कीटाणु नहीं विजातीय द्रव्य

August 1962

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रोग की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्राकृतिक चिकित्सा में जो कारण बतलाया गया है, उसका प्रबल विरोध एलोपैथीक चिकित्सा का कीटाणु सिद्धान्त करता है। इन लोगों की मान्यता है कि प्रायः सभी रोगों की उत्पत्ति के मूल कारण वे अत्यन्त छोटे और हमारे नेत्रों से अदृश्य कीटाणु होते हैं जो जल में, वायु में, समस्त खाद्य पदार्थों में पाये जाते हैं और सदैव मुख, नासिका, चर्म आदि के द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करते रहते हैं। जब इन कीटाणुओं की संख्या अधिक हो जाती है तभी ये हमको दबा लेते हैं और जिस रोग से वे संबंधित होते हैं वही हमारे शरीर में उत्पन्न कर देते हैं। अगर इस सम्बन्ध में डाक्टरों के कथनों पर पूरा विश्वास किया जाय तो वास्तव में एक दिन भी इस संसार में मनुष्य का रहना दुर्लभ हो जाय। वे लोग इनको महाभयंकर सर्प से बढ़ कर घातक बतलाते हैं। एक डाक्टर ने लिखा है कि यदि इन कीटाणुओं को दवाओं द्वारा नष्ट न किया जाय तो अनुकूल जलवायु पाने पर वे तीन दिन में एक से बढ़कर तीस खरब तक हो सकते हैं।

पर जब इस मत पर तर्क की दृष्टि से विचार किया जाता है, तो इसकी निस्सारता बहुत शीघ्र प्रकट हो जाती है। यह कीटाणु−सिद्धान्त अब से सौ वर्ष पहले फ्राँस के पास्चर नामक डाक्टर ने प्रचारित किया है। उसके पहले इसकी न तो कहीं चर्चा थी और न किसी को इसका कुछ भी ज्ञान था। उस समय तक किसी ने कीटाणु−नाशक दवाओं का आविष्कार या प्रयोग न किया था। पर यह एक प्रकट बात है कि उस समय के व्यक्तियों का स्वास्थ्य आजकल की अपेक्षा अधिक मजबूत तथा स्थायी होता था और शारीरिक दृष्टि से वे अधिक शक्तिशाली होते थे। यदि कीटाणुओं की सेना ऐसी ही भयंकर होती तो अब तक मनुष्यों का नाम निशान बच सकना भी कठिन था।

वास्तविक बात यह है कि रोगों के कीटाणु होते अवश्य हैं, पर वे कहीं बाहर से आकर हमारे शरीर में प्रवेश नहीं करते और न उनके कारण रोगों की उत्पत्ति होती है। वरन् जब मल के विकार से हमारे शरीर में गन्दगी बढ़ती है और रोग पैदा होता है तो उसके साथ में कीटाणु भी पैदा हो जाते हैं। कनाडा के डाक्टर फ्रेजर ने बार−बार परीक्षा करके यह सिद्ध किया है कि रोग की उत्पत्ति होने के पश्चात् ही कीटाणु दिखाई पड़ते हैं। इस प्रकार रोग कारण हैं और कीटाणु उसके कार्य या फल हैं। कार्य का कारण से पहले हो सकना असम्भव है।

कीटाणुओं के सिद्धान्त को असत्य सिद्ध करने वाला दूसरा प्रमाण यह भी है कि अनेक व्यक्तियों के शरीर की परीक्षा करने पर उसमें अनेक रोगों के कीटाणु पाये जाते हैं, पर वे लोग उन रोगों के बीमार नहीं होते, वरन् साधारण रूप में उनको स्वस्थ ही माना जाता है। प्राकृतिक चिकित्सकों ने तो दावे के साथ यह कहा है कि जिस व्यक्ति का शरीर सर्वथा स्वस्थ होगा अर्थात् जिसके भीतर विजातीय द्रव्य जमा न होंगे उसका ये कीटाणु कुछ नहीं बिगाड़ सकते। इसको प्रमाणित करने के लिये जर्मनी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर पैर्टन कोफर ने तो सैकड़ों विद्यार्थियों के सम्मुख शीशी में भरे हैजे के कीटाणुओं को पी लिया था, पर उनको कुछ हानि नहीं हुई। वैसे डाक्टरों के मतानुसार उन कीटाणुओं की तादाद इतनी थी कि वे एक पूरी फौज को मार सकते थे। प्रोफेसर ने पहले ही कह दिया था कि मेरे शरीर में गन्दगी नहीं है इसलिये वहाँ ये कीटाणु पनप ही नहीं सकते।

डाक्टर लोग जो चेचक आदि का टीका लगाते हैं और उसके प्रभाव से लोगों को जो ज्वर हो जाता है या साधारण चेचक निकल आती है उसका कारण भी कीटाणु नहीं होते, वरन् डाक्टरी इंजेक्शन में जो मल का अंश होता है वही ये सब दुष्परिणाम उत्पन्न करता है। मल ही विषैले प्रभाव वाला पदार्थ है, वह शरीर में जिस किसी भी रीति से प्रवेश करेगा अपना कुप्रभाव अवश्य दिखलायेगा। इसीलिये जिन लोगों के शरीर में आहार−विहार सम्बन्धी गलतियों के कारण पहले से मल जमा होता है और उसके कारण जिनका रक्त दूषित पड़ गया होता है, उन पर ही रोगों के कीटाणु प्रभाव डालते हैं। अगर मल का परिमाण अधिक होगा तो कीटाणुओं का प्रभाव भी ज्यादा होगा और मल कम हुआ तो उनका साधारण असर ही पड़ेगा।

