प्राकृतिक चिकित्सा में जड़ी− बूटियों का स्थान

August 1962

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प्राकृतिक−चिकित्सा के मुख्य साधन मिट्टी, जल,धूप, वायु आदि माने गये हैं। इनका उपचार प्रायः बाह्य रूप से किया जाता है। इनके असर से शरीर के भीतर का दूषित मल और विजातीय द्रव्य घुल कर या द्रव बनकर मलाशय, गुर्दा या चर्म द्वारा बाहर निकल जाते हैं। पर अनेक व्यक्तियों की प्रकृति ऐसी होती है कि उन पर इनका असर बड़ी देर से होता है और तब तक वे घबड़ाकर प्राकृतिक उपचार को त्याग देते हैं। ऐसे लोगों के लिये अनुभवी चिकित्सक पुराने समय से काम में लाई जाने वाली उन जड़ी बूटियों और खाद्य पदार्थों को काम में लाते हैं जिनकी रोगनाशक शक्ति प्रसिद्ध है और जो किसी तरह की हानि नहीं पहुँचाते। इस प्रकार की चिकित्सा करने वालों में जर्मनी का फादर नीप बहुत प्रसिद्ध है। वह जल−चिकित्सा का एक बहुत बड़ा ज्ञाता और प्रचारक था और उसने इसके द्वारा अगणित कठिन रोगियों को चंगा करके सर्वत्र इसका डंका बजा दिया था।

फादर नीप अपनी चिकित्सा पद्धति में जलोपचार के साथ अनुभूत जड़ी बूटियों का भी प्रयोग करता था। अनेक कट्टर विचारों के प्राकृतिक चिकित्सक उसके इस कार्य के विरुद्ध थे और तरह−तरह के आक्षेप करते थे। उनका आशय यह था कि चाहे ये जड़ी बूटियाँ पुराने जमाने से जनता में प्रचलित रही हैं, पर प्राकृतिक चिकित्सकों द्वारा इनका उपयोग औषधियों के प्रति लोगों के विश्वास को सुदृढ़ ही बनायेगा और अन्त में वे वैद्यों और अत्तारों के पास ही पहुँच जायेंगे। दूसरे पक्ष वालों का कहना था कि जिन साधारण जड़ी− बूटियों को हम अपने दैनिक जीवन में काम में लाते रहते हैं, अगर उनमें शक्तिशाली स्वास्थ्य प्रदायक तत्व पाये जाते हों तो प्राकृतिक उपचारों के साथ उनका प्रयोग करना अनुचित नहीं है। इस तरह हम केवल एक बार में किसी एक ही बूटी का और वह भी उसके प्राकृतिक रूप में ज्यों का त्यों उपयोग करते हैं तो उसको औषधि− चिकित्सा नहीं कह सकते हैं। औषधि वही है जिसे तरह− तरह की प्रक्रियाओं से बहुत कुछ बदल दिया गया हो और जो मुख्यतः ऐसे विषाक्त या तीव्र द्रव्यों से बनी हो जिनको हम साधारण अवस्था में स्वास्थ्य के लिये हानिकारक मानते हैं। इस बाद विवाद के सम्बन्ध में स्वयं फादर नीप ने जो विचार प्रकट किये थे वे पाठकों को विशेष महत्वपूर्ण जान पड़ेंगे। उनका एक अंश यहाँ दिया जाता है।

“मैंने अपनी जल−चिकित्सा में जड़ी−बूटियों का प्रयोग सम्मिलित करने के विषय में पहले ही काफी सोचा, समझा और विचार किया था। मैं जानता था कि ये दवायें यद्यपि भीतर पहुँच कर रोग को मिटाने में काफी सहायता देंगी, पर उनको प्रयोग करने से लोग यह समझेंगे कि हमको अपनी जल−चिकित्सा पर पूरा विश्वास नहीं है। पर वास्तविक बात यह थी कि कितने ही रोगियों को जलोपचार से बहुत भय रहता है और वे अधिक समय तक इलाज में लगे रहने में समर्थ नहीं होते। मैंने ऐसे बीमारों की सुविधा के लिये यह निश्चय किया कि उनकी बीमारी को दूर करने में जलोपचार के साथ जड़ी− बूटियों का प्रयोग भी किया जाय जिससे रोगमुक्ति शीघ्र हो सकना संभव है।”

