वायुस्नान और प्राणायाम

August 1962

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जैसा बतलाया जा चुका है स्वस्थ−जीवन के लिये शुद्ध वायु परमावश्यक है और जो लोग गन्दे स्थानों में रहते हैं, जहाँ की वायु अशुद्ध, बदबू, सील आदि से भरी होती है, वे प्रायः बीमार रहते हैं। आजकल बड़े नगरों में जहाँ मकानों की बहुत कमी है, लाखों मजदूर श्रेणी वालों को तंग गलियों या ऊँचे मकानों की सब से नीची मंजिलों की अँधेरी, वायु के आवागमन रहित कोठरियों में रहना पड़ता है। ऐसे लोग यद्यपि साधारणतः अच्छा वेतन पाते हैं और मध्यम श्रेणी वालों के समान भोज्य−सामग्री भी पा जाते हैं, पर तब भी शुद्ध वायु के अभाव से वे निस्तेज, पीले और निर्बल दिखाई पड़ते हैं। बन्द हवा में रहने के फलस्वरूप प्रथम तो रक्त की सफाई ठीक तरह से नहीं हो पाती और दूसरे शरीर की गर्मी के ठीक ढंग से न निकल सकने के कारण थकावट का अनुभव होता रहता है। जिस प्रकार मुँह द्वारा बुरा भोजन भीतर जाने से स्वास्थ्य की हानि होती है उसी प्रकार नाक द्वारा दूषित वायु भीतर जाने से भी शरीर में खराबी पैदा होती है।

विषाक्त गैस और गर्मी से हानि

हम लोग जब बाहर की वायु को भीतर खींचते हैं तो उसमें ‘कार्बन−डाई−आक्साइड’ गैस का अंश सौ में .04 होता है, पर जब वही साँस बाहर निकलती है तो उसका परिमाण बढ़ कर 4.41 हो जाता है। अर्थात् वह सौ गुने से अधिक बढ़ जाता है। यह ‘कार्बन−डाई−आक्साइड’ अधिक मात्रा में मनुष्य के लिये विष का काम करता है। बहुत छोटे जीव तो इसके प्रभाव से तुरन्त मर जाते हैं। जब मनुष्य बन्द स्थान में रहता है या जाड़े में कम्बल रजाई आदि से मुँह ढक कर सोता है तो यही विषाक्त गैस बार−बार उसके भीतर जाती है और इसके फल से उसका रक्त अवश्य ही खराब होता रहता है।

मनुष्य की देह में रक्त के दौड़ने और विभिन्न अंगों में चलने से हमेशा गर्मी उत्पन्न होती रहती है, जिसका बाहर निकलते रहना आवश्यक है। यह तभी निकलती है जब शरीर से ठंडी, शुष्क और चलती हुई वायु लगती रहे। यही कारण है कि वर्षा आरम्भ होने के कुछ दिन पहले जब हवा गर्म, भाप से भरी और रुकी हुई रहती है तो मनुष्य को अत्यन्त कष्ट जान पड़ता है। ऐसी अवस्था को लोग भस्का अथवा सड़ी हुई गर्मी कहते हैं और बड़ी व्याकुलता अनुभव करते हैं। जो लोग बन्द और वायु के आवागमन के लिये खिड़की और जंगलों से रहित कोठे, कोठरियों में रहते हैं, जिन के निवास स्थान के आस−पास ही छोटी−बड़ी गन्दी नालियाँ, संडास, कूड़ा डालने के स्थान रहते हैं उनको सदा ही ऐसी गन्दी वायु में साँस लेना पड़ता है, और फलस्वरूप वे कभी सुदृढ़, सबल, सतेज स्वास्थ्य का अनुभव नहीं कर पाते।

