पिछले लेखों में यह बतलाया जा चुका है कि इस संसार में मनुष्य की उत्पत्ति में प्रकृति के विशेष नियम या दैवी−विधान का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति इन नियमों और सिद्धान्तों को समझ कर अपना रहन−सहन तदनुकूल रखते हैं वे सदैव स्वास्थ्ययुक्त और सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। अस्वस्थता तथा रोग हमारे अनियमित अथवा विपरीत रहन−सहन के ही परिणाम होते हैं। अप्राकृतिक अथवा अति मात्रा में किये गये आहार−विहार के परिणाम से शरीर में मल की वृद्धि होने लगती है, विषाक्त विजातीय द्रव्य उत्पन्न होकर विभिन्न अवयवों में जमा होने लगते हैं, रक्त संचार में बाधा पड़कर मल का बाहर निकलना कम होने लगता है और अन्त में जब यह विजातीय द्रव्य शरीर की सहन शक्ति से अधिक बढ़ जाता है तो वह ज्वर, दस्त, खाँसी आदि रोग उत्पन्न कर देता है। पर ये रोग भी आरम्भिक दशा में मनुष्य के हित के लिए ही होते हैं, उनके द्वारा प्रकृति शरीर के संचित मल को निकालकर शुद्ध और निर्मल बनाने का प्रयत्न करती है। पर अधिकाँश मनुष्य इस बात के रहस्य को न समझकर रोग को पीड़ा का कारण और एक आकस्मिक दुर्घटना के समान मान कर उसे दवा या अन्य अप्राकृतिक उपायों से मिटाने की, दबा देने की कोशिश करते हैं जिसका परिणाम और भी बुरा होता है और सरल रोग, जटिल रोग का रूप धारण कर लेता है।
ऐसी स्थिति में हमारा क्या कर्तव्य है? जो मनुष्य इस प्रश्न को एक सच्चे जिज्ञासु के रूप में पूछता है उसे हमारा उत्तर यही है कि अगर तुम अपना जीवन सुख और शान्ति से व्यतीत करने की अभिलाषा रखते हो तो प्रथम तो प्रकृति के अनुसार ही अपना रहन−सहन रखो। और यदि अनजाने में या लापरवाही से प्रकृति विरुद्ध चल कर तुमने अपने शरीर में विजातीय द्रव्य और रोग को उत्पन्न कर लिया तब भी फिर पीछे की तरफ लौटो, अर्थात् अप्राकृतिक आदतों और कार्यों को त्याग कर शुद्ध प्राकृतिक मार्ग पर चलने लगो। यह बात तो हम सभी जानते हैं कि हमारा शरीर प्रकृति के पंचतत्वों—आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी से मिलकर बना है, इन्हीं के द्वारा हमारे देखते−देखते यह हाथ भर के बालक से बढ़कर साढ़े तीन हाथ का युवक बन जाता है, इसलिये इससे सम्बन्ध रखने वाली जो भी समस्या उत्पन्न हो, जो भी आवश्यकता आन पड़े उसके लिये पंचतत्वों की ही सहायता लेनी चाहिये। इन पंचतत्वों का परिणाम और क्रम ठीक रहने से ही स्वस्थ अवस्था कायम रहती है और इनमें गड़बड़ी हो जाने से, परिमाण घट बढ़ जाने से रोग पैदा हो जाता है। जाँच करने से ज्ञात होता है कि वायु तत्व की मात्रा घट−बढ़ जाने से गठिया, लकवा, दर्द, कम्प, अकड़न, गुल्म, हड़फूटन, नाड़ी विक्षोभ आदि उत्पन्न होते हैं। अग्नि तत्व में अन्तर पड़ने से फोड़े, फुन्सी, रक्त पित्त, हैजा, दस्त, क्षय, श्वास, उपदंश, दाह, खून फिसाद आदि की वृद्धि होती है। जल तत्व की गड़बड़ी से जलोदर, पेचिश, संग्रहणी, बहुमूत्र, प्रमेह, स्वप्नदोष, सोमप्रदर, जुकाम, खाँसी जैसे रोग प्रकट होते हैं। पृथ्वी तत्व बढ़ जाने से फीलपाँव, तिल्ली, जिगर, रसौली, मेद वृद्धि, मोटापा आदि रोग होते हैं। आकाश तत्व के विकार से मूर्छा, मृगी, उन्माद, पागलपन, सनक, अनिद्रा, ब्रह्म शक, घबराहट, दुःस्वप्न, गूँगापन, बहरापन, विस्मृति आदि शिकायतें पैदा होती हैं। दो−तीन या अधिक विकारों के मिश्रण से अन्य पचासों तरह के रोग उत्पन्न होते हैं।