टोरण्टो (कनाडा) में कुछ समय पहले एक संस्था की स्थापना की गई थी जिसका उद्देश्य कीटाणुओं के सिद्धान्त की छानबीन करना था। उसमें अनेकों प्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा डाक्टर भी सम्मिलित थे तथा जनसाधारण में से भी जिनको इस विषय से अनुराग था उसमें भाग लेते थे। उन लोगों ने जाँच करके यही परिणाम निकाला कि मानव शरीर में कीटाणुओं का प्रकट होना रोगोत्पत्ति के पश्चात ही होता है इसलिये कीटाणु रोगों के कारण नहीं हो सकते, वरन् रोगों का कारण भिन्न ही होता है। इस सिद्धान्त का प्रत्यक्ष प्रमाण देने के लिये कुछ लोगों ने अपने को स्वयं सेवक के रूप में उपस्थित किया। डाक्टरों ने उनको भोजन तथा जल के साथ मिलाकर डिपथीरिया, निमोनिया, टाइफ़ाइड ज्वर (मोतीझरा) और गर्दन तोड़ बुखार आदि के ताजे और स्वस्थ कीटाणु दिये, पर उनके शरीर में उनके कारण कोई भी विकार या रोग उत्पन्न न हो सका और वे कीटाणु साधारण रीति से मल के साथ बाहर निकल गये। इसी प्रकार अमरीका के डाक्टर ऐडरमण्ड ने चेचक के टीके की असत्यता सिद्ध करने के लिये अपने समस्त शरीर में चेचक का बहुत सा मवाद मल लिया। वहाँ के कानून के अनुसार उनको रोगी मानकर कारंटाइन (रोगियों का निरोध−गृह) में बन्द कर दिया, पर कई दिन बीत जाने पर भी जब उन पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा तब उन्हें छोड़ दिया गया।

हम फिर यह बतला देना चाहते हैं कि हमारा उद्देश्य कीटाणुओं के अस्तित्व से इनकार करना नहीं है और न हम उनको निष्प्रयोजन बतलाते हैं। ये कीटाणु प्रकृति के एक बड़े साधन के रूप में हैं जिनके द्वारा वह निर्माण और विनाश दोनों कार्यों को सम्पन्न करती है। एक प्रकार के कीटाणुओं द्वारा प्रकृति जीवन की उत्पत्ति और वृद्धि करती है और दूसरे प्रकार के कीटाणु चारों तरफ पैदा होने वाली गन्दगी और मल की सफाई करते हैं। अगर ये कीटाणु न होते तो यह संसार मुर्दा और सड़ी गली चीजों से भर जाता और उसमें स्वस्थ जीवन के विकास के लिये स्थान ही न रहता। इसलिये प्रकृति कीटाणुओं द्वारा ही मुर्दा और रोगी प्राणियों, पौधों और वनस्पतियों को नष्ट कराके नई वस्तुओं का निर्माण किया करती है। इस दृष्टि से कीटाणुओं को दोष देना या उनको भयंकर बतलाना निरर्थक है। उसके कारण ही हमारे शरीर में तरह−तरह के विकार उत्पन्न होते हैं जो अन्त में रोगों के रूप में प्रकट होते हैं। कीटाणु वास्तव में उस गन्दगी को मिटाने को आते हैं और इस प्रकार वे हमारे शत्रु नहीं मित्र ही समझे जाने चाहिये। यह दूसरी बात है कि हम अपनी अज्ञानता से या स्वार्थपर चिकित्सकों के उपदेशों से भ्रम में पड़कर उस समय उल्टा सीधा काम करने लगें और अपने ही हाथ से रोग को गम्भीर या घातक बना दें। कीटाणुओं को इसके लिये दोषी नहीं बताया जा सकता।

वास्तव में हमारे रोगों का सर्वप्रधान कारण हमारा आहार है। हम जैसा आहार करेंगे वैसा ही हमारा शरीर बनेगा, और वैसा ही आस−पास के वातावरण का उस पर प्रभाव पड़ेगा। आजकल लोगों ने आहार सम्बन्धी नियमों और संयम का अधिकाँश में त्याग कर दिया है और वे जिह्वा के स्वाद के लिये और आहार−तत्व को न समझने के कारण प्रायः आवश्यकता से बहुत अधिक खाया करते हैं या ऐसे पदार्थ खाते हैं जो हमारी शारीरिक प्रकृति के अनुकूल नहीं होते और भीतर पहुँच कर विकारों को उत्पन्न करते हैं। जब ऐसे पदार्थ कब्ज पैदा करके भीतर ही पड़े रहते हैं तो उनमें सड़न पैदा होती है और विषाक्त रस तथा गैसों की उत्पत्ति होकर रक्त दूषित होने लगता है। यह दूषित रक्त ही समस्त रोगों की जड़ है, क्योंकि रक्त शरीर में नख से शिख तक प्रत्येक अंग में बराबर दौरा करता रहता है और उसमें जो विषाक्त द्रव्य मिल जाता है उसे वह समस्त शरीर में फैलाता जाता है। उस अवसर पर हमारा जो अंग सबसे अधिक निर्बल अवस्था में और असुरक्षित होता है, उसी पर रोग का आक्रमण हो जाता है। यही रोगों का सच्चा कारण है, कीटाणुओं को इसके लिये दोषी बनाना व्यर्थ है।


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