एनीमा के सम्बन्ध में कुछ बातें उपवास द्वारा स्वास्थ्यरक्षा के लिए विवेचन में लिखी जा चुकी हैं, पर यह विषय इतना अधिक महत्वपूर्ण और प्राकृतिक चिकित्सा के आधार स्वरूप है कि इसका स्वतंत्र रूप से भली प्रकार परिचय देना आवश्यक है। उपवास अवश्य ही सर्वप्रथम कदम है पर उसके साथ एनीमा का सहयोग अनिवार्य है। उपवास शरीर के भीतर के मल को कोने−कोने से निकालकर मलाशय की तरफ धकेलता है, पर वह सब कचरा अपने आप शरीर के बाहर नहीं निकल सकता। कारण यह है कि उस समय भोजन न करने के कारण आमायश और आँतें बहुत कुछ सिकुड़ जाती हैं और इनमें इतना स्फुरण नहीं होता कि वह अधिक−मल को बाहर फेंक सकें। इसके लिए किसी बाहरी उपचार की आवश्यकता होती है जिससे प्रकृति को अपने कार्य में सहायता मिले। वही उपाय एनीमा है।
जो लोग अभी तक सफाई का अर्थ नहाना, धोना आदि बाहरी सफाई ही समझते हैं वे बड़े भ्रम में हैं। शरीर के ऊपर का मैल तो हमको दिखाई ही पड़ता है और इसलिए हमारा ध्यान बार−बार उसकी ओर जाता रहता है और हम उसे साफ कर ही डालते हैं। पर भीतरी गन्दगी आँखों से दिखाई नहीं देती उसे केवल अनुभव से या लक्षणों से जाना जाता है। इसलिए अनेक लोगों का ध्यान उस तरफ नहीं जाता। पर कुछ भी हो वह गन्दगी अधिक हानि पहुँचाने वाली होती है और धीरे−धीरे हमारे समस्त शरीर को मल से भर देती है। यही मल सब प्रकार के रोगों तथा अस्वस्थता का कारण होता है और जो लोग बीमारी और कमजोरी को दूर करना चाहते हैं उनका सबसे पहला कर्तव्य इस मल की सफाई कर डालना ही है। शरीर की इस अवस्था की तुलना हम उस नाली के साथ कर सकते हैं जो कीचड़ रुक जाने से सड़ रही हो और दुर्गन्ध फैला रही हो। बहुत से लोग ऐसी नाली में फिनाइल आदि डालकर उसकी बदबू को रोकने की कोशिश करते हैं पर यह उपाय टिकाऊ नहीं होता। दूसरे ही दिन फिर पहले से अधिक बदबू आने लगती है। तब अन्त में यही करना पड़ता है कि एक बार नाली में जमें हुए कीचड़ को पूरी तरह निकाल दिया जाय और फिर उसे साफ पानी से धो डाला जाये । ठीक इसी प्रकार छोटी और बड़ी आँतों में इकट्ठा होकर हमारे जो मल शरीर को अस्वस्थ बनाता है जब तक एक बार उसकी पूरी सफाई नहीं की जायेगी तब तक रोग की जड़ कटना सम्भव नहीं है।
जुलाब की हानियाँ
अनेक व्यक्ति इस मल को निकालने के लिये जुलाब या दस्तावर दवाओं का सहारा लेते हैं। पर सड़ा हुआ मल, गाँठें, सुद्दे, कृमि, विकृत वायु आदि जो तरह−तरह के विकार बड़ी आँत में जमा रहते हैं वे इन दस्तों की औषधियों से बहुत कम निकल पाते हैं। दस्तावर औषधियाँ जब पेट में पहुँचती हैं तो तीक्ष्णता के कारण आमाशय में पाचन रसों का स्राव होने लगता है। इस रस के साथ आधा पचा हुआ भोजन बह कर नीचे की तरफ चला जाता है। औषधि की बहुत शक्ति तो इस आमाशय में ही खर्च हो जाती है, जो थोड़ी बहुत बचती है उसके द्वारा छोटी आँतों से रस निचुड़ता है। इस प्रकार कच्चा मल पतला होकर दस्त के रूप में निकल जाता है। दस्तावर दवा का असर छोटी आँतों में खत्म हो जाता है और बड़ी आँत में उपस्थित विकार ज्यों के त्यों बने रहते