निष्काम भक्ति में दुहरा लाभ

April 1962

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इस विश्व में सबसे बड़ा रस प्रेम का है। इसकी एक−एक बूँद के लिए आत्मा तरसती रहती है और जहाँ कहीं उसे इस मधुर मधु की एक बूँद भी उपलब्ध हो जाती है, वहीं वह उसकी बड़ी-से-बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हो जाती है। बालक में प्रेमभाव की मान्यता करके माता उस पर अपना सब कुछ न्यौछावर करती है और कुरूप एवं गुणरहित होते हुए भी उसे सुंदर एवं गुणवान मानती है। पतिव्रता को अपना पति प्राणप्रिय होता है और पत्नीव्रती पति अपनी धर्मपत्नी पर प्राण न्यौछावर करता है। हो सकता है कि इसमें स्वार्थ का भी कुछ अंश मिला हुआ हो, पर प्रधानता प्रेम की ही होती है। प्रेमरहित स्वार्थ के लिए एक सीमा तक ही मनुष्य त्याग कर सकता है। पर सच्चा प्रेम जहाँ है, वहाँ प्रेमी की आत्मा उसका महान मूल्य स्वयमेव जान लेती है और उसके लिए बड़े-से-बड़ा बलिदान करना भी सहज हो जाता है।

सुख और शांति के स्थल तलाश करने के लिए लोग जगह−जगह भटकते रहते हैं। कोई एकांत में कोई नदी-पहाड़ों के प्राकृतिक दृश्यों में; कोई तीर्थ-पुरियों में प्रसन्नता एवं शांति प्रदान करने वाली परिस्थितियाँ ढूँढते हैं, पर वस्तुतः आनंद का स्थान वही है, जहाँ प्रेमीजन बसते हैं। अपने से प्रेम करने वाले, सहानुभूति रखने वाले, सान्निध्य से प्रसन्नता अनुभव करने वाले स्वजन जहाँ रहते हैं, वहाँ मनुष्य दौड़−दौड़कर जाता है। परदेश में प्रचुर जीविका एवं सुख-सुविधा होते हुए भी कितने ही व्यवसायी अपनी जन्मभूमि के छोटे-से गाँव में पहुँचने को लालायित रहते हैं। अपने प्रियजन जहाँ रहते हैं, वस्तुतः वह स्थान स्वर्ग के समान ही आनंददायक लगता है। जननी जन्मभूमि को स्वर्गादपि गरीयसी कहा गया है। इस आस्था में प्रेमभावना ही एकमात्र आधार है।

आत्मा की सबसे बड़ी श्रेष्ठता प्रेमभावना है। उच्चस्तर पर जिनका अंतःकरण पहुँच चुका है, उन्हें सभी के प्रति ममता एवं आत्मीयता होती है। सभी के प्रति प्यार उमड़ता है। सेवा, दया, करुणा, सहायता, सहयोग, क्षमा, उदारता, दानशीलता जैसी अगणित सत्प्रवृत्तियाँ प्रेमभावना की छायामात्र हैं। जिस अंतःकरण में दूसरों के प्रति प्रेम उमंगेगा, जिसे दूसरे लोग भी अपने आत्मीय लगेंगे, वही तो किसी के साथ उपकार जैसा आचरण कर सकेगा, प्रेम के अभाव में दिखाऊ उदारता या तो किसी को ठगने के लिए होती है या यश प्राप्त करने के लिए। यह दोनों प्रयोजन जहाँ पूरे न होते होंगे, वहाँ झूँठा प्रेम तुरंत बदल जाएगा, किंतु जहाँ प्रेम का निवास ही है, उस अंतःकरण में से सौजन्य की सुगंधि निरंतर स्वयमेव उड़ती रहेगी।

