सक्रिय अध्यात्मवाद की ओर

April 1962

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अखण्ड ज्योति विगत 24 वर्षों से इस उद्देश्य से निकाली जा रही है कि जनमानस में धर्मनिष्ठा की प्रकृति एवं प्रगति हो। यह उद्देश्य किस सीमा तक सफल हो रहा है, इसकी कसौटी एक ही हो सकती है कि प्रस्तुत विचारों का हमने कितना आदर किया, उनका महत्त्व कितना माना और कितना उन पर विश्वास किया? यदि सचमुच प्रस्तुत आध्यात्मिक विचारधारा को उपयोगी, उचित एवं आवश्यक माना गया है तो उसका क्षेत्र मस्तिष्क में सीमित न रहकर हृदय तक होना चाहिए और इन विचारों से हमारे जीवन की गतिविधियों को प्रभावित होना चाहिए। अब समय आ पहुँचा कि इस कसौटी पर अपने को कसा जाए और देखा जाए कि आध्यात्मिक विचारधारा को हम केवल मनोविनोद के लिए ही पढ़ते-सुनते हैं या उस पर श्रद्धा रखकर जीवन में उतारने का भी प्रयत्न करते हैं। यदि इन विचारों का प्रभाव केवल पसंदगी तक ही हुआ है, हमें यह सब पढ़ना−सुनना रुचिकर लगने लगा है तो एक प्रकार अच्छा तो इसे भी माना जाएगा, भविष्य के लिए कुछ आशा भी की जा सकेगी, पर उस उद्देश्य में प्रगति हुई न मानी जाएगी जिसके लिए कि यह प्रयत्न किया जा रहा है।

विचारों की कार्य रूप में परिणति

किसी विचारधारा का परिणाम तभी प्राप्त हो सकता है, जब वह कार्यरूप में परिणत हो। मानसिक व्यसन के रूप में कुछ पढ़ते−सुनते और सोचते रहें, कार्यरूप में उसे परिणत न करें तो उस विचार-विलासमात्र से कितना उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा? फुरसत का समय काटने के लिए, शरीर की बेकारी दूर करने के लिए लोग ताश, शतरंज, चौपड़, कैरम आदि के खेल ले बैठते हैं और देर तक उसमें उलझे रहते हैं। खेल खत्म होने पर उन्हें एक हलका-सा मनोरंजन हो जाने और कुछ वक्त कट जाने के अतिरिक्त और कोई लाभ, उतना लंबा कीमती वक्त गंवा देने पर भी नहीं दीखता। इसी प्रकार आध्यात्मिक विचारधारा का लंबा स्वाध्याय, मन पर एक हलकी−सी सतोगुणी छाप तो छोड़ता है, पर जब तक क्रिया में वे विचार न उतरें, तब तक यह स्वाध्याय भी एक विनोद व्यसन ही बना रहता है। जो कुछ थोड़ा−सा लाभ मिलता है, उसकी तुलना ताश खेलने के मनोविनोद से की जा सकती है।

धर्म और अध्यात्म के बारे में आज एक भ्रान्ति चल पड़ी है कि यह पूजा-पाठ की बातें हैं, उन्हें व्यावहारिक जीवन में उतारने की आवश्यकता नहीं है। लोग रामायण, गीता का पाठ-परायण तो घंटों करते हैं, पर उनमें सन्निहित आदर्शों एवं शिक्षाओं को अपने जीवनक्रम से सर्वथा बहिष्कृत रखे रहते हैं। रामायण मुद्दतों पढ़ते रहने पर भी भगवान राम के चरित्रों, आदर्शों एवं अभिवचनों को अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न जब तक न किया जाएगा, तब तक रामायण पढ़ने का पुण्यफल कैसे प्राप्त हो जाएगा? गीता में जिन दैवी−संपदा को कमाने का, कर्मयोगी बनने का, स्थिर प्रज्ञा रखने का उपदेश है, यदि उसे अपने स्वभाव में न उतारा जाए तो उन श्लोकों के बार−बार पाठ करते रहने पर भी गीतापाठ का पुण्यफल क्योंकर मिल सकेगा? पर आज समझा यही जाता है कि इन ग्रंथों के कुछ पृष्ठों का रोज−रोज पाठ करते रहा जाए तो उस पढ़ने मात्र से ही पुण्यफल मिल जाएगा। इस मान्यता के रहते, उनमें लिखी बातों को जीवन में उतारने का झंझटभरा प्रयास भला कौन करेगा? क्यों करेगा?

