विजातीय द्रव्य की उत्पत्ति और वृद्धि

August 1962

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रोगों का मुख्य कारण शारीरिक मल ही माना गया है। जब हम प्रकृति के नियमों के विरुद्धाचरण करके अपना आहार−विहार दूषित बना लेते हैं और जिह्वा तथा भोगेन्द्रिय की तृप्ति के लिये आवश्यकता से अधिक भोग्य−पदार्थों का प्रयोग करने लगते हैं, तो हमारे शारीरिक अंगों पर अधिक भार पड़ता है और वे अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर पाते। इन अंगों में मुख्य आमाशय भी माना गया है जो सब प्रकार के आहार को पचाकर उसके रस से देह की पुष्टि करता है। जब उसका कार्यभार बढ़ जाता है तो वह खाये हुये भोजन का रस पूर्ण रूप से नहीं निकाल पाता और अर्द्धमुक्त आहार ही हमारे मलाशय में पहुँच जाता है। ऐसा आधा पचा आहार मलाशय में पहुँच कर शीघ्र ही सड़ने लग जाता है और उसमें से गंदगी मिश्रित रस निकलकर रक्त में मिल जाता है। यह दूषित रक्त ही रोगों का मूल कारण है, क्योंकि वह रक्तवाहिनी नसों द्वारा समस्त शरीर में संचरण करता रहता है और अपनी उस गंदगी को जगह−जगह छोड़कर अस्वास्थ्यकर अवस्था उत्पन्न करता है।

पर यह समझना कि मल केवल प्रति दिन खाये जाने वाले भोजन से ही निकलता है, पूर्णतः ठीक नहीं है। भोजन से काफी मल अवश्य निकलता है, पर आँतों से छनकर जो मल निकलता है वह भी परिणाम में कम नहीं होता। यही कारण है कि कई दिन तक उपवास करने की दशा में भी प्रतिदिन कुछ मल निकलता ही रहता है।

शरीर के जीवकोष (सेल) हमेशा टूटते−फूटते रहते हैं। अगर वे ठीक समय से शरीर के बाहर न निकाल दिये जायँ तो वे भी मल की तरह विकार उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार शरीर के विभिन्न अंग, यकृत, गुर्दा, आमाशय, फेफड़ा आदि जो कार्य करते रहते हैं, उनकी कार्यप्रणाली से भी कार्बोनिक एसिड, यूरिक एसिड, फास्फरिक एसिड आदि कई विषाक्त द्रव्य उत्पन्न होते हैं, उनको भी बाहर निकालना आवश्यक होता है। चौथे नम्बर पर शरीर के दोषयुक्त अंग खराब टानसिल, कमजोर दाँत, प्रदाहयुक्त श्वास नली से भी विष उत्पन्न होते हैं। शरीर पूर्ण स्वस्थ न हो तो शरीर के भीतर रहने वाले विभिन्न प्रकार के कीटाणु भी विष के परिमाण को बढ़ाते हैं।

यह समस्त विष या मल शरीर के लिये विजातीय ही होता है और हमारे स्वास्थ्य का आधार इसी पर है कि यह शीघ्र से शीघ्र मलद्वार, मूत्र नाली, फेफड़े, चर्म आदि के द्वारा निकलता चला जाय। यदि ये मल निकालने के मार्ग साफ और खुले हुये रहते हैं और मल को आसानी से बाहर निकालते रहते हैं तो हमको कोई रोग होने की संभावना नहीं होती। पर यदि किसी कारणवश इन में कुछ खराबी आ जाती है, ये अपना कार्य ठीक ढंग से नहीं कर सकते तो शरीर के भीतर विजातीय द्रव्य की वृद्धि होने लगती है, और जब वह एक नियत सीमा को पार कर जाती है, तो रोग प्रकट होने लगते हैं। इसी तथ्य को दृष्टि में रखकर सुप्रसिद्ध चिकित्साविज्ञान के ज्ञाता डा. सर विलियम आरबूथनट ने कहा है कि “चाहे रोगों का कितना ही विस्तार क्यों न किया जाय पर वास्तव में रोग एक ही है अर्थात् शरीर की ठीक तरह से सफाई न हो सकना।”

