शारीरिक मल का निष्कासन—उपवास

August 1962

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पिछले लेख में जिस पंचतत्व−चिकित्सा का जिक्र किया गया है उसमें सर्वप्रथम स्थान उपवास का माना जाता है। शरीर में कोई भी रोग हो और उसकी कैसी भी चिकित्सा करनी हो पर सबसे पहले दो−चार दिन का उपवास कर लेना अनिवार्य है। जिस प्रकार धर्म कार्यों में सबसे पहले गणेश जी की पूजा अनिवार्य मानी जाती है उसी प्रकार प्राकृतिक चिकित्सा के प्रत्येक उपचार में सर्वप्रथम उपवास कर लेना परमावश्यक है। कारण यही है कि प्रत्येक रोग शरीर में विजातीय द्रव्य या मल की वृद्धि का परिणाम होता है। इसलिये रोग मिटाने का उपाय यही है कि उस मल को बाहर निकाल कर शरीर की शुद्धि की जाये, और शुद्धि का पहला उपाय उपवास ही है। उपवास का अर्थ है सब प्रकार का भोजन बिल्कुल बन्द कर देना। जब हम भोजन बन्द कर देते हैं तो दस पाँच घण्टे में हमारा आमाशय बिलकुल खाली हो जाता है और शरीर की जो प्राण−शक्ति भोजन को पचा कर रस−रक्त बनाने में लगी रहती थी वह उस कार्य से छुट्टी पा जाती है और शरीर की सफाई करने के काम में लग जाती है। यदि हम खाना बन्द नहीं करेंगे और प्राण−शक्ति का अधिकाँश भोजन को पचाने के कार्य में ही लगा रहेगा तो शरीर की सफाई, मल के बाहर निकलने, रोग के घटने आदि में से कोई बात पूरी न हो सकेगी। इसीलिये हम किसी भी शारीरिक कष्ट को मिटाने के लिये जल, मिट्टी, सूर्य ताप, वायुस्नान आदि कुछ भी उपचार करें उसमें तब तक पूर्ण सफलता नहीं मिल सकती जब तक उपवास द्वारा देह की शुद्धि न कर ली जाय।

जब उपवास द्वारा प्राण−शक्ति को छुट्टी मिलती है तो वह तुरन्त शरीर के सुधार और निर्माण के काम में जुट जाती है। उपवास के समय केवल गुदा मार्ग से ही मल नहीं निकलता वरन् आँख, कान, नाक से भी मैल निकलने लगता है। जीभ और दाँतों के ऊपर भी मैल की तह जम जाती है। चर्म के रोम कूपों द्वारा मल का कुछ अंश निकलने से पसीना भी बदबूदार हो जाता है। पेशाब में पीलापन बढ़ जाता है,और उसमें कड़वापन आ जाता है। और तो क्या साँस में भी स्पष्ट रूप से बदबू जान पड़ती है। इस प्रकार जरा फुर्सत पाते ही शरीर के सभी अंग सफाई के काम में जुट जाते हैं। इस कारण इन दिनों त्वचा और इन्द्रियों को जल्दी−जल्दी साफ करते रहना आवश्यक होता है।