जड़ी बूटियों के तीन उद्देश्य

‟जो लोग मेरी जड़ी बूटियों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करेंगे वे तुरन्त यह अनुभव कर लेंगे कि जलोपचार की तरह उनके भी वे ही तीन उद्देश्य हैं। प्रथम शरीर के भीतर जमा दूषित तत्व को घुला देना, उसको बाहर निकालना और अंग−प्रत्यंगों को सशक्त बनाना। इस सम्बन्ध में मेरा विश्वास है कि जल का बाह्य उपचार और जड़ी−बूटी का भीतरी उपचार एक दूसरे के सहायक हैं और मिलकर आरोग्यता प्रदान करते हैं।”

“जो लोग इस भ्रम में हैं कि जल के उपचार बड़ी कठोरता और कट्टरता से किये जायें वे गलती कर रहे हैं। इसी प्रकार जो यह विचार करते हैं कि जड़ी− बूटियाँ लगातार और अधिक परिणाम में ली जाय वे भी भूल में पड़े हैं। सदैव समस्त अवस्थाओं में इस सुनहरी नियम को दृष्टिगोचर रखना चाहिये कि उपचार चाहे बाहरी हो अथवा भीतरी उसका अत्यन्त सौम्यता के साथ प्रयोग करना ही हितकारी होता है।”

“बहुत से रोगी ऐसे होते हैं जिनको थोड़ी दवा से संतोष नहीं होता, जितनी अधिक दवाएँ, गोलियाँ आदि उनको दी जायें उतना ही ज्यादा वे संतुष्ट होते हैं। मैं एक बहुत अच्छे चिकित्सक को जानता हूँ जो रोगी को कम से कम दवा देता था। इस कारण रोगी उससे बार−बार शिकायत करते और दवाऐं माँग− माँग कर तंग करते थे। उसने कहा कि जब मेरा ऐसे मूर्ख व्यक्तियों से पाला पड़ता है तब मैं उनको आटे की बनी गोलियाँ दे देता हूँ जिसमें से दवा की सी महक आती है, पर पानी के सिवाय कुछ नहीं होता। वे इन गोलियों को खुशी से ले जाते हैं और बाद में जब मैं पता लगाता हूँ तो उन्हीं से उनकी बीमारी ठीक हो जाती है और वे कहते हैं कि ऐसी दवा तो हमको जीवन में कभी मिली ही नहीं।”

प्लेटन का मत

एक दूसरे बड़े चिकित्सक प्लेटन ने लिखा है कि जलोपचार के साथ अनुभव में आई हुई प्रभावशाली किन्तु निर्दोष वनस्पतियों जड़ी− बूटियों का सेवन करने से बहुत सहायता मिलती है और जमा हुआ मल अपेक्षाकृत शीघ्र घुल−मिलकर निकल जाता है। यह अवश्य देख लेना चाहिये कि ऐसी जड़ी− बूटियों से बाद में कोई हानिकारक प्रतिक्रिया न होती हो। मैं नहीं समझता कि इस प्रकार जड़ी−बूटियों के प्रयोग में कोई हानि है। उन कट्टर और हठधर्मी लोगों से जो कैसी भी लाभदायक जड़ी-बूटी का तनिक भी प्रयोग करना नहीं चाहते मैं यह प्रश्न करता हूँ कि क्या वे अपने मरीजों को भोजन सम्बन्धी नुस्खे नहीं बतलाते? क्या वे उनको सलाद, पालक, सिलारी, प्याज, लहसुन, अदरक आदि का आवश्यकतानुसार प्रयोग करने की सलाह नहीं देते? वे जानते हैं कि ये और कितने अन्य पौधे नित्यप्रति हमारे रसोईघरों में काम में लाये जाते है। उनमें निश्चित रूप से दवा का गुण होता है और यही कारण है कि वे हमारे भोजन में एक महत्वपूर्ण अंग माने जाते हैं हम ऐसे बहुत से लोगों को जानते हैं जिनको प्राकृतिक उपचारों से प्राप्त होने वाले लाभ पर पूरा विश्वास है, पर जिनमें दवाओं का विश्वास भी ऐसी मजबूती के साथ जमा हुआ है कि वे दवा की बोतल का त्याग बड़ी अनिच्छापूर्वक करते हैं। यदि ऐसे लोगों को अगणित बार की आजमाई हुई एकाध जड़ी बूटी का उपयोग करना बतला दिया जाय तो उनको बड़ा संतोष हो जाता है, और किसी तरह की हानि की तो कोई संभावना रहती ही नहीं।