जिस कारण से कोई विकार पैदा हुआ हो उस कारण को दूर कर देने से वह दूर भी हो जाता है। जब हम यह जान लेते हैं कि अमुकरोग अमुक तत्व की कमी या अधिकता से पैदा होता है तो उसी तत्व का प्रयोग करके उसका निवारण करना सहज हो जाता है।
मिट्टी—मिट्टी में विष या विकारों को खींचने की अद्भुत शक्ति पाई जाती है। शरीर के जिस अंग पर मिट्टी का लेप किया जायेगा और जिस अंग को मिट्टी में डाला जायेगा उसी का विकारयुक्त अंश खिंचकर मिट्टी में आ जायेगा। इसके साथ ही मिट्टी में पोषण देने की भी अपूर्व क्षमता है। जैसे फल, फूल आदि से एक प्रकार की गन्ध निकलती है, जो वास्तव में एक तरह की वाष्प या गैस होती है, उसी प्रकार पृथ्वी या मिट्टी से भी एक विशेष गैस निकलती है। जो बड़े अमूल्य गुणों से युक्त होती है। पृथ्वी में बड़े अमूल्य रासायनिक तत्व भरे पड़े हैं। सब प्रकार की धातुऐं, वनस्पतियाँ, औषधियाँ तथा समस्त खाद्य पदार्थ पृथ्वी से ही प्रकट होते हैं। पृथ्वी का रासायनिक द्रव्य ही इन सब वस्तुओं के रूप में परिवर्तित होकर प्रस्तुत होता है। यही रासायनिक तत्व वाष्प के साथ बाहर भी आता है। पृथ्वी के समीप शरीर रहने से वह गैस स्वास्थ्य पर बहुत हितकारी प्रभाव डालती है। प्राचीन समय के ऋषि मुनि प्रायः कच्ची झोंपड़ियों या खोदी हुई गुफाओं में रहते थे जहाँ उनका सम्पर्क सदैव पृथ्वी तत्व से रहता था। इससे उनका स्वास्थ्य सुदृढ़ रहता था और पूर्ण पोषण भी मिलता था। इसका परिणाम यह होता था कि नाममात्र के आहार को लेकर ही वे दीर्घजीवी होते थे। इसी प्रकार छोटे बालक जो प्रायः धूल मिट्टी में खेलते लेटते रहते हैं उनकी शारीरिक वृद्धि बड़ी शीघ्रता से होती है और उनकी बड़ी से बड़ी चोट ही भी शीघ्र ठीक हो जाती है।
जल—मनुष्य के शरीर में जल का अंश 90 प्रतिशत बतलाया जाता है। इसी से जल की सर्वाधिक आवश्यकता प्रतीत होती है। जल की कमी से देह सूखने लगती है, नाड़ियाँ जकड़ती हैं, हड्डियाँ निकल आती हैं, खून गाढ़ा हो जाता है तथा दाह, प्यास आदि अनेक प्रकार के उपद्रव होने लगते हैं।
जल हमारे शरीर को सींचता है, इसलिये मनुष्य को प्रतिदिन कई सेर पानी पीना आवश्यक होता है। ताजा जल में ऐसे कितने ही रासायनिक तत्व पाये जाते हैं जिनसे शरीर को पर्याप्त पोषण मिलता है। शरीर के भीतर के अनेक विकार इस पानी के साथ ही पसीना और मूत्र के रूप में बाहर निकल जाते हैं। पर्याप्त मात्रा में उचित विधि से यदि अंग प्रत्यंगों को जल प्राप्त होता रहे तो शारीरिक स्वास्थ्य के सुदृढ़ रहने में बड़ी सहायता मिलती है।
