शरीर शोधन के लिये ‘पंच−कर्म’

August 1962

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आयुर्वेद शास्त्र में आयु की अधिकता अथवा रहन−सहन के दोषों से उत्पन्न समस्त शरीर−व्यापी निर्बलता,अशक्तता का निवारण करने के लिये अति प्राचीनकाल से कल्प−चिकित्सा की योजना की गई है। इसका आशय यह है कि रोगी की प्रकृति और रोग की दशा के अनुसार किसी एक ही द्रव्य अथवा जड़ी−बूटी का प्रयोग करके स्वास्थ्य का सुधार किया जाय। वर्तमान समय में प्राकृतिक चिकित्सा भी अधिकाँश में इसी मार्ग का अनुसरण करती है। उसमें भी अनेक द्रव्यों को मिलाकर और उनमें तरह−तरह से परिवर्तन करके जो औषधियाँ बनाई जाती हैं उनका बहिष्कार करके फल, शाक, दूध, मठा, जड़ी आदि किसी एक ही पदार्थ का प्रयोग करके रोग को मिटाने और स्वास्थ्य को प्राप्त करने की विधि निकाली गई है। इन दोनों विधियों की तुलना करने पर आयुर्वेदिक विधि की विशेषता यह जान पड़ती है कि उसमें रोगी के ऊपर बहुत कठोर संयम का भार नहीं डाला जाता,बहुत सा काम औषधि की शक्ति और विधि से भी हो जाता है।

ऐसी शरीर का नव निर्माण करने वाली और शक्तिवर्धक चिकित्सा के लिये आयुर्वेद में सबसे पहले शरीर−शोधन का कार्यक्रम रखा है, क्योंकि वे जानते थे कि जब तक शरीर में दूषित मल भरे हुए हैं तब तक ऐसी शक्तिवर्धक दवाओं का प्रभाव ठीक तौर से प्रकट ही नहीं हो सकता। वर्तमान समय के प्राकृतिक चिकित्सक भी फल चिकित्सा, आहार−चिकित्सा, दुग्ध−चिकित्सा द्वारा शरीर को नीरोग और शक्तिशाली बनाने के पहले उपवास और एनीमा द्वारा शरीर के मल को निकाल कर उसे पूरी तरह शुद्ध करते हैं। इन दोनों विधियों से मलाशय और अन्य अंगों के मल तो अवश्य निकलते हैं, पर समस्त शरीर में व्याप्त,रक्त में मिले, मज्जा और हड्डी में समाये मल सहज में दूर नहीं हो पाते। फिर मलों को पूरी तरह निकालने के लिये लम्बा उपवास करने में लाभ के साथ खतरा भी रहता है और थोड़ी−सी भूल हो जाने पर लेने के देने पड़ जाते हैं। पर आयुर्वेदीय पंच−कर्म में शरीर−शोधन का कार्य सामान्य पर प्रभावशाली द्रव्यों से किया जाता है जिसमें थोड़े समय में ही पूरी शुद्धि हो जाती है और शरीर औषधि के प्रभाव को अविलम्ब ग्रहण करने को स्थिति में आ जाता है। इन पंच− कर्मों के नाम (1)स्नेहन, (2)स्वेदन, (3)वमन, (4)विरेचन, (5)वस्ति हैं।

शरीर का मल निकालने के प्रत्यक्ष साधन यद्यपि वमन, विरेचन और वस्ति ही हैं जिनसे मलाशय, छोटी आँत, आमाशय और फेफड़ों का दूषित मल गुदा मुख और नाक के द्वारा निकल जाता है। पर इन कर्मों को सहज में निर्विघ्न रूप से सम्पन्न करने के लिये सर्वप्रथम स्नेहन और स्वेदन की व्यवस्था की गई है जिससे शारीरिक अंग के भीतर घुसा, चिकटा और ल्हिसा हुआ मल नर्म और ढीला होकर सुगमतापूर्वक निकल जाय और उसके निकालने में उन अंगों को किसी प्रकार क्षति न पहुँचे।

(1) स्नेहन—शरीर के भीतरी मलों को बाहर निकलने योग्य अवस्था में लाने के लिये सबसे पहले स्नेहन की आवश्यकता पड़ती है। जिस तरह किसी पुरानी मशीन में लगे मुरचा को छुड़ाने के लिए सबसे पहले उसे तेल से भली प्रकार भिगो दिया जाता है उसी प्रकार शरीर में जगह−जगह जमे और चिकटे मल को फुलाने, नम करने के लिये शरीर में भी घी या तेल की चिकनाई दी जाती है। भीतरी अंगों पर असर डालने के लिये इस चिकनाई को विशेष रूप से तो पीना ही पड़ता है पर सब अंगों में शीघ्र असर हो जाय इसके लिये वस्ति, शिरोवस्ति,उत्तरवस्ति,नस्य, कर्णपूरण और मालिश द्वारा भी चिकनाई को शरीर के कोने−कोने में पहुँचाने का प्रयत्न किया जाता है। स्नेहन के लिए अन्यदेशीय व्यक्ति विभिन्न पदार्थों का प्रयोग करते हैं पर हमारे यहाँ घी और तिल का तेल ही सर्वोत्तम माना गया है। इसी को एक पाव, सवा पाव की मात्रा दो−तीन दिन पीने और शरीर में सर्वत्र लगाने से वह रोम−रोम में भिदकर मल को नर्म कर देता है।