उपवास करने में दूसरे अथवा तीसरे दिन कुछ अधिक कष्ट जान पड़ता है। किसी किसी को उबकाई (मतली) आती जान पड़ती है। पर यह कोई हानि की बात नहीं, दो−एक दिन में स्वयं ही मिट जाती है। जो लोग शारीरिक या मानसिक दृष्टि से निर्बल हैं उन्हें एक−दो दिन के उपवास के बाद ही जब इच्छा हो तब फलों का रस लेना आरम्भ कर देना चाहिये। यह रसाहार कहलाता है और इससे भी उपवास का उद्देश्य पूरा हो जाता है, यद्यपि उसमें समय कुछ अधिक लगता है। संतरा, मौसमी, मीठा नींबू, अँगूर, अनार आदि का एक−दो छटाँक रस दिन में 4−5 बार ले सकते हैं। यदि ये फल अधिक महँगे हों अथवा मिलते न हों तो टमाटर और अन्य तरकारियों का रस भी लिया जा सकता है। जो तरकारियाँ कच्ची खाई जा सकती हैं उनका रस कच्ची अवस्था में ही निकाल लिया जाय और जो पकाकर खाई जाती हैं उनको उबाल कर रस निकाल लें। पर इस बात का ध्यान रखें कि रस में ठोस भाग जरा भी न आने पावे। खूब अच्छी तरह से छना हुआ पानी के जैसा रस मात्र ही हो । तरबूज का रस या नारियल का पानी भी लाभदायक रहता है। अगर इनमें से कुछ भी न मिल सके या कोई अन्य कठिनाई जान पड़े तो मठा का प्रयोग कर सकते हैं। नमक, चीनी और मिर्च मसालों का इस रसाहार के साथ प्रयोग न करना चाहिये। यदि शाकों का रस बहुत अस्वादिष्ट जान पड़े तो उसमें थोड़ा नमक मिलाया जा सकता है। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिये कि यह रसाहार भी परिमित मात्रा में किया जाय। बहुत अधिक पेट भर लेने से उपवास का उद्देश्य नष्ट हो जाता है। इस लिये “थोड़ी मात्रा और अधिक देर में” इन दो सिद्धान्तों के अनुसार ही काम चलाना चाहिये।

थोड़े दिन के उपवास में किसी तरह के भय या खतरे की बात नहीं है। जो लोग समझते हैं कि हम दो चार दिन भोजन न करेंगे तो दुबले हो जायेंगे उनका ख्याल ठीक नहीं है। उपवास के बाद पथ्याहार लेने से शरीर की इतनी शीघ्रता से उन्नति होती है कि भूखे रहने के दिनों में जितनी कमी पड़ी थी उससे अधिक वृद्धि हो जाती है। पाठकों ने देखा होगा कि जब बीमारी के कारण दस−पाँच दिन का लंघन करना पड़ता है तो उसके बाद बड़े कड़ाके की भूख लगती है और शरीर में जितनी निर्बलता आती है वह ठीक आहार मिलने पर शीघ्र ही पूरी हो जाती है। इसका कारण यही होता है कि उपवास के कारण शरीर की सफाई हो जाती है भीतरी अंगों को एक प्रकार की नई शक्ति भी प्राप्त हो जाती है, इसलिये वे रस और रक्त बनाने का कार्य पहले की अपेक्षा कहीं अधिक उत्तमता से करते हैं। उपवास के समय मनुष्य का भार जरूर कम हो जाता है और कमजोरी भी आती है, पर शरीर की शुद्धि हो जाने से उसका परिणाम बहुत लाभजनक निकलता है।

किसी समय फ्राँस देश का एक छोटा स्टीमर समुद्र में तूफान के कारण रास्ते से भटक गया। उसमें भोजन सामग्री थोड़ी ही थी, जो यात्रियों की संख्या को देखते हुये छः दिन से अधिक काम नहीं दे सकती थी। यह देखकर कप्तान ने सब सामग्री लोगों में बराबर बाँट दी और कहा कि अभी हमको किनारे तक पहुँचने में लगभग एक महीना लग जायेगा, इस सामग्री को इस प्रकार खर्च करो जिससे उस समय तक काम चल जाय। यात्रियों ने ऐसा ही किया और एक महीना बाद जब वे किनारे पर जाकर लगे तो सब को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनके स्वास्थ्य में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया था। उनमें से कितने ही व्यक्तियों को जो रक्त विकार, श्वास, बहुमूत्र आदि की शिकायतें थी वे दूर हो गई थीं। वे सभी कुछ कमजोर पर स्वस्थ जान पड़ते थे। ऐसा ही एक उदाहरण जर्मनी का है। वहाँ किसी खान के बैठ जाने से एक मजदूर उसमें बन्द हो गया। वह स्थान छत नुमा था और वह उसमें साधारण रूप से रह सकता था। उसके पास किसी अन्न के लगभग पाव भर दाने थे। जब उसे बहुत अधिक भूख लगती तो उन्हीं में से कुछ दाने मुँह में डाल लेता। कड़े होने के कारण वह उनको तुरन्त नहीं चबा सकता था इसलिये काफी देर तक मुँह में रखकर उनको नर्म कर लेता तब चबाकर खाता था। लगभग बीस दिन के बाद जब खान दुबारा खोदी जा सकी, उसे निकाला गया। सब लोगों को और स्वयं उसे भी यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतने दिनों तक बन्द रहने के कारण उसकी कोई क्षति नहीं हुई थी वरन् उसकी कई शारीरिक शिकायतें दूर होकर स्वास्थ्य में बहुत सुधार हो गया था।