महान व्यक्ति केवल प्रेमी ही हो सकता है। उसी में उच्च गुणों का सुस्थिर स्थायित्व रह सकता है। दूसरे लोग शिष्टाचार की सज्जनता से, मोर जैसी मधुरता से दूसरों को मोहित कर सकते हैं, पर परीक्षा की घड़ियों में उनकी कलई तुरंत खुल जाती है। कठिन अवसरों पर मनुष्य के पैरों को डगमगाने से बचाने और उच्च आदर्शों पर जमाए रखने की शक्ति केवल प्रेम में है। आदर्शों के प्रति, मानवता के प्रति, धर्म के प्रति, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम करने वाला ही अपने आपको खतरे में डालकर अपनी मूल्यवान प्रेमभावनाओं को सुरक्षित रख सकता है। नीरस, रूखे और स्वार्थी व्यक्ति दूसरों की पीर क्या जान सकते हैं? और किसी के कष्ट में आँसू बहाने लायक तरलता उनके कठोर मानस में कहाँ से आ सकती है?

उपनिषदों ने इस विश्व में प्रेम के रूप में परमात्मा के दर्शन किए हैं। 'रसों वै स' की घोषणा करते हुए शास्त्र ने यह स्पष्ट कर दिया है कि प्रेम ही परमात्मा है। परमात्मा का सजीव मूर्तिमान निवास यदि कहीं देखना हो तो प्रेमी का हृदय ही इसका उपयुक्त स्थान हो सकता है। आत्मा का कायाकल्प प्रेमभावनाओं की रसायनसेवन करने से ही होता है। वह इसे ही पी−पीकर परमात्मा बन जाता है। स्वाति की बूँद सीप के गर्भ में जाकर मोती बन जाती है, आत्मारूपी सीप में जब प्रेम की स्वाति बूँद प्रवेश करती है, तो वहाँ थोड़े ही समय में परमात्मारूपी मोती का दर्शन होता है। धूप की गरमी पाते ही कली खिलकर फूल के रूप में परिणत हो जाती है। आत्मा पर प्रेम का प्रकाश पड़ने से वह परमात्मा के रूप में, महात्मा के रूप में, विश्वात्मा के रूप में विकसित हुई दृष्टिगोचर होने लगती है। आत्मविकास का आधार आखिर प्रेम ही तो है।

परमात्मा को पकड़ने का, वश में करने का, प्रेम के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। भक्ति का अर्थ है— प्रेम। भक्त और प्रेमी दोनों शब्दों का तात्पर्य एक ही है। इस संसार का यह प्रकट रहस्य है कि जिस वस्तु को हम प्रेम करते हैं, वह मिल जाती है। विद्या, धन, स्वास्थ्य, कीर्ति, वासना, विलासिता आदि जो कुछ हमें प्यारा है, उसके लिए प्रयत्न किए जाते हैं और उन प्रयत्नों के पीछे जितना उत्साह, विवेक, श्रम एवं मनोयोग लगता है, उतनी उसमें सफलता भी मिलती है। अध्यात्म जगत में ही यही नियम काम करता है। आत्मकल्याण में, परमात्मा की प्राप्ति में यदि हमारी प्रीति और प्रतीति सच्ची होगी तो उस लक्ष्य की प्राप्ति भी सुनिश्चित ही हो जाएगी।

सकाम उपासना से लाभ नहीं होता, ऐसी बात नहीं है। जब सभी को मजदूरी मिलती है, तो भगवान किसी भजन करने वाले की मजदूरी क्यों न देंगे? जब भौतिक पुरुषार्थों का लाभ मिलता है, तो आध्यात्मिक पुरुषार्थ क्यों निष्फल जाएगा? जितना हमारा भजन होगा, जिस श्रेणी का हमारा भाव होगा, उसके अनुरूप हिसाब चुकाने में भगवान के यहाँ अन्याय नहीं होता; पर यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि व्यापार बुद्धि से किया हुआ भजन, अपने अनुपात से ही लाभ उत्पन्न कर सकता है।