यह विजातीय द्रव्य शरीर में किस प्रकार जमा होकर वृद्धि को प्राप्त होता है और क्रमशः स्वास्थ्य को नष्ट करके मनुष्य को रोगी बना देता है इसका विशद वर्णन जल−चिकित्सा के आचार्य डा. लुई कूने ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “एम आई वैल और सिक” (मैं तन्दुरुस्त हूँ या बीमार)में किया है। वे कहते हैं—

“शरीर में बहुत दिन तक अप्राकृतिक भोजन तथा अपचे भोजन को निकालते रहने की ताकत नहीं रह जाती। तब शरीर में विजातीय द्रव्य जमा होने लगता है। आरम्भ में विजातीय द्रव्य पेडू के पास मल−मूत्र त्याग के स्थानों के पास इकट्ठा होता है। फिर उसमें नित्य नया विजातीय द्रव्य मिल कर उसकी मात्रा बढ़ती रहती है और शीघ्र ही अन्दर−ही−अन्दर उसमें एक परिवर्तन होने लगता है। उसके रेशे बिखरने लगते हैं और एक प्रकार का प्रकोप या सड़न पैदा हो जाता है। विजातीय द्रव्य घुल कर शरीर के ऊपर तथा नीचे के हिस्सों में फैलता है और धीरे−धीरे शरीर के भिन्न−भिन्न हिस्सों में जमा हो जाता है। यह द्रव्य ऊपर मस्तक तक तथा नीचे पाँव और हाथ की सीमा तक पहुँचे बिना नहीं रुकता। उस समय शरीर इसे हर कोशिश से बाहर निकालना चाहता है, पर अधिक काल तक वह इस क्रिया में समर्थ नहीं होता। इस कोशिश में शरीर पर बहुत ज्यादा पसीना आता है, फोड़े फुन्सियाँ आदि अन्य क्रियाएँ होती हैं। पाँव का पसीना, जिसके सम्बन्ध में इतना अधिक मतभेद है, वास्तव में यह रोग का लक्षण है। इसे कृत्रिम उपायों से रोकने का फल केवल यह होगा कि शरीर में अव्यवस्था बढ़ेगी। शरीर को उत्तेजित करने वाली घटनाएँ जैसे आकस्मिक ठंड, बाहरी चोट, प्रबल मनोविकार इत्यादि का नतीजा प्रायः यह होता है कि अंगों के सिरों पर जमा हुये विजातीय द्रव्य को शरीर उसके उत्पत्तिस्थान की ओर वापस भेजने लगता है। उस समय वह द्रव्य प्रायः जोड़ों के पास आकर रुक जाता है। यह सूजन का कारण होता है, जो उपर्युक्त कारणों से सदा जोड़ों के नीचे की ओर ही प्रकट होती है। हम गठिया के किसी भी रोगी में यह दशा देख सकते हैं।

“जिन अंगों में विजातीय द्रव्य जमा रहता है वे अपना स्वाभाविक कार्य उचित रूप से पूरा नहीं कर सकते। वहाँ रक्त −प्रवाह में रुकावट होने लगती है और इससे शरीर का पूरा पोषण नहीं हो पाता। जहाँ विजातीय द्रव्य बहुत अधिक जमा हो जाता है, वहाँ अंग छूने पर ठंडे जान पड़ते हैं। उनमें गरमी लाना बहुत मुश्किल हो जाता है। पहले पहले शरीर के अग्रभाग—हाथ−पैर ठंडे जान पड़ने लगते हैं, पर जल्दी ही दूसरे अंगों के हिस्सों में भी इसका असर होने लगता है।”

