साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा

April 1962

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पिछले तीन लेखों में यह विचार किया गया है कि मानव जीवन एक अलभ्य अवसर एवं सुरदुर्लभ अवसर है। इसको तुच्छ बातों में बर्बाद न करके ऐसा सदुपयोग करना चाहिए, जिससे जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति हो, आनंद, उल्लास और संतोष के साथ जिया जाए तथा संसार को अच्छा संसार बनाने में सहायता मिले। यदि यह निष्कर्ष सच्चे मन से निकाला गया हो, तो निस्संदेह उसकी पूर्ति होना, व्यवस्था बनना कुछ भी कठिन नहीं है। कठिनता उन्हीं के लिए है, जो शेखचिल्ली की जैसी कल्पनाएँ तो बड़ी−बड़ी करते हैं, पर जब काम करने की,कुछ व्यवस्था बनाने की घड़ी आती है तो दाँत निकाल देते हैं।

अध्यात्म के चार आधार

साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चार भागों में अध्यात्म विभक्त है। चारों को मिलाकर ही आत्मकल्याण की कोई सर्वांगपूर्ण व्यवस्था बन सकती है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि हम विश्वासपूर्वक इस आदर्श पर निष्ठा रखें कि अन्य आवश्यक कार्यों की तरह आत्मकल्याण का कार्यक्रम भी उपेक्षणीय नहीं, वरन अन्य साधारण कार्यों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है और महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए सोच-विचार करते रहना पड़ता है। यह तीनों ही साधन जब तक आत्मकल्याण योजना में न लगेंगे, तब तक उसकी पूर्ति किसी भी प्रकार संभव न होगी। हमें अपने मस्तिष्क में आत्मकल्याण की आवश्यकता और योजना को अधिकाधिक स्थान देते चलना होगा और उसके लिए समय मिलते ही गहराई से सोच-विचार करते रहना होगा। दिन में ऐसा बहुत-सा समय ऐसा होता है, जब शरीर आराम कर रहा होता है और मन खाली रहता है। ऐसा जितना भी समय मिले, उसे आत्मकल्याण संबंधी समस्याओं को समझने और सुलझाने में लगाए रहना चाहिए।

ईश्वर की उपासना

इसके अतिरिक्त कुछ समय भी नियमित रूप से आत्मकल्याण के कार्यों के लिए हमें लगाना चाहिए। प्रातःकाल आँख खुलने से लेकर चारपाई छोड़ने में हर मनुष्य को थोड़ा बहुत समय लगता है। आँख खुलते ही कोई चारपाई छोड़कर उठ खड़ा नहीं होता, वरन कुछ समय चेतना प्राप्त करने, खुमारी दूर करने में हर किसी को लगाना पड़ता है। जाड़े के दिनों में तथा बुढ़ापे की अवस्था में तो यह चारपाई पर पड़े रहने का समय बहुत लंबा होता है। इस कार्य को आत्मकल्याण की साधना में लगाते हुए किसी को कोई अड़चन न होनी चाहिए। यह समय भगवान के स्मरण में लगाना चाहिए। (1) भगवान के हमारे ऊपर किए उपकार, उनकी दी हुई अनेक सुविधाओं का बाहुल्य, अनेक कठिनाइयों में उपलब्ध होती रहने वाली उनकी अदृश्य सहायताओं का बार-बार चिंतन करना चाहिए। अपनी व्यक्तिगत शक्ति स्वल्प है, जो सफलताएँ मिली हैं, उसमें अपना श्रेय न मानकर ईश्वर की ही अनुकंपा माननी चाहिए और अहंकार को तनिक भी न पनपने देना चाहिए। सफलताओं का श्रेय अपने ऊपर लेने वाले मनुष्य वास्तव में नास्तिक होते हैं। अहंकार नास्तिकता का प्रधान चिह्न है। प्रार्थना द्वारा हम इस अहंकार को ही गलाते हैं। ईश्वर के उपकारों के साथ-साथ उन सत्पुरुषों के, स्वजनों के अनंत उपकारों का भी स्मरण करना चाहिए, जिनकी कृपा से समय-समय पर अनेकों कठिनाइयाँ हल होती रहीं तथा सुविधा सफलता प्राप्त करने का अवसर मिला।

