य शास्त्र के नियमों पर दृढ़तापूर्वक चलें और बिगड़े को सुधारने के लिए जितनी देर लगती है उतने समय की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें। किसी भी बुरी आदत से एक दिन में पेट खराब नहीं हो जाता, बिगड़ते बिगड़ते भी उसे बहुत दिन लग जाते हैं इसी प्रकार स्वास्थ्यकर अच्छी आदतें अपना लेने पर भी दो−चार दिन में वह बिगड़े यंत्र ठीक प्रकार काम करने नहीं लगेंगे। उसमें समय लगेगा और थोड़ी−थोड़ी प्रगति पर संतोष करते हुए धैर्यपूर्वक प्रगति की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। जिन्हें बहुत उतावली हो वे अपनी उतावली से स्वयं अधीर होते रह सकते हैं। काम तो काम के रास्ते ही होगा। उनकी अधीरता को देखकर प्रकृति अपने नियम नहीं बदल सकती। बच्चे गुठली बोकर जल्दी से आम का वृक्ष उगाना चाहते हैं न उगने पर खीजते भी हैं और निराश भी होते हैं पर प्रकृति उनकी बाल−बुद्धि की परवा कहाँ करती है? आम की गुठली से जितने दिन में वृक्ष बन सकता है उतना समय लगता ही है। धैर्य रखने वाला सन्तोषपूर्वक आम के बगीचे का मालिक बनता है और अधीर को मिलता तो कुछ नहीं खीज़, झुँझलाहट और निराशा का सामना मुफ्त में करना पड़ता है। पेट के सुधार की समस्या पर विचार करने से पूर्व हमें इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम करना होगा। जिन्हें अत्यधिक उतावली हो रही हो उनके लिए यही अच्छा है कि वे बाल क्रीड़ा की तरह इस जीवन−कल्प के तथ्य पर विचार ही न करें और जल्दी−पल्दी की पगडंडियों में मृगतृष्णा की तरह उसी प्रकार आगे भी भटकते रहें जिस तरह कि अब तक भटकते रहे हैं।

मन का नियन्त्रण

शरीर का नियन्त्रण मन करता है मन की गतिविधियाँ बिगड़ जाने से शरीर की सारी विधि व्यवस्था बिगड़ जाती है। पेट के खराब होने का कारण भी मन का खराब होना है। जिस प्रकार घुड़सवार अपने घोड़े को मनचाही चाल से जिस दिशा में मोड़ना चाहे मोड़ सकता है। हाथी का महावत अपने हाथी से मनचाहा काम लेता है। सरकस वाले अपने जानवरों से आश्चर्यजनक काम लेते हैं, वैसे ही शरीर एक प्रकार का जानवर है, मन उसका संचालक। मन की गतिविधियाँ ही शरीर की स्थिति में भला या बुरा परिवर्तन करने के लिए उत्तरदायी होती हैं। आरोग्य घुड़सवार का घोड़ा बिगड़ैल ही नहीं होगा वरन् उसके लिए जीवन संकट भी उपस्थित कर देगा। उसी प्रकार प्रमादी मन अपना ही लोक−परलोक नहीं बिगाड़ता वरन् शरीर का भी सत्यानाश कर देता है। असंयत मन वाले मनुष्य का शरीर कभी निरोग नहीं रह सकता ।

पाचन−क्रिया पर प्रभाव डालने वाली चार बातें प्रमुख हैं—(1) मन का असंयत होना (2) आहार की अव्यवस्था (3) श्रम का संतुलन (4) दैनिक कार्यक्रमों में असावधानी । इन चार बातों से ही आरोग्य नष्ट होता है, पाचन प्रणाली बिगड़ती है और इन्हीं के सुधार से उसका सुधार स्वभावतः होने लगता है। अगले पृष्ठों पर इन्हीं चार बातों पर विचार करेंगे।


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