जब इस प्रकार शरीर में मल या विजातीय द्रव्य की वृद्धि होती है तो उसका कुपरिणाम भी कुछ समय में प्रकट होने लगता है। जब खाया हुआ भोजन अधपचे रूप में छोटी और बड़ी आँत में चला जाता है तो वह नियमित मल की तरह बाहर नहीं निकल जाता, वरन् प्रायः बीच में ही रुक कर सड़ने लग जाता है। उसका कुछ अंश गैस रूप होकर ऊपर के अंग में चढ़ने लगता है। अगर उसके मार्ग में कोई भी बाधा न हो तो वह सहज ही में मस्तक तक पहुँच सकता है। पर बीच में जो शारीरिक अवयव हैं वे उसको रोकने की चेष्टा करते हैं। इन क्षेत्रों के पारस्परिक संघर्ष के कारण सिर गर्म हो उठता है और अगर मल अधिक होता है तो उसकी गर्मी से बुखार भी हो जाता है। यह बुखार शारीरिक अवयवों द्वारा उसी विजातीय द्रव्य के बाहर निकालने की चेष्टा का परिणाम होता है। आरंभ में जब यह मल कम होता है तो दस्त और पसीना के रूप में निकल जाता है। पर जितना मल निकलता है उससे अधिक यदि हम अनुचित खान−पान द्वारा शरीर के भीतर डालते रहते हैं, तो यह समस्त शरीर में बिखर कर जहाँ सुविधा होती है अपना स्थान बना लेता है। शारीरिक अस्वस्थता के अतिरिक्त ऐसे मलभारयुक्त लोगों की आकृति भी बिगड़ने लगती है। मुखाकृति खराब होकर मस्तक भी बेडौल हो जाता है। गर्दन जैसी होनी चाहिये उसकी अपेक्षा छोटी या बहुत लम्बी दिखलाई पड़ने लगती है। अनेक लोगों का मुँह फूला हुआ जान पड़ता है। ऐसे फूले शरीर को बहुत से लोग पुष्टता या शक्ति का चिन्ह समझते हैं, परन्तु उनका यह विचार सर्वथा भ्रमपूर्ण होता है। यह लक्षण शक्ति की वृद्धि के न होकर मल भर जाने के होते हैं। छाती ऊँची−नीची हो जाती है, पेट आगे को लटकने लगता है, टाँगें खम्भे के समान दिखाई देने लगती हैं। कुछ लोगों के शरीर में मैल अधिकाँश में भीतरी भागों में ही रहता है, इसलिये उनके शरीर में ऐसे चिन्ह तो नहीं दिखलाई पड़ते पर उनके शरीर में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और खाल लटक जाती है। गर्दन को इधर−उधर फेरने से खाल तनने लगती है। मुख का रंग फीका, पीला अथवा बहुत लाल हो जाता है। शरीर का रंग यदि बहुत चमकने लगे तो यह भी विजातीय द्रव्य इकट्ठा होने का लक्षण है।

मल के इकट्ठे होने की पहिचान यह भी है कि उससे शरीर की फुर्ती जाती रहती है और उसका स्थान आलस्य ग्रहण कर लेता है। ऐसा व्यक्ति सदैव निकम्मा बनकर पड़ा रहना चाहता है और अपना कोई काम स्वयं करना पसन्द नहीं करता। उसे सब प्रकार का परिश्रम, चलना, फिरना, खेलना, कूदना बहुत बुरा जान पड़ता है।