साधना का उद्देश्य

जप, तप, हवन, कीर्त्तन, पूजा, अर्चा, दान, पुण्य आदि आध्यात्मिक क्रियाएँ भी एक विशेष समय पर पूरी करते रहने वाले अनेकों व्यक्ति होते हैं, उनका विश्वास होता है कि एक नियत समय इन कार्यों के लिए लगा देने मात्र से आत्मकल्याण एवं पारलौकिक उद्देश्य की पूर्ति हो जाएगी। भगवान की भक्ति उनके पूजाकाल में ही पूरी हो जाती है, पर विचारणीय बात यह है कि जिन आदर्शों को जीवन में ओत-प्रोत करने के लिए यह सारा कर्मकाण्ड बनाया गया है, वे सिद्धांत यदि हमारे दैनिक जीवन में प्रवेश न कर सके, स्वभाव में सम्मिलित न हो सके तो क्या आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा हो जाएगा?

उपासना का सारा विधान ‘साधन’ कहा जाता है— साध्य नहीं। साधन का उद्देश्य साध्य को प्राप्त करना है। साध्य है आत्मिक पवित्रता। अंतःकरण पर चढ़े हुए मल-विक्षेपों को हटाने के लिए साधन किया जाता है। आत्मिक स्वच्छता जितनी स्पष्ट होती जाती है उतनी ही समीपता हमें अपने भगवान की अनुभव होने लगती है। पूर्ण आत्मिक स्वच्छता ही पूर्ण आत्मसाक्षात्कार का लक्ष्य पूरा कर सकती है। मन की मलीनता रहते वह उद्देश्य कहाँ पूर्ण हो सकेगा? हमें इस तथ्य को हृदयंगम कर ही लेना चाहिए। भ्रम की स्थिति में देर तक पड़े रहना उचित नहीं। हम जीवन को अस्त−व्यस्त, अव्यवस्थित, अनैतिक, अनुपयुक्त रीति से व्यतीत करें और एक नियत समय थोड़ा-सा विधान पूर्ण करके यह आशा करें कि हमें पारमार्थिक लक्ष्य प्राप्त हो जाएगा तो यह एक क्लिष्ट कल्पना ही होगी।

जीवन की पवित्रता

पूजा-आराधना का उद्देश्य जीवनक्रम में पवित्रता भर देने के उपयुक्त मनोभूमि तैयार कर देना है। यदि मनोभूमि की मलीनता ज्यों की त्यों बनी रही, दृष्टिकोण और कार्यक्रम में अनुपयुक्त अनैतिक तत्त्व ही समाए रहे तो यह विचार करना ही पड़ेगा कि हमारी पूजा का उद्देश्य क्यों पूरा नहीं हुआ? पूजा सफल हो रही है या नहीं, इसकी एक ही प्रत्यक्ष कसौटी है कि हमारे जीवन की गतिविधियाँ मोड़ ले रही हैं या नहीं? यदि हमारी स्वार्थपरता, असावधानी, वासना, तृष्णा, ज्यों की त्यों हैं, पारमार्थिक गतिविधियों के लिए हमारे गुण, कर्म, स्वभाव में स्थान नहीं मिल रहा है तो यही मानना पड़ेगा कि हम किसी नकली अध्यात्म के फेर में हैं। असली अध्यात्म, नकद धर्म है। उसका प्रभाव इस हाथ ले, उस हाथ दे के समान तुरंत परिलक्षित होता है।