साधारण रीति से स्वास्थ्य−प्राप्ति के लिए उपवास का अभ्यास धीरे−धीरे बढ़ाना ठीक रहता है। दो−तीन दिन का पूरा उपवास करके फिर चार−पाँच दिन फलाहार पर रहना चाहिये और उसके बाद अन्नाहार शुरू करके एक सप्ताह में उसे पूर्ण मात्रा तक पहुँचाना चाहिये। जैसे चान्द्रायण व्रत में एक−एक ग्रास बढ़ाकर 15 दिन में पूरा भोजन करने लगते हैं वैसी ही विधि से उपवास में भी काम लेना चाहिये।

वास्तविक खतरा उपवास करने में नहीं होता वरन् उसे छोड़ने में होता है। इसलिये अधिक लम्बा उपवास तो किसी आरोग्यशास्त्री की देख रेख में किसी चिकित्सालय या स्वास्थ्य−आश्रम में करना चाहिये। उपवास के बाद यदि भारी, स्थूल, कब्ज करने वाली खुराक अधिक मात्रा में ले ली जायगी तो उससे बड़ी हानि की संभावना है। इसलिये उपवास को धीरे−धीरे तोड़ना और खुराक को क्रमशः बढ़ाना चाहिये। पहले दिन केवल फलों का रस लें, दूसरे दिन रस की मात्रा कुछ बढ़ा दें। तीसरे दिन गूदेदार फल लेवें। चौथे दिन खजूर, खरबूजा, टमाटर,गाजर आदि ले सकते हैं। पाँचवें दिन उबाली हुई तरकारियाँ और छठे दिन दलिया आदि खाना ठीक रहता है। इस प्रकार सप्ताह में साधारण भोजन तक पहुँचना निरापद रहता है। जिन लोगों को माफिक हो वे इस सप्ताह में दूध भी ले सकते हैं। ताजा धारोष्ण दूध सबसे अच्छा माना गया है। यदि ज्यादा देर का दूध हो तो उसे गरम कर लेना चाहिये। ज्यादा देर तक खौलाने से दूध के पौष्टिक तत्व नष्ट हो जाते हैं। दूध में मीठा मिलाना ठीक नहीं। इसी प्रकार एकबार के भोजन में अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ खाना भी हानिकर है। कई दाल, कई शाक, मिठाई, चटनी, आचार, फल, खीर, दही, रोटी,चावल आदि बहुत सी चीजें एक ही साथ खा लेने से न तो भोजन ठीक तरह से पचता है और न उससे अच्छा रक्त ही बनता है। इसलिये एकबार के भोजन में रोटी शाक, रोटी−दाल, चावल−दाल,दलिया−दाल आदि कोई भी दो चीजें लेना ठीक रहता है।