हैं। पुराने दोष जो बड़ी आँतों में थे वे जैसे के तैसे रहे केवल आमाशय और छोटी आँतों का कच्चा मल निकल गया। ऐसे दस्तों से सफाई का वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं होता। इसके अतिरिक्त दवा की गर्मी, जलन तथा आमाशय के कीमती रस के दस्त के साथ बहने से पेट में कमजोरी आ जाती है ये दोनों ही बातें स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकर हैं, और इसलिए इस जुलाब की प्रणाली में लाभ की अपेक्षा हानि अधिक है। दस्तावर दवाएँ प्रायः अत्यन्त उष्ण और विषाक्त भी होती हैं, वे यदि दस्त लाने के बजाय शरीर में पच जायँ तो खून खराबी, कोढ़ भयंकर व्रण आदि उत्पन्न कर देती हैं। यही कारण है कि कभी−कभी जुलाब के बाद बहुत दिन तक बड़ी गर्मी और बेचैनी का अनुभव होता रहता है, और कई छोटे−बड़े रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
एनीमा कैसे लिया जाय
इस दृष्टि से मलाशय को साफ करने के लिये एनीमा का प्रयोग सबसे अच्छा है। एनीमा का साधारण सा यंत्र हर नगर के बाजार में मिल सकता है। चीनी के लम्बे से डिब्बे में 4-5 फीट लम्बी रबड़ की नली लगी रहती है जिसके दूसरे सिरे पर प्लास्टिक की एक टोंटी फिट कर दी जाती है। डिब्बे में सेर−डेढ़ सेर मामूली ठंडा या जरा गुन−गुना पानी जिसका तापक्रम शरीर के समान हो, भर दिया जाता है। जब टोंटी को खोला जाता है तो पानी नल की तरह बाहर निकलने लगता है। पानी सादा होना ही ठीक है। अगर मिल सके तो उसमें एक नींबू का रस मिला दिया जाय जिससे उसका असर कुछ बढ़ जाता है। विशेष अवस्थाओं में थोड़ा नमक या नीम का पानी या प्याज का रस आदि भी निकाला जाता है।
एनीमा लेते समय जमीन पर चटाई बिछाकर दाँयी करवट लेट जाना चाहिये। एनीमा के बर्तन को बगल में लगभग तीन फीट की ऊँचाई पर टाँग देना चाहिये। टोंटी के सिरे पर जरा सा−तेल मलकर गुदा−मार्ग में एक इंच प्रवेश कर लीजिये और टोंटी को खोल दीजिये। धीरे−धीरे समस्त पानी मलाशय में चला जायेगा। इस समय पेट को धीरे−धीरे मलते भी रहिये जिससे मल के छूटने में सहायता मिले। आरंभ में पानी जाने पर पेट में दर्द−सा जान पड़ता है और तुरन्त ही टट्टी की इच्छा होती है। अगर ये बातें साधारण हों तो सहन करके पानी लेते जाना चाहिये और यदि ज्यादा दर्द जान पड़े तो टोंटी बन्द करके पानी चढ़ना रोक देना चाहिये। कुछ देर बाद जब दर्द बन्द हो जाय तो फिर टोंटी खोलकर पानी चढ़ाना चाहिये। अगर इस प्रकार कई बार पानी बन्द करना पड़े तो कोई हर्ज की बात नहीं है। अगर पानी जाना शुरू होने के थोड़ी देर बाद ही मल त्याग की अत्यन्त तीव्र इच्छा हो तो उसी समय उठकर मल त्याग करना चाहिये और दस−पाँच मिनट बाद फिर पूरा जल भर कर एनीमा लेना चाहिये। जब पूरा पानी चला जाय तो टोंटी को बाहर निकाल कर 15-20 मिनट तक सीधे और दाँयी−बाँयी करवट से लेटना चाहिये और पेट को थोड़ा-थोड़ा फुलाते और सिकोड़ते रहना चाहिए जिससे पानी हिलकर मल को घुला सके। जब मल त्याग की इच्छा काफी तीव्र हो तो मल−त्याग को चले जायें। इसलिये एनीमा का प्रयोग शौचस्थान के समीप ही करना उचित होता है।