इसी प्रकार अमरीका के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक डा. वेनेडिक्ट लस्ट ने लिखा है कि—वनस्पतियों और जड़ी−बूटियों के रसों के महान रोग निवारक गुण अति प्राचीनकाल से समस्त संसार के लोगों द्वारा जाने और माने गये हैं। केवल पिछले सत्तर अस्सी वर्षों के भीतर जब कि एलोपैथी चिकित्सा ने कृत्रिम रूप से बनाई गई रासायनिक औषधियों का प्रयोग करना आरम्भ किया है और उनके लिये विज्ञापनों द्वारा बेहद शोर मचाया गया है, लोगों का ध्यान इन जड़ी−बूटियों की तरफ से हटने लगा है। आधुनिक चिकित्सा− विज्ञान कुछ समय के लिये तो इन शीघ्र फलदायक औषधियों द्वारा लोगों को भुलावे में डालने में सफल हो गया, पर जब उनके पीछे होने वाले दुष्परिणाम दृष्टिगोचर हुये तो लोगों का ध्यान फिर जड़ी−बूटियों की तरफ गया और फादर नीप जैसे सुयोग्य चिकित्सकों ने उनकी श्रेष्ठता और उपयोगिता को असंदिग्ध रूप से सिद्ध करके दिखला दिया।

आयुर्वेद का एकौषधि−विधान

यद्यपि फादर नीप ने अपने समय की परिस्थिति के अनुसार जड़ी−बूटियों को केवल उनके स्वाभाविक रूप में ही सेवन करने का प्रचार नहीं किया वरन् उनका सत, काढ़ा चूर्ण और तेल बनाकर काम में लाने का परामर्श दिया, पर अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं, इसलिए यदि हम औषधियों का इतना विस्तार न भी करें तो भी किसी एक जड़ी बूटी को उसके प्राकृतिक रूप में प्रयोग करने में कोई हानि नहीं बतलाई जा सकती। केवल औषधि का नाम लेकर दोषारोपण करने से कोई लाभ नहीं। प्राकृतिक चिकित्सा भी इन पचास वर्षों के भीतर बहुत कुछ बदली है और उसमें सीधे−सादे स्नानों और पट्टियों के बजाय बहुमूल्य मशीनों द्वारा इलाज करने, बिजली और सूर्य−चिकित्सा के लिये बड़े−बड़े यंत्र और विशेष मकान,कमरे आदि बनाने का भी समावेश हो गया है। इसके अतिरिक्त हमारी प्राचीन विधियों का ध्यान रखा गया है। आयुर्वेद के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ‛चरक−संहिता’ में काष्ठौषधि और वनस्पतियों को ही प्रधानता दी गई है। भस्मों का प्रयोग बाद के कुछ चिकित्सकों ने ही अधिक फैलाया है। इसलिये यदि हम आयुर्वेद में प्रयुक्त आमतौर से मिलने वाली कुछ जड़ी−बूटियों का प्रयोग करके रोगों का निवारण शीघ्रतापूर्वक कर सकते हैं, तो इसमें एतराज अथवा हानि की कोई बात नहीं।

एक प्रमुख भारतीय प्राकृतिक चिकित्सक ने जड़ी−बूटियों का समर्थन करते हुये एक बहुत बड़ा निबन्ध लिखा है। उसमें उन्होंने जिन वनस्पतियों, बूटियों तथा अन्य पौधों से प्राप्त वस्तुओं का वर्णन किया है उनमें से कुछ के नाम यहाँ दिये जाते हैं— हींग, रसौत, पतन, सुपाड़ी, काली मिर्च, अतीस, बाँस, बरगद, कपूर, काला जीरा, बड़ी इलायची, चाकसू, कोयला, दालचीनी, धनिया,जीरा, सीतल−चीनी, वायविडेंग सौंफ, बबूल, मेंहदी, तुलसी, ईसबगोल, अलसी, पीपल, अडूसा, गेंदा, नीम, माजूफल,अजवायन, पिपरमिंट, खसखस, कलौंजी, गुलाब, केसर, चन्दन का तेल−हल्दी, वनफशा, असगग्ध आदि। इस सूची को देखकर हम कह सकते हैं कि इनमें से अधिकाँश वस्तुओं का उपयोग हम साधारण अवस्था में भी मसालों अथवा अन्य रूप में करते रहते हैं और इनमें कोई भी चीज ऐसी नहीं है कि जिसको विषाक्त या विजातीय कहा जा सके। इनमें से कितनी ही चीजें तो भोजन के रूप में ही शरीर के भीतर जाती हैं और अपना प्रभाव डाल कर साधारण रूप में मल के साथ वहिर्गत हो जाती हैं। तेज इंजेक्शनों की तरह वे हमारी रक्त −प्रणाली में सम्मिलित होकर किसी खास स्थान पर विजातीय पदार्थ के रूप में जमा नहीं हो जातीं। ऐसी साधारण जड़ी−बूटियों का प्रयोग स्वास्थ्य−रक्षा और रोग निवारण के लिये हर प्रकार से हितकारी ही कहा जा सकता है।


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