हिन्दू धर्म−शास्त्रों में जगह−जगह जल का महत्व बतलाया गया है और लिखा है—‟अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति” अर्थात् शरीर की शुद्धि जल से ही होती है। देह में जो विकार, दोष, मल भरे हैं उनको दूर करके शरीर को शुद्ध बनाना है तो जल का यथोचित उपयोग अनिवार्य है। अभी तक योरोप के लोग ठंड के कारण अधिक स्नान नहीं करते थे और इसलिए इसके लाभों से भी अपरिचित थे। पर अब वहाँ के अनेक अन्वेषकों ने जाँच करके स्नान के महत्वपूर्ण गुणों का पता लगाकर सर्वसाधारण को बतलाया तो वहाँ इसका खूब प्रचार हो गया है और तरह−तरह के स्नानों के द्वारा सब प्रकार के रोगों की सफलतापूर्वक चिकित्सा की जाती है।
हमारे देश में तो प्राचीन काल से ही स्नान को इतना महत्व दिया गया है कि हर एक श्रेष्ठ कर्म या धार्मिक कृत्य के पहले स्नान का विधान है। नित्य स्नान से लेकर तीर्थ−स्नान, माघ−स्नान, बैसाख−स्नान, कार्तिक−स्नान, पर्व−स्नान आदि अनेक विधियों से लोगों को स्नान करने की प्रेरणा की गई है, जिससे वे मूलतत्त्व न भी समझें तो भी धर्म का ख्याल करके ही नियमित स्नान करके लाभ उठाते रहें। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये जल का विधि पूर्वक काफी मात्रा में प्रयोग करना अत्यावश्यक है।
अग्नि—अग्नि तत्व जीवन का उत्पादक है। संसार में जितने जीव−जन्तु, पौधे, वनस्पति आदि पैदा होते हैं और बढ़ते हैं, उनके मूल में गर्मी अवश्य रहती है। जहाँ कहीं चैतन्यता दिखाई देती है वहाँ गर्मी अवश्य पाई जाती है। शरीर में से गर्मी का अन्त हो जाय तो जीवन का अन्त हो जाना भी अवश्यम्भावी है। वेद में भी सर्व प्रथम ‘अग्नि मीले पुरोहितम’ कहकर सब तत्वों में अग्नि के महत्व को प्रकट किया है।
सूर्य अग्नि तत्व का ही प्रतीक है अथवा यों कहिये कि अग्नि सूर्य की ही प्रतिनिधि है। इस कारण शास्त्रों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। यह बात सदा देखने में आती है कि जिन पौधों, पेड़ों को ठीक धूप लगती है वे शीघ्र बढ़ते हैं और खूब फलते फूलते हैं। पर जो अँधेरे छाया के स्थानों में रखे जाते हैं वे पीले और मुरझाये से ही बने रहते हैं।
हमारे देश और धर्म में इस तत्व को समझकर सदा से सूर्य की उपासना को प्रधान धर्म−कार्य स्वीकार किया है। अब पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी सूर्य की अद्भुत शक्ति और गुणों का पता लगाया है और वहाँ सूर्य किरणों के प्रयोग से रोग निवारण की नई ही चिकित्सा प्रणाली का प्रचार किया गया है। वहाँ मशीनों द्वारा सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों को पृथक करके सैकड़ों कठिन रोगों को सहज में ठीक किया जा रहा है। कितने ही बड़े−बड़े अस्पताल केवल सूर्य किरणों द्वारा चिकित्सा करते हैं। साथ ही सात तरह के रंगीन काँचों और बोतलों में भरे पानी द्वारा भी रोगों का निवारण किया जाता है। रोग के कीटाणुओं को नष्ट करने की जितनी क्षमता सूर्य की किरणों में है उतनी और किसी चीज में नहीं है। इसलिये रोगियों के लिये धूप का सेवन अनिवार्य माना गया है।