इसलिये प्राकृतिक चिकित्सा में जहाँ सादा और ताजा भोजन करने, काफी परिमाण में शुद्ध ठण्डा जल पीने का विधान है, वहीं खुली वायु में बदन को खोलकर रहने, गहरी साँस लेने, नगर के बाहर मैदान में टहलने का भी निर्देश किया गया है। वैसे तो मनुष्य का निवास स्थान ही ऐसी जगह होना चाहिये जहाँ शुद्ध वायु सदैव मिलती रहे पर यदि किसी को परिस्थिति वश ऐसे स्थान में रहना पड़े जहाँ की वायु थोड़े या अधिक अंशों में बन्द रहती हो तो उसे सुबह के वक्त तो अपना दो−एक घंटे का समय खुले स्थान में अवश्य व्यतीत करना चाहिये और खुले बदन से वायु स्नान करना चाहिये। जिनको पूरी तरह बदन खोलने की सुविधा न हो उनको ऐसा पतला और छिरछिरा कपड़ा पहिनना चाहिये जिसमें होकर हवा भीतर जा सके। इस प्रकार के ‘वायु−स्नान’ से भूख और पाचन शक्ति बढ़ती है। शरीर के चर्म पर भी इस का बड़ा हितकारी प्रभाव पड़ता है और भीतरी विकारों के रोमकूपों द्वारा निकलने में सहायता मिलती है।

वायु−स्नान में सावधानी

वायु−स्नान में ऋतु और देश का ध्यान रखना भी आवश्यक है। ठण्डी वायु में खुले बदन रहते समय इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि शरीर गर्म रहे। यदि उस समय बदन ठण्डा हो या ठण्ड लगती हो तो फौरन शरीर को हाथ से रगड़कर गरम कर लेना चाहिये। इस प्रकार ठण्डी हवा भी कुछ हानि नहीं करेगी। इसे चर्म−घर्षण व्यायाम कहते हैं। गर्म देशों में तो वायु−स्नान का कोई खास समय रखना निरर्थक है, क्योंकि वहाँ सदा ही बदन के ऊपर का हिस्सा नंगा रखा जा सकता है। इस दृष्टि से कमरों में सोने की बजाय खुले बरामदे में सोना सदैव लाभदायक होता है।

रोग की अवस्था में खुली हवा में रहना और शक्ति के अनुसार वायु−स्नान भी करना रोग−निवारण के लिये आवश्यक है। पर इसमें सावधानी की आवश्यकता रहती है। नये रोग में रोगी को जब खुले स्थान में रखा जाय तो सर को छोड़कर उसका समस्त बदन ढका रहना जरूरी है। गर्मी के दिनों में जितना सहन हो सके या रोगी को पसन्द हो उतना ही शरीर का भाग ढकना चाहिए। बहुत से लोग ठंड के डर से रोगी को सदा ढका हुआ रखते हैं। पर यह अनुचित है, अनेक बार गर्मी की अधिकता से ही रोगी की मृत्यु हो जाती है। इसलिये जब रोगी ओढ़ना नापसन्द करे तो समझ लेना चाहिये कि उसके भीतर गर्मी की अधिकता है, जिसका बाहर निकलना आवश्यक है, उस समय उसे उढ़ाकर नहीं रखना चाहिए। रोगी को जितने समय तक बाहर रहना अच्छा लगे तभी तक उसे बाहर रखना चाहिए। यदि उसे किसी प्रकार की अस्वस्थता का अनुभव न हो तो समस्त दिन और रात्रि बाहर रखा जा सकता है। पर जब बादल हो रहे हों या ठंड ज्यादा हो तो उसे कमरे में ऐसे स्थान में रखना चाहिये कि जहाँ ताजा हवा तो मिलती रहे पर हवा का झोंका न लगे।

गहरी साँस और प्राणायाम

ताजा और शुद्ध हवा में रहने पर भी श्वास लेने की क्रिया का जो एक विशेष नियम है उसका ध्यान रखना भी आवश्यक है। उसे हम दीर्घ श्वास अथवा प्राणायाम कह सकते हैं। इसकी आवश्यकता इसलिये पड़ती है कि अस्वास्थ्यकर अवस्था में बन्द स्थानों में रहकर, फैशन के ख्याल से चुस्त अथवा कसे हुये वस्त्र पहनकर तथा आलस्यवश व्यायाम से दूर रहकर अधिकाँश मनुष्य गहरी साँस लेना भूल जाते हैं जिससे उनके फेफड़े पूरी तरह से काम करना छोड़ देते हैं। फेफड़े में करोड़ों की संख्या में अत्यन्त सूक्ष्म वायु कोष्ठ होते हैं जो साँस भीतर लेते समय फूल जाते हैं और साँस को बाहर फेंकने पर पिचक जाते हैं। उनकी इस फूलने और पिचकने की क्रिया से ही रक्त की शुद्धि का कार्य होता है और उसमें मिला हुआ दूषित मलाँश वायु के साथ मिलकर बाहर निकल जाता है। इसलिये यदि हम अपने रक्त को शुद्ध और स्वास्थ्य को सबल रखना चाहें तो उसके लिए गहरी साँस लेना अत्यावश्यक है जिससे काफी परिमाण में वायु भीतर जाय और रक्त के मलाँश को बाहर लाने में समर्थ हो।