उपवास के सम्बन्ध में लोगों में कितनी ही तरह की भ्रांतियाँ देखने में आती हैं कुछ लोग उपवास को एक प्रकार का भूखों मरना मानते हैं वे भोजन को शरीर का स्वाभाविक धर्म मानते हैं और कहते हैं कि शरीर को भोजन न देना प्रकृति विरुद्ध है। पर वे इस बात को भूल जाते हैं कि स्वस्थ रहना भी मनुष्य के लिये स्वाभाविक है। जब वह अपनी गलती से या जिव्हा के चटोरेपन से अनुचित और अनियमित रीति से आहार करके स्वास्थ्य को बिगाड़ कर बीमार हो जाता है तभी उस गलती को ठीक करने के लिये उपवास जैसे पीछे लौटने वाले उपाय की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए यद्यपि ऊपर से देखने पर उपवास और भुखमरी में एक समानता जरूर दिखलाई पड़ती है कि दोनों अवस्थाओं में मनुष्य भोजन से वंचित हो जाता है, पर तो भी इन दोनों अवस्थाओं में जमीन आसमान का अन्तर है। उपवास तब किया जाता है जब कि शरीर को भोजन की आवश्यकता नहीं होती, उसके भीतर पहले से ही अधपचा, सड़ा, भोजन मल रूप में भर जाता है। पर भुखमरी उस हालत को कहा जाता है जब कि शरीर को भोजन की बहुत आवश्यकता हो फिर भी मनुष्य न खाये। इस दृष्टि से उपवास प्राण रक्षक है और भुखमरी प्राणों को नष्ट करने वाली है। उपवास से हमारी शारीरिक या मानसिक किसी प्रकार की हानि नहीं होती, पर भुखमरी से हमारी सभी शक्तियाँ क्षीण होती हैं और हम मृत्यु के निकट ढकेले जाते हैं। इसलिये हम यह कह सकते हैं कि जहाँ उपवास का अन्त होता है वहीं से भुखमरी का आरम्भ होता है। इस लिए उपवास करने वाले को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिये कि वह कभी आवश्यकता से अधिक उपवास न करे। जब वास्तविक उपवास पूरा हो जाता है तब थकावट, या क्लान्ति के बजाय मन में एक प्रकार की ताजगी और प्रसन्नता का भाव उदय होता है और ऐसी स्वाभाविक भूख लगती है जिस का अनुभव हमको पहले जीवन में कदाचित ही हुआ होता है। बस उसी समय उपवास को तोड़ देना और क्रमशः अल्प भोजन से पूर्ण भोजन तक बढ़ कर स्वाभाविक भोजन पर आ जाना मनुष्य का कर्तव्य है।

अगर कोई इस बात की विशेष जानकारी प्राप्त करना चाहे कि उपवास पूरे हो जाने की ठीक पहिचान कैसे की जा सकती है, तो उसे अपनी सभी शारीरिक क्रियाओं का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना पड़ेगा, क्योंकि उपवास का प्रभाव शरीर के प्रत्येक अंग पर पड़ता है। उपवास काल में वे सभी अपने भीतर जमा हो गये मैल को निकाल कर शुद्ध कर देते हैं और तभी पूर्ण रूप से स्वच्छ दिखाई पड़ते हैं जब कि उपवास का उद्देश्य पूरा हो जाता है।

जीभ— जैसे ही उपवास शुरू किया जाता है कि तुरन्त ही जीभ पर मैल जमना आरम्भ हो जाता है और जैसे−जैसे उपवास बढ़ता जाता है इस मैल का परिमाण और बदबू बढ़ती जाती है। जब तक विजातीय द्रव्य निकलता रहेगा तब तक जबान पर मल जमता रहेगा, पर जब मल समाप्त हो जायेगा तब जीभ का रंग साफ होकर गुलाबी हो जायेगा, जैसा कि साधारणतः कभी देखने में नहीं आता। यह जीभ का परिवर्तन उसी समय होता है जब उपवास पूरा होकर ठीक भूख लगने लगती है। यह जीभ का मैल एक ऐसा चिन्ह है कि जिससे रोगी की अवस्था का ठीक पता सहज में लग जाता है।

साँस— उपवास आरम्भ के बाद ही साँस में भी अन्तर पड़ जाता है और उसमें एक प्रकार की खराब गन्ध आने लगती है जो उपवास भर जारी रहती है। जीभ के मैल और साँस की बदबू में सदैव सम्बन्ध रहता है। मैल की तह जितनी ही मोटी साँस की बदबू भी उसी हिसाब से अधिक होगी। इससे यह प्रकट होता है कि हमारे फेफड़े भी भीतर से मैल को अधिकाधिक परिमाण में बाहर फेंकने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस तरह हमारे फेफड़े दिन−रात गन्दी हवा को निकालकर बहुत अधिक मैल को प्रतिदिन बाहर निकाल देते हैं। जैसे−जैसे उपवास के दिन बढ़ते जाते हैं। वैसे−वैसे ही साँस की बदबू भी बढ़ती जाती है और कभी−कभी तो वह बहुत ही तीव्र और असहनीय हो जाती है। यह साँस कुछ मीठी−मीठी जान पड़ती है, पर उसमें स्वास्थ्य की ताजगी का मीठापन नहीं होता, वह क्लोरोफार्म की तरह मीठी−सी जान पड़ती है।

