गुत्थियों का हल अपने भीतर है।

April 1962

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मनुष्य की आत्मा में एक ऐसा दिव्य प्रकाश मौजूद है, जो यदि आलोकित होने लगे तो वह अपने प्रकाश-क्षेत्र को स्वर्गीय बना सकता है। स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन दृष्टिकोण हैं। जब मनुष्य तमोगुणी, तुच्छ, हीन, पतित, पापदृष्टि अपनाकर अपने सोचने और काम करने का ढंग दूषित कर लेता है, तो उसे अपने भीतर जलती हुई चिता जैसी जलन अनुभव होती है और बाहरी जगत में संघर्ष, क्लेश, द्वेष की— रोग, शोक, दारिद्रय, चिंता, भय, पीड़ा, त्रास की    परिस्थितियाँ बिखरी हुई दृष्टिगोचर होती हैं; किंतु यदि दृष्टिकोण उच्चस्तरीय हो, उसमें सात्विकता, प्रेम, दया, करुणा, मैत्री, सेवा, उदारता, क्षमा, आत्मीयता जैसे आदर्शों का समन्वय हो, तो व्यक्ति का अंतःकरण हर घड़ी संतोष, उल्लास, सुख एवं शांति से भरा रहता है। ऐसे व्यक्ति को अपने बाहरी जीवन में भी सर्वत्र सौजन्य, स्नेह, सद्भाव, सहयोग एवं सत्कर्मों का वातावरण ही फैला दीखता है। यों यह दुनियाँ तीन गुणों से बनी है। इसमें भला-बुरा सभी कुछ है। पाप और पुण्य का, देवत्व और असुरता का, दुःख- सुख का, उचित और अनुचित का अस्तित्व यही है, फिर भी व्यक्ति अपने दृष्टिकोण के अनुरूप ही परिस्थितियाँ प्राप्त कर लेता है। भौंरे के लिए इस बगीचे में फूलों की और गुबरीले कीडे़ को गोबर की प्राप्ति हो ही जाती है। संसार बुरा भी है और भला भी। यहाँ न दुष्टों की कमी है और न सज्जनों की, पर यह सब होते हुए भी हमारे दृष्टिकोण का चुंबकत्व अपने आप में एक ऐसा शक्तिशाली तत्त्व है, जो अपने आकर्षण से अपनी जाति की वस्तुओं, आत्माओं एवं परिस्थितियों को खींचकर समीप जमा कर लेता है।

मकड़ी अपना जाला आप बुनती है और उसी में फँसी पड़ी रहती है। हम भी अपनी परिस्थितियों की सृष्टि आप करते हैं और उसी में सुख-दुःख अनुभव करते हुए जीवन को हँसते-रोते व्यतीत करते रहते हैं। आमतौर से ऐसा समझा जाता है कि हमारी वर्त्तमान परिस्थितियों के निर्माता कोई और हैं। जब विपरीत या कष्टकारक कोई अवसर सामने आते हैं और उनके निदान की— कारण की ढूँढ-खोज करनी आवश्यक होती है, तब हम यह खोज-बीन अपने भीतर न करके, अपने दोषों पर विचार न करके बाहरी कारणों पर दोषारोपण करते हैं और यह प्रयत्न करते हैं कि दोषी कोई और सिद्ध हो जाए और हम अपने आपको निर्दोष मानकर संतोष कर लेने का कोई बहाना ढूँढ निकालें। हम में से अधिकांश के प्रयत्न ऐसे ही होते हैं, मानवीय बुद्धि भी जादू की पिटारी है, इसे जिधर को लगा दिया जाए, उधर ही अपनी मान्यता के समर्थन में कुछ-कुछ तर्क, प्रमाण, कारण गढ़कर सामने प्रस्तुत कर देती है। फूँस का भेड़िया बनाकर खड़ा कर देने की विद्या में यह जादूगरनी परम प्रवीण है। भीतरी मन जिस बात की आकांक्षा करे, उसके समर्थन में वह कल्पना का एक पूरा महल नहीं, नगर नहीं, संसार ही गढ़ सकती है और छोटे बच्चे की तरह मन को इस प्रकार झुठला सकती है, मानो चंदा मामा को आकाश से उतारकर हथेली पर ही रख दिया हो।