(1) ईश्वर के समदर्शी, न्यायकारी घट-घटवासी स्वरूप का हमें बारंबार स्मरण करना चाहिए और यह विश्वास गहराई तक जमा लेना चाहिए कि वह हमारी प्रत्येक भावना को बहुत ध्यानपूर्वक देखता है और उनकी पवित्रता अपवित्रता देखकर ही वह प्रसन्न अप्रसन्न होता है। भगवान की सच्ची पूजा सत्कर्मों से ही हो सकती है। कलुषित भावनाओं से भरा रहने वाला कुकर्मरत मनुष्य बाह्य पूजा उपकरणों से परमात्मा को कदापि प्रसन्न नहीं कर सकता। यह बात जितनी अच्छी तरह समझ ली जाए उतनी ही हमारी ईश्वरभक्ति सच्ची होगी। प्रातःकाल भगवान के उपकारों का ध्यान, उनके प्रति कृतज्ञता भरी श्रद्धाञ्जलि का मानसिक समर्पण, उनके सर्वांतर्यामी, और न्यायकारी स्वरूप का ध्यान करते रहने में यह समय लगाना चाहिए और जी खोलकर प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु वह शक्ति प्रदान करे, जिससे मानव जीवन को सफल बनाने लायक, कठिनाइयों से संघर्ष कर सकने लायक आत्मबल विकसित हो सके। प्रातःकाल की प्रार्थना के साथ-साथ युग-निर्माण का संकल्प भी नित्य पढ़ा जाना चाहिए। यह संकल्प मार्च के अंक के प्रथम पृष्ठ पर छप चुका है।

स्वाध्याय कैसे करें?

(2) शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर कुछ समय नियमित गायत्री जप हर एक को करना चाहिए। एक माला जपने में कुल मिलाकर दस मिनट का समय लगता है। इतना तो हर एक को अनिवार्यतः करना ही चाहिए। अधिक अवकाश तथा अभिरुचि जिन्हें हो, वे गायत्री उपासना के अधिक संख्या में अधिक विधि-विधानपूर्वक जप कर सकते हैं। उसके परिणाम भी उन्हें अधिक प्राप्त होंगे। एक व्यस्त-से-व्यस्त व्यक्ति को भी 108 मंत्र तो जप ही लेने चाहिए। किसी और देवता या मंत्र के जो उपासक हों, वे उसे भी करें, पर गायत्री उपासना को भारतीय संस्कृति के अनुयायी होने का एक अनिवार्य कर्त्तव्य मानकर इसे दैनिक जीवन में स्थान दिया ही जाना चाहिए।

(3) यदि अपना लौकिक कार्यक्रम प्रातःकाल से ही आरंभ होता है, तो नित्यकर्म के बाद उस पर चले जाना चाहिए और सायंकाल तक बीच में जो भी अवकाश का समय मिलता हो, उसमें स्वाध्याय के लिए कम-से-कम आधा घंटा समय निकाल लेना चाहिए। स्वाध्याय के लिए केवल वही साहित्य काम में लेना चाहिए जो जीवन की वास्तविक समस्याओं पर व्यावहारिक मार्गदर्शन प्रस्तुत करता हो। हमें आज की अपेक्षा कल अधिक उत्कृष्ट कैसे बनना चाहिए, इस प्रश्न का उत्तर जिस भी पुस्तक में सरलतापूर्वक समझाया गया हो, वही स्वाध्याय में प्रयुक्त हो सकती है। प्राचीन ग्रंथों के मोह में किन्हीं कथा-पुराणों का एवं अत्यंत दुरुह आध्यात्मिक ग्रंथों पर पाठ करते रहना स्वाध्याय की चिह्नपूजामात्र है। उनसे स्वाध्याय की आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो सकती।

अपने स्वजनों की स्वाध्याय आवश्यकता की पूर्ति की पूरी जिम्मेदारी ‘अखण्ड ज्योति’ ने अपने कंधों पर ली है। जैसे मधुमक्खी दूर−दूर से पुष्पों का पराग एकत्रित करती है और उसे मधुर रस देकर गुणवान शहद के रूप में प्रस्तुत करती है, उसी प्रकार हम अपने पाठकों की दैनिक स्वाध्याय की आवश्यकता को पूर्ण करते रहने के लिए ‘अखण्ड ज्योति’ के पृष्ठों पर अत्यंत सारगर्भित पुण्य-सामग्री प्रस्तुत करते रहेंगे। अब सरसरी दृष्टि से अखण्ड ज्योति न पढ़ी जानी चाहिए, वरन प्रतिदिन आधा घंटा यह सोचकर उसे पढ़ना चाहिए कि इन पृष्ठों के लेखक को समीप बैठा मानकर उसके साथ सत्संग करते हुए अनेक धर्मग्रंथों का सार मधुर मधु के रूप में प्राप्त किया जा रहा है।