निष्काम भाव से आत्मदान करने वाली पत्नी विवाह के बाद ही पति की विशाल संपत्ति की अधिकारिणी बन जाती है, पर वेश्या को यह लाभ कहाँ मिलता है? वह अपने शरीर का, इतने समय का इतना मूल्य ठहरा लेती है, फिर उसे उतना ही मिलता है। सारे जीवन अनेक पुरुषों को शरीर बेचते रहने पर भी वह उतना नहीं कमा सकती, जितना धर्मपत्नी का एक दिन में ही पति के कमाए हुए पर उत्तराधिकार मिल जाता है। फिर वेश्या का आदर भी किसी की दृष्टि में क्या है? पत्नी के बीमार होने पर पति उसकी चिकित्सा पर अपनी सारी कमाई खरच कर सकता है, अपना रक्त भी दे सकता है, पर वेश्या के बीमार होने पर कौन व्यभिचारी उसके लिए कुछ भी त्याग करने को इच्छुक होगा? भक्ति का वेश्यावृत्ति की तरह नहीं, पतिव्रता की तरह प्रयोग करना चाहिए। भक्तिभावना का, ईश्वर उपासना का मुख्य लाभ भौतिक संपदाएँ जुटाना नहीं, आत्मकल्याण ही है। भक्ति का उद्देश्य मानव अंतःकरण में प्रेमभावना की अभिवृद्धि करना है, जिससे वह महान मानव बनकर अपने चारों ओर सत्यं शिवं सुन्दरं से परिपूर्ण एक दिव्य वातावरण उत्पन्न कर सके।

निष्काम उपासना में दुहरा लाभ है। घट−घटवासी सर्वव्यापी भगवान यह भली प्रकार जानते हैं कि मेरे किस पुत्र को क्या कष्ट है। वे करुणा के सागर अनंत वात्सल्य से ओत-प्रोत हैं, प्राणिमात्र का निरंतर हित-साधन करते हैं, तो फिर अपने भक्तों का क्यों न करेंगे? हम स्वयं नहीं जानते कि हमारा हित किस में और अनहित किस में है? रोगी को क्या पता है कि उसके लिए क्या आहार पथ्य और क्या कुपथ्य है? इसे वैद्य ही जानता है। जो कुछ हमारे लिए आवश्यक है, वह मिलने ही वाला है। उस उपलब्धि को हम परमात्मा पर ही क्यों न छोड़ दें। अपना कर्त्तव्यपालन करने की जिम्मेदारी निबाहते हुए फल का निर्णय उस करुणानिधान पर ही क्यों न छोड़ दें, जो अपनी सहज उदारता से हमें निरंतर बहुत कुछ देता ही रहता है।

सच्चा प्रेम निष्काम भावना की अपेक्षा करता है। स्वार्थपूर्ण प्रेम न संसार में सफल होता है और न आत्मिक क्षेत्र में। उससे न कोई मनुष्य अपना बनता और न परमात्मा। प्रेम का स्वरूप ही निस्वार्थ है। परमात्मा से स्वार्थपूर्ण कामना, मिश्रित नकली प्रेम कहाँ तक निभ सकेगा? जैसे मतलब की दोस्ती जरा−सी बात पर टूट जाती है, वैसे ही सकाम कामना वाली भक्ति में भी स्थायित्व कहाँ होता है? मतलब सिद्ध हो गया तो फिर भक्ति से क्या प्रयोजन? और मतलब न निकला तो फिर पूजा-पाठ में सिर मारने से क्या लाभ? इस प्रकार दोनों ही स्थितियों में स्वार्थपूर्ण भक्ति टूटती है। उसका अंत असफलता में ही होता है।

हमारी साधना आत्मकल्याण के लिए निष्काम और निस्वार्थ भाव से होनी चाहिए। सच्चे प्रेम की सच्ची भक्ति का विकास ही साधना का लक्ष्य है, इससे आत्मकल्याण और लौकिक सुख−शांति का दुहरा लाभ है। हमारे लिए यही श्रेष्ठ एवं श्रेयस्कर है।


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