ईश्वर−उपासना का प्रतिफल

ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी, समदर्शी मानने वाला व्यक्ति उसके कठोर दंड-विधान से क्यों न डरेगा? हर घड़ी जिसे न्यायकारी ईश्वर सामने खड़ा दीखता है, वह कुविचारों और कुकर्मों को अपनाकर उसे क्रुद्ध करने की चेष्टा क्यों करेगा? मन को पाप में डुबाए रहना और जीभ से क्षमा माँगते रहना, यह बहकावा सांसारिक लोगों के लिए भी सफल नहीं होता फिर घट-घटवासी परमेश्वर को इतने मात्र से बहकाया कैसे जा सकेगा? ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए पूजा−उपासना जितनी आवश्यक है, उतना ही आवश्यक यह भी है कि अपने सद्विचारों और सत्कर्मों से उस अंतर्यामी को संतुष्ट किया जाए। हमें अब बार−बार इस तथ्य पर विचार करना होगा और कुछ देर पूजा करने के बाद चाहे जो उचित-अनुचित करते रहने की मान्यता को छोड़ना पड़ेगा। ईश्वर चौकी पर बिठाकर भोग लगा देने मात्र से प्रसन्न नहीं हो सकता, इस पूजन के साथ−साथ अपनी आंतरिक उत्कृष्टता का नैवेद्य भी प्रभु के चरणों पर प्रस्तुत करना पड़ेगा, उसी से तो वे पसीजते और पिघलते हैं। भक्त को भगवान पर सच्ची अनुकंपा केवल इसी प्रकार से प्राप्त हो सकती है। आज हमें देर तक बार−बार यही सोचना होगा। यही चिंतन और मनन करना होगा और यदि आध्यात्मिकता पर, उपासना पर वस्तुतः हम विश्वास करते हैं तो नियत समय पर पूजा−पाठ निपटने तक सीमित न रहकर ईश्वर को अपना जीवनसंगी बनाना पड़ेगा, हर घड़ी उसकी उपस्थिति अपने साथ अनुभव करने और अपने सद्विचारों एवं सत्कर्मों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करना होगा।

अध्यात्मवाद का प्रवेशद्वार

स्वाध्याय एवं सत्संग को अध्यात्म का प्रवेशद्वार माना गया है। आस्तिकता एवं उपासना में निष्ठा उत्पन्न करना स्वाध्याय एवं सत्संग का काम है। जीव की पतनोन्मुख पाशविक वृत्तियाँ उसे वासना और तृष्णा के प्रलोभनों की ओर आकर्षित करती रहती हैं। फलस्वरूप उसकी प्रवृत्तियाँ और गतिविधियाँ इंद्रियों की वासनाएँ पूरी करने में एवं मन की— संग्रह, प्रभुता, प्रशंसा, ममता आदि तृष्णाएँ पूरी करने में लगी रहती हैं। जीव की सारी शक्तियाँ, क्षमता, योग्यता, इसी दिशा में लगी रहती हैं और 84 लाख योनियों के बाद, करोड़ों वर्ष बाद प्राप्त हुआ यह सुरदुर्लभ मानव जीवन, केवल शरीर की क्षणिक प्रसन्नताएँ प्रस्तुत करते रहने में समाप्त हो जाता है। इस घातक भूल के लिए जीव को फिर 84 लाख योनियों में भ्रमण करने का भारी पश्चात्ताप भरा संकट उठाना पड़ता है। स्वाध्याय और सत्संग का उद्देश्य जीव को इस खतरे से सजग करना है। सत् शिक्षण का प्रयोजन यही है कि जीव अपने लक्ष्य को समझे, शरीर को ही सब कुछ न मान बैठे, उसी की चिंताओं में दिन-रात न डूबा रहे, कुछ उस लक्ष्य की ओर भी विचार करे, जिसके लिए कि यह बहुमूल्य मानव जीवन प्राप्त हुआ है।

उपासना का व्यावहारिक रूप

यदि हम इस तथ्य की ओर ध्यान देने लगें और अपनी कार्यविधि में आवश्यक हेर−फेर करके लौकिक समस्याओं को सुलझाने की तरह पारलौकिक समस्याओं को सुलझाने में भी समय देने लगें तो समझना चाहिए कि स्वाध्याय का उद्देश्य पूरा हो रहा है। यदि ऐसा न हो और कोई पुस्तक पढ़कर, कोई वचन सुनकर अपने कर्त्तव्य का अंत मान लिया जाए तो समझना चाहिए कि छोटे बच्चों की तरह गुड़ियों का खेल ही खेला जा रहा है। सत्यनारायण की कथा हम सुनें, उसे सुनकर सत्यरूप नारायण को अपने व्यवहार में सच्चाई से सम्मिलित करने का व्रत लें तो समझना चाहिए कि कथा सुनने का उद्देश्य पूरा हो गया; किंतु यदि लीलावती-कलावती की कथा सुनकर, पंडित जी को दक्षिणा देकर और प्रसाद ग्रहण करके कर्त्तव्य की समाप्ति मान ली गई और उतने से ही सत्यनारायण भगवान को प्रसन्न हुआ मान लिया गया तो यह एक भूल ही होगी। हम सत्यनारायण की कथा सुनने की अपनी अभिरुचि को बढ़ावें, जल्दी−जल्दी कथाएँ कहें और सुनें, पर यह भी ध्यान रखें कि कथा में प्रस्तुत सत्य की साधना को कहने−सुनने मात्र से काम चलने वाला नहीं है, उसे जीवन में उतारना ही पड़ेगा, तभी भगवान की प्रसन्नता का पुण्यफल प्राप्त हो सकना संभव होगा।