हम में से अधिकांश को इसी भ्रम में भटकना पड़ता है। अपनी गुत्थियों के समाधान का हल खोजते हैं, पर वह मिले कैसे? भूलभुलैया में भटकने वाले दिग्भ्रांत मनुष्य की तरह हम वस्तुस्थिति को समझ कहाँ पाते हैं? जो अपनी कठिनाइयों के कारण को समझें और उसका सही उपाय जानकर उसी के लिए सचेष्ट हों। हमारी मान्यता यह होती है कि हम स्वयं निर्दोष हैं, हम न तो गलती करते हैं और न गलत सोचते हैं, न हमारे अंदर दोष है, न दुर्गुण, न हमें अपने को सुधारने की आवश्यकता है, न संभालने की। जो कुछ खराबी है, सब बाहर वालों में है। वे ही प्रत्येक कठिनाई के जिम्मेदार हो सकते हैं। इस मान्यता के स्थिर होते ही, कुशाग्र बुद्धि वाले वकील की तरह मन अपना काम करना आरंभ कर देता है और मुकदमा चाहे झूठा ही क्यों न हो, उसे जिताने के लिए आकाश-पाताल के कुलावे मिलाना आरंभ कर देता है। देखते-देखते इतने तर्क, इतने प्रमाण, इतने कारण सामने प्रस्तुत हो जाते हैं कि मनुष्य उन्हें ही सत्य मानने लगता है। किसी प्रकार अपनी निर्दोषिता पर आत्मसंतोष करता हुआ थोड़ा चैन पा लेता है।

अनेकों व्यक्ति सोचते हैं कि उन्हें सताया गया है। सताने वाले जो व्यक्ति समझ में आते हैं, उनके प्रति क्रोध, द्वेष और प्रतिहिंसा के भाव उठना स्वाभाविक ही है। यह एक नई जलन अपने कष्टों के साथ और जुड़ जाती है और जले पर नमक छिड़कने की तरह और दुःख देती है। कई बार और भी सरल तरीका समझ में आ जाता है। व्यक्तियों को दोषी न समझकर भाग्य, प्रारब्ध, विधाता, ईश्वर, ग्रह, नक्षत्र, भूत, पलीत आदि को कारण मानकर संतोष कर लेने की भी पद्धति का बहुत प्रचार हो चला है। कारण यह है कि इन विश्वासों के आधार पर मनुष्य को अपनी विवशता स्वीकार करने और द्वेष एवं प्रतिहिंसा से बचने का भी अवसर मिल जाता है। दैव से, भाग्य से, ग्रह-नक्षत्रों से द्वेष करने से भला क्या लाभ? यह सोचकर दुर्बल मानस वाले व्यक्ति भी अपना गम गलत कर सकते हैं।