एनीमा लेने की एक दूसरी विधि भी है। बजाय चटाई पर करवट से लेटने के औंधा पेट के बल लेटा जाय और दोनों घुटनों को सिकोड़ कर ऊँट की तरह हो जाया जाय। इस तरह करने से पेट कुछ नीचा हो जायेगा और चूतड़ ऊपर की तरफ उठ जायेंगी। इस विधि में यह लाभ बतलाया जाता है कि पेट ढीला रहने से पानी आसानी से ज्यादा दूर तक चला जाता है। करवट लेकर एनीमा लेने से पानी का भार एक तरफ कम और दूसरी तरफ ज्यादा रहता है। पर इस दूसरी विधि में दोनों तरफ समान भार रहता है।
ये दोनों ही तरीके ठीक हैं, जिसको जिसमें सुविधा जान पड़े वह उससे काम ले सकता है। इसके लिये सुबह या शाम का समय अधिक ठीक रहता है। एनीमा लेने के लिये पहले मामूली ढंग से शौच हो आना उचित है।
एनीमा विधि की प्राचीनता
एनीमा की यह प्रणाली कोई नई बात नहीं है। हमारे यहाँ के अति प्राचीन ऋषि मुनि और योगी लोग भी इसी प्रकार की “वस्ति−क्रिया” से गुदा−मार्ग में पानी चढाकर मलाशय की सफाई किया करते थे। वे जल में बैठकर पेट की नसों को चला कर पिचकारी की तरह पानी खींच लेते थे। यह विधि अधिक लाभदायक और दोष रहित है और अब भी योगाभ्यासी इस तरह पानी चढ़ाया करते हैं। पर साधारण लोगों के लिये इसका अभ्यास कर सकना कठिन है। वह कार्य एनीमा द्वारा सहज में हो जाता है। इसमें कोई कठिनाई या खतरा नहीं है और हर एक मामूली समझ का आदमी इसे कर सकता है। यह क्रिया हर एक मौसम में और अस्वस्थ तथा स्वस्थ दशा में बिना किसी आशंका के प्रयोग में लाई जा सकती है।
केवल एक दिन एनीमा लेने से सफाई नहीं हो सकती। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये इसे एक सप्ताह तक तो नियमित रूप से लगाना ही चाहिए। फिर सप्ताह में तीन बार और फिर दो बार लगाकर छोड़ा जा सकता है। कठिन और पुराने रोगों में महीने, दो महीने तक भी लगातार एनीमा लगानी पड़ती है। पेट में जमा हुआ, आँतों में चिपका हुआ, सूखा, सड़ा मल, मल की गाँठें सुद्दे धीरे−धीरे निकलते हैं। नींबू का पानी उन्हें फुलाता है, छुड़ाता है, खुरचता है, कुरेदता है तब कहीं उनका निकलना आरम्भ होता है। देखने में आता है कि जब दो चार दिन एनीमा ले चुके होते हैं तब काला−काला बदबूदार मल बाहर निकलता है। साधारण अवस्था में भी पेट की ठीक तरह से सफाई होने में कम से कम एक सप्ताह तो लगता ही है। जब तक खराब, पुराना मल निकलता रहे तब तक एनीमा लेना जारी रखना आवश्यक है।
एनीमा द्वारा शरीर की सफाई का कार्य तब तक ठीक तरह पूरा नहीं होता जब तक साथ में कुछ उपवास भी न किया जाय। दो−तीन दिन का उपवास तो सभी को करना चाहिये। उपवास के समय पानी खूब पीना चाहिये और दिन में दो−चार बार पानी, शहद तथा नींबू मिलाकर भी पानी चाहिए। इन दिनों साधारण परिश्रम करना, कुछ टहलना तो आवश्यक है पर अधिक परिश्रम का कोई काम करना न चाहिए। ज्यादा काम करने से शरीर की शक्ति उसमें लग जाती है और सफाई के काम में कमी पड़ जाती है। इसलिये उस समय शरीर की पूरी शक्ति को जहाँ तक सम्भव हो मल के निकालने और अंगों को ठीक करने में ही लगाना चाहिये।