जिनका दैनिक कार्यक्रम देर से आरंभ होता है और प्रातःकाल कुछ समय खाली रहता है, वे साधना के बाद तुरंत स्वाध्याय आरंभ कर सकते हैं। अन्य धर्मग्रंथ पढ़ने हों तो उन्हें भी प्रसन्नतापूर्वक पढ़ा जाए। जिस प्रकार गायत्री उपासना के साथ−साथ अन्य मंत्र या देवता की उपासना करने की छूट है, उसी प्रकार जीवन में व्यावहारिक अध्यात्म की सामयिक प्रेरणा देने वाले अखण्ड ज्योति के पृष्ठ आधा घंटा तक पढ़ते रहने के अतिरिक्त अन्य ग्रंथ भी पढ़े जा सकते हैं, पर स्वाध्याय का जो एक व्यवस्थित कार्यक्रम प्रस्तुत किया जा रहा है, वह अखण्ड ज्योति के पृष्ठों से प्राप्त करते रहना ही चाहिए।

संयम कैसे साधा जाए?

(4) संयम की योजना रात को सोते समय बनानी चाहिए। चारपाई पर पड़ते ही तुरंत नींद किसी को नहीं आ जाती। कुछ समय सोने में जरूर लगता है। इस समय को संयम योजना बनाने में लगाना चाहिए। अपनी शारीरिक, मानसिक शक्तियों और संपदाओं का अनावश्यक रूप से जहाँ अपव्यय हो रहा हो, वहाँ से उसे रोककर आत्मिक प्रयोजनों में लगाना संयम का उद्देश्य है। सोते समय दिन भर के कार्यक्रमों पर विचार करना चाहिए कि आज हमारा कितना शरीरबल, कितना बुद्धिबल, कितना धनव्यय जीवन-निर्वाह के लौकिक कार्यों में लगा? क्या इसमें से कुछ समय, श्रम और धन बचाया जा सकता था? यदि बचत हो सकती थी और अधिक व्यय कर डाला गया तो उसे असंयम का एक चिह्न मानना चाहिए और अगले दिन के लिए ऐसा उपाय सोचना चाहिए कि वह अपव्यय कम होता चले। पूर्ण रूप से विविध असंयमों को तुरंत छोड़ सकना संभव न हो तो उन्हें घटाते अवश्य चलना चाहिए। आज की अपेक्षा कल असंयम घटे ही, बढ़े नहीं।

आहार में अनेक प्रकार के अनेक स्वाद के व्यंजन न हों, नियत समय के अतिरिक्त अन्य समय न खाया जाए। विवाहित जीवन में कामसेवन की अवधि और मर्यादा रहे और वह मर्यादा लंबी ही होती चले, छोटी नहीं। विलासिता की चीजें घटें, सादगी बढ़े। सिनेमा, ताश, बीड़ी आदि का शौक लग गया हो और यदि वह तुरंत न छूटता हो तो उनकी संख्या एवं अवधि तो दिन−दिन घटाई ही जा सकती है। अपने ऊपर होने वाला खरच क्रमशः घटाना चाहिए और उपयोग की वस्तुएँ जितनी कम की जा सकें, उतनी कम करते जाना चाहिए। धन, संतान, वाहवाही आदि की तुच्छ आकांक्षाओं को बहुत सीमित करते चलना और दांपत्य जीवन में अपनी नियत सामाजिक मर्यादा में पूर्ण संतुष्ट होकर पराई पत्तल चाटने के लिए ललचाते हुए मन को निग्रहपूर्वक रोकना चाहिए। आवेश, उत्तेजना, शोक, चिंता, भय, क्रोध, लोभ जैसे पतन के गर्त्त में धकेलने वाले असंयमों को सायंकाल के आत्मनिरीक्षणकाल में भली प्रकार परखना चाहिए कि आज किस−किस शत्रु का कितना बाहुल्य रहा और कल उनको नियन्त्रण में रखने के लिए क्या−क्या सावधानी बरती जाए? यह सोचना चाहिए।

संयम का तात्पर्य यह है कि बची हुई शक्तियों को शारीरिक कार्यों से समेटकर आध्यात्मिक कार्यों में लगाया जाए। जो समय, जो धन, बुद्धि, संयम के द्वारा बचाया गया है, उसे सत्कार्य में, परमार्थ में लगाया जाय,  तो ही उससे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। रात्रि को सोते समय संयम की योजना बनानी चाहिए और दिन में उसे कार्यान्वित करना चाहिए।

आत्मोत्कर्ष की सेवा साधना

(5) सेवा का अर्थ है— किसी आत्मा का स्तर ऊँचा उठाना। किसी कष्टपीड़ित को पैसा या सामान देने से सामयिक सहायता हो सकती है, पर आत्मा का कल्याण ज्ञान देकर उनके स्तर को ऊँचा उठाने में ही हो सकता है, इसलिए सेवा को ही ज्ञानयज्ञ कहा जाता है। हम अपने लिए जिस प्रकार स्वाध्याय और सत्संग का साधन जुटाते हैं, उसी प्रकार दूसरों के लिए यह उपकार करने की कुछ-न-कुछ योजना नित्य बनानी चाहिए। इससे बड़ा पुण्य-परमार्थ इस संसार में और कुछ नहीं हो सकता।