रामायण, गीता, भागवत का नित्य पाठ करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं, पर उस पाठ का सच्चा लाभ केवल उन्हें ही मिलता है, जो इन सद्ग्रंथों में सन्निहित शिक्षाओं पर विचार करते हैं, उनके महत्त्व को स्वीकार करते हैं और यह विश्वास करते हैं कि इन्हें निष्ठापूर्वक हृदयंगम करके जीवनक्रम में ओत−प्रोत किया ही जाना चाहिए। ऐसे कितने ही पोथी−पाँडे मौजूद हैं जो घंटों पाठ करते हैं, पर जिनके जीवन छल और पाखंड से परिपूर्ण हैं। क्या ऐसे लोगों की वह पाठ-प्रक्रिया ‘तोता रटंत’ से कुछ अधिक मानी जा सकेगी? ऐसे कितने ही भजनानंदी हैं जो घंटों माला जपते हैं, पर उनके स्वभाव में संकीर्णता, दंभ और स्वार्थपरता कूट−कूटकर भरे हुए हैं। क्या ऐसे लोग उस ईश्वर की प्रसन्नता एवं निकटता प्राप्त कर सकते हैं?

साधन साध्य नहीं?

हमें यह बार−बार कहना और सुनना चाहिए कि साधना आत्मिक पवित्रता प्राप्त करने का साधन है— लक्ष्य नहीं, साध्य नहीं। लक्ष्य की पूर्ति के लिए उसके उपायरूप में साधना का उपयोग करना है। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आत्मिक पवित्रता बढ़ नहीं रही है, पारमार्थिक विधियों को जीवन में स्थान नहीं मिल पा रहा है तो हमारा पूजा और पाठ कहीं-न-कहीं अपूर्ण है —वह एकांगी एवं अपूर्ण ही बना हुआ है, अन्यथा अन्य सभी सच्चे तथ्यों की तरह अध्यात्म भी प्रत्यक्ष है। अध्यात्मवादी का जीवन उत्कृष्टता से विभूषित होना ही चाहिए। उसमें मानवता को शोभायमान करने वाले गुण, कर्म, स्वभाव का प्रत्यक्ष दिग्दर्शन होना ही चाहिए। नशा पीकर तुरंत मस्ती आती है, आध्यात्मिकता का नशा इस धरती का सबसे बड़ा नशा है, उसकी दो बूँदें भी जिसके अंतःकरण तक जा पहुँचेंगी, उत्कृष्टता की मस्ती में लहराए बिना रह नहीं सकते। बीन को सुनकर साँप जिस तरह लहराता है, आध्यात्मिक भावनाओं का रसास्वादन करके आत्मा भी लहराती है और वह उस मस्ती में लहराने लगती है, जिसमें अनादिकाल से लेकर अब तक के महापुरुष लहराए हैं और अपने जीवन का ऐसा उपयोग कर सकने में समर्थ हुए हैं, जिससे उनका नाम इतिहास में अमर रहा, जीवन-लक्ष्य पूर्ण हुआ और असंख्य मानसों को उत्साहवर्द्धक प्रकाशपूर्ण मार्गदर्शन मिला।

अध्यात्म का व्यावहारिक प्रयोग

आत्मकल्याण का लोक-शिक्षण गत 24 वर्षों से अखण्ड ज्योति कर रही है। उसका उपयोग यदि पाठकों के मनोरंजन तक ही हुआ हो तो यही कहना होगा कि यह इतना लंबा प्रयत्न निष्फल चला गया; क्योंकि उच्च आदर्शों का कोई मूल्य तभी है, जब वे व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित हों, उनके आधार पर अपनी गतिविधियाँ संचालित हों। अब हमें यह निर्णय करना है कि अध्यात्मवाद को एक मनोविनोद का साधनमात्र बनाए रखा जाए या वस्तुतः उसका कुछ प्रयोग किया जाए? यदि अध्यात्म के प्रति अपनी निष्ठा हो तो उसका प्रयोग जीवन-क्षेत्र में करने के लिए हमें कटिबद्ध होना ही चाहिए और इस ‘नकद धर्म’ के लाभों से लाभान्वित होने के लिए व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध कदम उठाना ही चाहिए।


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