मनुष्य यद्यपि अपनी लापरवाही और चटोरेपन के कारण शरीर को अनावश्यक खाद्य पदार्थों और उसके फलस्वरूप मल से भरता रहता है, पर प्रकृति जहाँ तक संभव होता है उसको किसी न किसी मार्ग से निकाल शरीर को रोग से बचाने की चेष्टा करती ही रहती है। वह मलाशय से बचे हुये काम को पेशाब, पसीना और श्वास द्वारा पूरा कराने का प्रयत्न करती है। इस विधि से चर्म का काम गुर्दे से और गुर्दे का काम चर्म से लेकर प्रकृति किसी प्रकार शारीरिक व्यवस्था का ठीक बनाये रखने की चेष्टा करती है। पर यदि मनुष्य इतने पर भी नहीं चेतता और अपने प्रकृति विरुद्ध तथा अनियमित रहन−सहन में सुधार नहीं करता, अति भोजन, तम्बाकू, मद्य, नशा, असमय की निद्रा, बन्द स्थान में सोना आदि कुटेवों द्वारा मल को बढ़ाकर शारीरिक व्यवस्था विश्रृंखलित कर देता है, तो शारीरिक अवयव शरीर को साफ रखने में असमर्थ हो जाते हैं और वह मल शरीर के भीतर ही जमा होकर हानिकारक विकार उत्पन्न करने लगता है। ऐसी अवस्था आ जाने पर प्रकृति भी अपना रूप बदल देती है और सहज उपायों को छोड़ कर कठोर उपायों से काम लेने लगती है। इन मलों को भस्म करने के लिये ही वह अक्सर ताप (ज्वर) को उत्पन्न करती है, जिसकी गर्मी से, मल घुल कर विभिन्न रास्तों से बाहर निकल जाय। जब कभी मल भिन्न प्रकार का होता है तो प्रकृति पेचिश और आँव के दस्त पैदा कर देती है। यदि मल श्वास नली द्वारा निकलने लायक हुआ तो प्रकृति खाँसी जुकाम उत्पन्न करके मल को कफ़ के रूप में निकालने की कोशिश करती है। जब वह दोषों को चर्म द्वारा निकालने का प्रयत्न करती है तो उनका स्वरूप फोड़ा, फुन्सी, खाज आदि का हो जाता है।

इसी सिद्धान्त की पुष्टि करते हुये इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध डाक्टर टामस सिडेनहम ने अपने ग्रन्थ में कहा है कि “प्रत्येक रोग रोगी के शरीर में स्वास्थ्य को वापस लाने की प्राकृतिक चेष्टा के अतिरिक्त और कुछ उपाय नहीं होता।” इसी प्रकार योरोपीय चिकित्सा के आदि गुरु हिप्पोक्रेटस ने लिखा है—“प्रत्येक रोग एक प्राकृतिक क्रिया है और उसमें जो रोग के लक्षण उत्पन्न होते हैं वे शरीर की प्रतिक्रिया से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये रोग की अवस्था में चिकित्सक का एक मात्र कर्तव्य यही है कि वह जैसे संभव हो प्रकृति की सहायता करे।”

पर आजकल हम उलटी गति देख रहे हैं। प्रकृति को सहायता देकर रोग के मूल कारण विजातीय द्रव्य को बाहर निकाल देने के बजाय अधिकाँश डाक्टर तीव्र दवाओं के इंजेक्शन, गोलियों या कैप्सूल देकर उसे दबा देने की चेष्टा करते हैं। इसका परिणाम यह होता है वह विष रूप विजातीय द्रव्य शरीर के अन्दर ही दबा पड़ा रह जाता है, वहीं धीरे−धीरे बढ़ता रहता है और कुछ समय पश्चात् जीर्ण रोग के रूप में प्रकट होता है।

इस प्रकार हम स्वयं ही अपनी भूल से शरीर के भीतर विजातीय द्रव्य को उत्पन्न करके निरन्तर उसकी वृद्धि करते रहते हैं और जब प्रकृति रोग के रूप में उसे बाहर निकाल देने की चेष्टा करती है तब भी शान्त रह कर उस प्रक्रिया को पूर्ण हो जाने देने की बजाय तरह−तरह की हानिकर दवाओं से उसके कार्य में बाधा डालते हैं। इस प्रकार यदि कहा जाय कि हम स्वयं अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारते हैं तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं। यदि हम इस विपत्ति से परित्राण पाना चाहते हैं तो प्राकृतिक उपायों से विजातीय द्रव्य को बाहर निकाल कर शरीर को सदैव स्वच्छ और निर्मल रखने का प्रयत्न करना चाहिये। यही स्वास्थ्य प्राप्ति का सच्चा मार्ग है।


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