तापमान−उपवास का प्रभाव तापमान पर दो तरह का पड़ता है। अगर वह सामान्य (नार्मल) से अधिक होता है। तो उपवास के साथ−साथ कम होता जाता है,और यदि तापमान सामान्य से कम होता है तो वह उपवास के प्रभाव से बढ़ जाता है। जैसे उपवास के आरम्भ करने के समय रोगी का तापमान 64 डिग्री हो तो वह क्रमशः बढ़कर 68 डिग्री तक पहुँच जायेगा। यह बात कुछ आश्चर्यजनक जान पड़ती है कि जब जरा भी भोजन ग्रहण नहीं किया जा रहा है और माँस घटता जाता है, फिर भी तापमान कैसे बढ़ जाता है? इसका कारण यह होता है कि तापमान का कम होना जीवनी शक्ति की कमी का चिन्ह होता है और यह कमी रक्त वाहिनी नाड़ियों के मल से भर जाने के कारण उत्पन्न होती है। उपवास के फलस्वरूप जैसे−जैसे मल का शोधन होकर नाड़ियाँ खुलती जाती हैं वैसे−वैसे ही रक्त−संचरण में वृद्धि होती है और परिणामतः तापमान बढ़ जाता है।

वजन का घटना−बढ़ना—इसमें सन्देह नहीं कि उपवास के फलस्वरूप माँस की क्षति होती है। आरम्भ में यह कमी बहुत अधिक जान पड़ती है पर जैसे−जैसे उपवास बढ़ता जाटा है कमी का परिमाण कम होता जाता है। यह बात स्वाभाविक भी है, क्योंकि आरम्भ में शरीर की चर्बी तेजी से घटती है, पर उसके बाद प्रकृति अन्य दूषित तत्वों को धीरे−धीरे निकालती है और घटने का परिमाण कम हो जाता है। अनेक बार ऐसा देखने में आता है कि उपवास के अन्तिम दिनों में वजन का घटना बिल्कुल बन्द हो जाता है।

बहुत से लोगों की यही धारणा है कि उपवास से चाहे अन्य लाभ भले ही होते हों पर उससे वजन अवश्य घटता है। इसलिए जो पहले से ही दुबले−पतले हैं उनके लिए उपवास लाभदायक नहीं हो सकता। पर यह धारणा वास्तव में सत्य नहीं है। अगर कोई व्यक्ति अपनी शारीरिक स्थिति से उचित अनुपात की अपेक्षा अधिक दुबला है तो उसका कारण यही है कि उसकी पाचन−क्रिया दोषपूर्ण है और उसे उचित पोषण प्राप्त नहीं होता। जब उपवास द्वारा आमाशय की शुद्धि होकर भोजन का ठीक ढंग से परिपाक होने लगेगा तो रस, रक्त भी अधिक बनेगा और दुबलापन अवश्य मिट जायेगा। इस बात की परीक्षा अनेक रोगियों के सम्बन्ध में की जा चुकी है और इसलिए उपवास के कारण दुबलापन उत्पन्न होने का भय निराधार है।

इस तरह यदि उपवास और एनीमा आदि के द्वारा शरीर की सफाई वर्ष में एक बार भी कर ली जाए और आहार−विहार में प्रकृति के अनुकूल चलने का अधिकाधिक ध्यान रखा जाय तो खोया हुआ स्वास्थ्य निस्सन्देह प्राप्त किया जा सकता है और आगे के लिए रोगों से मुक्त रहकर निरोग और सुखी जीवन बिताया जा सकता है। इस दिशा में जितनी ही सफलता प्राप्त की जा सकेगी उतनी ही आरोग्यता की वृद्धि होगी। उत्तम स्वास्थ्य दवाओं से नहीं प्राकृतिक नियमों के अनुसार जीवन−यापन करने से ही प्राप्त हो सकता है।


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