वायु—समस्त तत्वों में वायु बहुत सूक्ष्म है। और इसलिये उसका प्रभाव भी शीघ्र होता है। अन्न और जल के बिना मनुष्य काफी समय तक जीवित रहे हैं, पर वायु के बिना किसी सामान्य मनुष्य का दस−पाँच मिनट भी काम नहीं चल सकता। जिस प्रकार इसके गुण और लाभ अधिक हैं, उसी प्रकार इस के गलत प्रयोग से हानियाँ भी अधिक होती हैं और जिस अंग की वायु विकृत हो जाती है उसमें तुरन्त ही असह्य वेदना होने लगती है अथवा वह पक्षाघात जैसी स्थिति में होकर सर्वथा बेकार ही हो जाता है। वायु को प्राण माना गया है और इसीलिये जीवन की निर्भरता प्राण वायु पर मानी गई है। साँस रुक जाने पर मृत्यु में कुछ देर नहीं लगती। हवा के खराब हो जाने से ही तरह−तरह की महामारियाँ, छूत के रोग आदि फैलते हैं। इसलिये बुद्धिमान लोग सदा स्वच्छ वायु के स्थान में निवास करना ही पसन्द करते हैं।
चिकित्सा जितनी स्थूल होती है उतना ही उसका प्रभाव देर से होता है। चूर्ण, चटनी, अवलेह आदि के रूप में ली गई दवा पहले पेट में जाकर पचती है, फिर रस और रक्त के रूप में परिवर्तित होकर कुछ असर दिखाती है। यदि पाचन क्रिया ठीक नहीं होती तो वह दवा बिना कुछ असर किये मल के साथ बाहर निकल जाती है। इसलिये चिकित्सक प्रायः तरल दवा देते हैं जिससे वह शरीर में जल्दी मिल सके। वायु इन दोनों से शीघ्र असर करती है। इसका उदाहरण क्लोरोफार्म है जिसे सूँघते ही बेहोशी आ जाती है, खाने की किसी दवा से इतनी जल्दी बेहोशी नहीं आ सकती।
वायु के इस गुण को ध्यान में रखकर ही भारतीय ऋषियों ने यज्ञ−हवन की प्रभावशाली वैज्ञानिक विधि का आविष्कार किया था। हवन में जिन औषधियों का प्रयोग किया जाता है वे वायु में मिल कर सूक्ष्म रूप ग्रहण कर लेती हैं और मस्तिष्क तथा समस्त शरीर पर तुरन्त प्रभाव डालती हैं। फ्राँस के एक वैज्ञानिक टिलवर्ट ने परीक्षणों द्वारा सिद्ध किया है कि शक्कर के जलाने से जो गैस उत्पन्न होती है उससे हैजा, तपेदिक, चेचक आदि रोगों का विष दूर होता है। डाक्टर हैफकिन ने बतलाया है कि घी के जलने से उत्पन्न होने वाली गैस चर्मरोग, रक्त विकार, शुष्कता, दाह और आँत्र रोग के विकारों को नष्ट करती है। डाक्टर टाटलिक ने दाख के धुँये को टाइफ़ाइड और निमोनिया ज्वर की उत्तम औषधि बताया है।
इस प्रकार हवन द्वारा वायु तत्व शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाला बन जाता है। आजकल डाक्टर भी कई रोगों का इलाज केवल सूँघने वाली दवाओं से करते हैं। वैद्यक में अनेक रोगों के लिये धूनी देने और धूम्रपान करने का उपचार बतलाया गया है।
आकाश—आकाश तत्व इतना अधिक सूक्ष्म है कि उसका अनुभव साधारण रीति से तो क्या बड़े−बड़े यंत्रों द्वारा भी भली प्रकार नहीं हो सकता। पर कार्य रूप से उसका परिचय मिलता है। वह प्रत्येक पोले स्थान में पाया जाता है और वैज्ञानिकों ने उसका ‘ईथर’ का नाम दिया है। इसका प्रधान गुण शब्द है। हम जितने भी शब्द सुनते हैं वे आकाश तत्व के द्वारा ही हमारे पास पहुँचते हैं। यदि यह तत्व न होता तो हम बाजा, घण्टा, तोप, बन्दूक, मोटर आदि किसी की आवाज जरा भी नहीं सुन सकते थे। और तो क्या उस अवस्था में किसी बात को सुनना भी असम्भव होता। पर आकाश तत्व ऐसा है कि जिसको कोई किसी प्रकार पृथक नहीं कर सकता। वही सदा प्रत्येक स्थान में व्याप्त रहकर पदार्थों के अस्तित्व को कायम रखता है।