टहलने के लाभ

वायु से लाभ उठाने की सबसे सरल और स्वाभाविक विधि तो टहलना है। खुले मैदान या साफ सड़क पर तेजी से दो−चार मील चलने से स्वयं ही स्वच्छ वायु भीतर जाती है और वहाँ की गंदगी को लेकर बाहर निकलती रहती है। चलते समय छाती को कुछ उठी हुई रखना चाहिए जिस से काफी वायु भीतर जा सके। जिन लोगों की छाती गलती से झुकी हुई, दबी हुई रहती है वे थोड़ी ही वायु भीतर ले सकते हैं। अगर पूर्व रहन−सहन के कारण ऐसा हानिकारक अभ्यास किसी को हो गया हो तो उसका कर्तव्य है कि वह प्राणायाम के अभ्यास द्वारा उसका सुधार कर ले। पर यहाँ प्राणायाम से हमारा आशय योग के प्राणायाम से नहीं है जिसके लिए आसन लगाकर एकांत स्थान में घण्टा−दो−घण्टा बैठना आवश्यक होता है। पर टहलने के समय और साधारण उठते−बैठते हुये उसका ध्यान रखा जाय तो श्वास क्रिया का सुधार होकर फेफड़ों का कार्य ठीक हो सकता है।

रेचक, पूरक और कुम्भक

श्वास क्रिया के तीन भाग माने गये हैं। पहला रेचक होता है जिसका अर्थ है फेफड़ों के भीतर की मलयुक्त वायु को बाहर निकालना। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह क्रिया विशेष महत्व की है, क्योंकि यदि भीतर की वायु को ठीक ढंग से पूरी तरह बाहर निकाला जायेगा तो फिर पूरक में अर्थात् श्वास खींचने में वायु अधिक मात्रा में भीतर जायगी ही।

रेचक और पूरक के बीच फेफड़े को किंचित आराम देने के लिए कुछ सेकिण्ड तक श्वास न लेना चाहिए। इसको बाह्य−कुँभक कह सकते हैं। इससे फेफड़ों की शक्ति बढ़ती है और वे अधिक कार्यक्षम होते हैं। इसी प्रकार श्वास को भीतर ले जाने अर्थात् पूरक और श्वास को बाहर निकालने के बीच में भी वायु को कुछ सेकिण्ड तक भीतर रोके रखना चाहिए। यह अन्तः कुम्भक कहा जाता है। इससे प्राण−वायु (ऑक्सीजन) को रक्त के मैल की भस्म करने तथा बाहर निकालने में सुविधा मिलती है।

इस क्रिया के अभ्यास का सरल नियम रेचक की क्रिया का ध्यान रखना और सुधार करना ही है। उसके ठीक होने पर पूरक और कुम्भक स्वयं ही बहुत कुछ ठीक होने लग जाते हैं। आगे चल कर जब प्राकृतिक−जीवन का अभ्यास होने से आमाशय शुद्ध होकर स्वाभाविक अवस्था पर आ जायेगा तब पूरक और कुम्भक का ठीक करना सरलतापूर्वक संभव हो जाता है। इस प्रकार रेचक, पूरक और कुम्भक का नियमपूर्वक स्वाभाविक ढंग से होने लगना ही प्राणायाम है जिससे शरीर में हल्कापन आता है, सुस्ती दूर होकर कार्य की क्षमता बढ़ती है और अनिद्रा जैसी शिकायतें दूर हो जाती हैं। इसके लिये ऊपर बतलाया अभ्यास कुछ महीने तक नियमपूर्वक करके गहरी साँस लेने और उसे कुछ देर तक भीतर रोकने का अभ्यास कर लेना चाहिये।


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