वस्तुस्थिति सर्वथा भिन्न है। मनुष्य का आंतरिक प्रदेश जिस घटिया या बढ़िया स्तर का होता है, उसे अपने अनुरूप व्यक्तियों, वस्तुओं एवं परिस्थितियों को प्राप्त करने में देर नहीं लगती। भीतरी प्रतिभा जब विकसित होती है, तो उसके प्रकाश से बाहर का सब कुछ जगमगाने लगता है। इतिहास के पृष्ठों पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि अधिकांश महापुरुष ऐसी अभावग्रस्त एवं हीन परिस्थितियों में उत्पन्न हुए थे, जहाँ स्वाभाविक विकास की गुंजाइश बहुत ही कम थी। यदि उनकी अंतरात्मा प्रबल मनस्वी न रही होती तो उन्हें भी इस संसार के अनेक दीन−हीन व्यक्तियों की तरह भाग्य का रोना रोते हुए जिंदगी के दिन पूरे करने पड़ते, पर हुआ इससे सर्वथा विपरीत। उनने अपनी आंतरिक प्रतिभा के बल पर आगे को कदम बढ़ाए। बढ़ते हुए कदमों को प्रोत्साहित करने वाला दैवी नियम इस संसार के आदि से ही बना हुआ है। कहते हैं कि, 'ईश्वर उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं।' पुरुषार्थी के आत्मविश्वासी कदम जिस राह पर बढ़ते हैं, उसके रोड़े हटते ही हैं। हिमालय से निकली हुई गंगा की समुद्र से मिलने की प्रदीप्त भावना को हजारों मील भूमि पर बिखरे हुए असंख्य अवरोध कहाँ रोक सके? गंगा की धड़धड़ाती हुई धारा समस्त प्रतिरोधों को कुचलकर समुद्र तक जा ही पहुँचती है। प्रगति के पथ पर बढ़ती हुई आत्मा भी क्योंकर रुकेगी। उसे कौन रोकेगा? हिमालय जैसा उच्च आंतरिक स्तर जिसका होगा और समुद्र जैसे विशाल लक्ष्य की आकांक्षा होगी, उसका मार्ग गंगा की तरह ही प्रशस्त है। उसकी लक्ष्यपूर्ति सर्वथा सुनिश्चित है।

इस संसार में कोई बुराई नहीं है, कोई प्रतिकूलता नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा रहा है और न यही प्रेरणा दी जा रही है कि बाह्य जगत में जो बुराइयाँ एवं त्रुटियाँ हैं, उन्हें सुधारा या बदला न जाए। यह तो करना ही चाहिए, पर साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि सारे संसार को सुधार लेना या इच्छानुकूल बना लेना संभव नहीं है। सारी पृथ्वी पर फैले हुए काँटे नहीं बीने जा सकते, पर अपने पैरों में जूते पहने जा सकते हैं, जिससे काँटों का प्रभाव समाप्त हो जाए। अपना सुधार करना, अपने दृष्टिकोण को परिमार्जित करना जूते पहनकर काँटों से निश्चिंत होने के समान ही है। बाह्य जगत की बुराइयों को सुधारने के लिए भी अपनी उत्कृष्टता आवश्यक है। गरम लोहे को गरम लोहे से नहीं, ठंडे लोहे से ही काटा जा सकता है। कीचड़ को कीचड़ से नहीं, शुद्ध जल से ही धोया जा सकता है। क्रोध को क्रोध से नहीं, शांति से परास्त किया जा सकता है। यदि हम स्वयं मलीन होंगे, बुराइयों से सने होंगे, तो दूसरों का सुधार कैसे कर सकेंगे? यदि हमारी भीतरी उलझनों का जाला तना है, तो बाहर की गुत्थियों को सुलझाया जा सकना किस प्रकार संभव होगा?

इस संसार में अगणित कठिनाइयाँ मौजूद हैं। इस मानव जीवन की अगणित गुत्थियाँ उलझी पड़ी हैं, उनका सुलझाया जाना नितांत आवश्यक है। उलझनों के बीच कठिनाइयों के बीच चैन किसे मिल सकता है? पर इन पहेलियों को सुलझाते हुए हम यह न भूलें कि अधिकांश समस्याओं की जड़ हमारे भीतर है, उनका समाधान भी हमारे अपने ही अंदर मौजूद है। अपने को सुधारना, अपने को बनाना, अपने को बढ़ाना ही वह उपाय है, जिससे दुनियाँ सुधर सकती है। अपनी आकांक्षाओं की दुनियाँ साकार हो सकती है और उन्नति के उस उच्च शिखर पर पहुँचा जा सकता है, जहाँ पूर्णता-ही-पूर्णता है; जहाँ अभाव का, शोक का, भय का, दुःख का एक कण भी शेष नहीं रहता।


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