(2) स्वेदन—स्नेहन से नर्म पड़े मल को किसी प्रकार की गर्मी देकर पिघलाने और अपने स्थान से हटाकर आमाशय और मलाशय में पहुँचाने के लिये स्वेदन क्रिया की जाती है। इसके लिये रोगी को झिरझिरी बुनी चारपाई पर लिटा कर नीचे गर्म पानी के भाप निकलते हुए दो−चार बर्तन रख दिये जाते हैं और ऊपर से कम्बल उढ़ा दिया जाता है। इससे खूब पसीना निकलता है और शरीर के भीतर गर्मी पहुँच कर वहाँ के मल भी पिघल कर इधर−उधर जाने लगते हैं। वात और कफ़ के रोगों में तो इस प्रकार का स्वेदन परमावश्यक बतलाया गया है। औषधियों की गरम पोटली से शरीर को सेंक कर भी मलों को ढीला किया जाता है।

(3) वमन—जब इस प्रकार उपरोक्त दो क्रियाओं से शरीर के विभिन्न अंगों का मल आमाशय में इकट्ठा हो जाता है तो उसको बाहर निकालने के लिये वमन और विरेचन के प्रयोग किये जाते हैं। वमन द्वारा विशेष रूप से दूषित श्लेष्मा को ही बाहर निकाला जाता है। इसके लिये गर्म पानी में नमक या मैनफल जैसी कोई औषधि मिला कर काफी परिमाण में पिलाई जाती है और फिर हलक में उँगली डालकर उल्टी कर दी जाती है। पर वह कर्म सावधानी का है इसलिये किसी सुयोग्य चिकित्सक की देख−रेख में ही कराना चाहिये। वमन यदि अधूरा रह जाय तो उससे लाभ के स्थान में अनेक प्रकार से हानियाँ हो सकती हैं।

(4) विरेचन—आमाशय और छोटी आँतों की शुद्धि के लिए विरेचन की आवश्यकता होती है। वस्ति या एनीमा का मल बड़ी आँत में प्रवेश करता है और उससे वहीं के मल की शुद्धि होती है। पर छोटी आँत भी लगभग 24 फीट लम्बी होती है और जिसमें समस्त भोजन का रस निकलता है और वह बिना विरेचन के मल रहित नहीं हो सकती। पर विरेचन की औषधि रोगी की प्रकृति के अनुसार दी जानी चाहिए। जिसका कोठा पित्त के प्रभाव से मृदु हो उसे हलकी दवा दी जानी चाहिये और कफ़ से जिसका कोठा कठिन हो रहा है उसको तेज दवा की आवश्यकता होती है। विरेचन के पहले तिक्त घृत पिलाना उचित है, अन्यथा इस बात की आशंका रहती है कि दस्त लाने वाली दवा मल के साथ शुद्ध पित्त और अन्य रसों को भी बहा ले जायगी।

(5) वस्ति—विरेचन आदि द्वारा आमाशय और अन्य अंगों का मल निकल जाने पर भी बड़ी आँत और उसके आस−पास के अंगों में नया और पुराना बहुत −सा मल जमा रहता ही है जो इनमें से किसी उपाय से नहीं निकलता और उसे ठीक करने का एक मात्र उपाय वस्ति−क्रिया ही है। प्राचीन ग्रंथों में इसकी बड़ी प्रशंसा की है और इसे समस्त चिकित्सा का आधा−भाग (चिकित्सार्ध) बतलाया है। इससे शरीर के दोष निकलकर हल्कापन आ जाता है।

पंच−कर्म के इस संक्षिप्त विवरण से पाठक समझ सकते हैं कि प्राचीन आयुर्वेद के आचार्यों ने शरीर शोधन में ऐसी सावधानी से काम लिया है कि शरीर के किसी अंग को जरा भी हानि न पहुँचे, न कोई उपयोगी तत्व नष्ट हो , और शरीर सिर से पैर तक पूरी तरह शुद्ध हो जाय। इस तरह शरीर की सफाई हो जाने पर ही अन्य औषधियों का प्रभाव शरीर पर शीघ्र पड़ता है और वे अपना कार्य ठीक ढंग से कर सकती हैं। खेद का विषय है कि इधर बहुत समय से वैद्यों ने अध्ययन,अनुभव और साधनों के अभाव से पंच−कर्म चिकित्सा को छोड़ दिया था, अथवा यह भी कह सकते हैं कि वे इसको भूल गये थे। अब युग−परिवर्तन के प्रभाव से कुछ वैद्यों का ध्यान इस तरफ गया है और उनको इससे जो अनुभव प्राप्त हुआ है उसके आधार पर उनका कहना है कि केवल पंच−कर्म से ही शरीर बिल्कुल स्वस्थ हो जाता है और प्रायः सभी रोगों की जड़ कट जाती है। आवश्यकता इस बात की है कि लोग इस चिकित्सा को अपनाकर इससे लाभ उठाये।


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