आकाश जिस प्र्कार स्थूल शब्द को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाता है उसी प्रकार वह विचारों को भी गति प्रदान करता है। हम जैसे भी विचार करते हैं वे आकाश तत्व द्वारा चारों तरफ बिखर जाते हैं और आकाश में बादलों की तरह इधर−उधर मँडराते रहते हैं। हम अगर उन पर नियंत्रण रखने की विधि जान लें तो उनको किसी भी व्यक्ति के पास पहुँचा कर उसके मन पर इच्छानुसार प्रभाव डाल सकते हैं। इसी प्रकार हम अभ्यास द्वारा आकाश में व्याप्त श्रेष्ठ विचारों को अपनी विचार शक्ति द्वारा आकर्षित करके तरह−तरह के लाभ भी उठा सकते हैं।
इस सिद्धान्त की विवेचना करते हुये मनोविज्ञान के आचार्य ने बतलाया है कि जो लोग बीमारी की कल्पना किया करते हैं, उससे भयभीत रहते हैं, उसकी चिन्ता करते रहते हैं वे वास्तव में अधिक बीमार पड़ते हैं। इसके विपरीत जो लोग साहसी, प्रसन्न चित्त, निर्भय, निश्चित स्वभाव के होते हैं उनके पास बीमारी कदाचित ही फटकती है। स्वास्थ्य का आधा भाग उचित आहार−विहार पर और आधा भाग उपयुक्त मानसिक स्थिति पर निर्भर है।
जो निरोग रहना चाहते हैं, स्वास्थ्य को कायम रखने और बीमारी को दूर करने के अभिलाषी हैं, उन्हें अपने विचारों को सदा ऊँचा उठाकर रखना चाहिये। पाप की वासना, गन्दगी, निराशा ईर्ष्या द्वेष चिन्ता आदि के हीन विचारों को त्याग कर आशा, उत्साह पुरुषार्थ, साहस, दृढ़ता, प्रेम, पवित्रता के विचारों से अपने मन को ओतप्रोत रखे। अगर कभी किसी रोग का आक्रमण हो जाय तो उससे तनिक भी न घबड़ा कर इस बात का दृढ़ विश्वास रखे कि हम इसको बहुत शीघ्र मार भगावेंगे। स्वस्थ रहने की अवस्था में यही विश्वास रखें कि हम कभी बीमार नहीं हो सकते। इस प्रकार के विचार शरीर को स्वस्थ रखने में बड़ी सहायता करते हैं। इसी प्रकार जिस चिकित्सा को किया जाय उस पर हृदय से विश्वास करने से ही वह पूरा लाभ पहुँचा सकती है। यदि आपको चिकित्सक और उसके द्वारा बतलाये उपचार पर पूरा विश्वास नहीं है तो उससे नाम मात्र का ही फायदा हो सकता है।
इस प्रकार हमारे शरीर और मल का निर्माण तथा सञ्चालन पञ्च तत्वों द्वारा ही होता है। अगर उनके उचित परिमाण तथा क्रम में अन्तर पड़ जायेगा तो निःसन्देह हमारा स्वास्थ्य खराब हो जायेगा और कोई न कोई रोग हमारा पीछा करने लगेगा। इसलिये निरोग जीवन की कामना रखने वाले व्यक्तियों को इन पाँचों तत्वों का उचित समन्वय करके आरोग्यता प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये और कभी भूल या दुर्घटनावश रोगी हो जायें तो कृत्रिम औषधियों के फेर में न पड़कर इन्हीं तत्वों द्वारा पुनः स्वास्थ्य प्राप्त करने का उद्योग करना चाहिये।