यह कार्य अपने परिवार से ही आरंभ करना चाहिए। कोई सुविधा का ऐसा समय ढूँढना चाहिए, जिसमें घर के अधिकांश व्यक्ति इकट्ठे हो सकें। इस समय एक पारिवारिक सत्संग प्रतिदिन चलाया जाए। 24 गायत्री मंत्रों का सब लोग मिलकर जप करें, माता के चित्र का धूप-दीप से पूजन करें, युग निर्माण संकल्प को एक पढ़े, दूसरे दुहरावें,कोई भजन गाया जाए, फिर किसी उत्तम पुस्तक का अंश अथवा अखण्ड ज्योति का पृष्ठ पढ़कर सब को सुनाया जाए। परिवार में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर भी इस सत्संग में विचार−विनिमय किया जाए। इस प्रकार सामूहिक उपासना एवं विचारगोष्ठी के रूप में यह सत्संग नियमित रूप से चला करे तो उसका प्रभाव सब लोगों के जीवन पर अवश्य पड़ेगा और घर में सद्भाव, सद्विचार ,सत्कर्म एवं सज्जनता की धर्मपरंपरा बनी रहेगी। सद्विचारों के अभाव में ही कुबुद्धि उपजती और पनपती है। यदि उसका उन्मूलन करने के लिए पारिवारिक सत्संग चलते रहें तो हर घर में धार्मिक वातावरण बना रहेगा और स्वर्गीय वातावरण दिखाई पड़ता रहेगा।

धर्ममैत्री का विस्तार

परिवार के क्षेत्र से बाहर भी यह सेवा कार्य बढ़ाया जाना चाहिए। घर से बाहर कम-से-कम 10 व्यक्ति ऐसे तलाश करने चाहिए, जो अपने परिचित होने के साथ−साथ धार्मिक मनोवृत्ति के भी हों। इनसे धर्ममैत्री बढ़ानी चाहिए। धर्ममैत्री का अर्थ है— धर्म वृद्धि के उद्देश्य से स्थापित की हुई मित्रता। जिस प्रकार सामान्य लोग अपने किसी लाभ या स्वार्थ के लिए मित्र बनाते या बढ़ाते हैं, उसी प्रकार हमें सदुद्देश्य के लिए धर्मभावनाओं की वृद्धि के लिए निःस्वार्थ मित्रता बढ़ानी चाहिए। यह कार्य अपनी अखण्ड ज्योति पढ़ाने के लिए किसी के घर देने जाने और फिर उसे वापिस लेने के लिए जाने के कार्यक्रम के साथ आरंभ करना चाहिए। एक महीने में दो बार इस बहाने जिनके घर जाया जाएगा, उनसे उस अंक में प्रकाशित किसी विशेष लेख के बारे में चर्चा भी होगी ही। इस प्रकार दस व्यक्तियों से बीस दिन धर्मचर्चा करने का अपने को अवसर मिलेगा और जो लोग अखण्ड ज्योति नियमित रूप से पढ़ते रहेंगे, उनकी विचारधारा में कुछ-न-कुछ परिवर्तन भी निश्चित रूप से होगा ही। जिन्हें अखण्ड ज्योति के स्वाध्याय और आपका सत्संग करने का अवसर हर महीने मिलता रहेगा, वे अवश्य ही कुछ-न-कुछ प्रभाव ग्रहण करते चलेंगे और उनके जीवन में निश्चित रूप से कुछ-न-कुछ परिवर्तन होता चलेगा। आगे चलकर जब छोटे−छोटे ट्रैक्ट प्रकाशित होंगे, तब उनके माध्यम से एक विचार विद्यालय भी बन सकेगा, जिसकी चर्चा जनवरी अंक के अंतिम लेख में की गई है। यह धर्ममैत्री विकसित होते-होते एक विशाल धर्मसंगठन के रूप में भी परिणत हो सकेगी। अखण्ड ज्योति परिवार के हजारों सदस्य अपने धर्म परिवार के साथ लाखों की संख्या में होंगे और फिर उनका विस्तार चक्रवृद्धि क्रम से होने लगा, तो देश के कोने−कोने में प्रत्येक भारतीय तक यह युग निर्माण विचारधारा पहुँचेगी और लाखों-करोड़ों व्यक्ति उस ढाँचे में ढलेंगे, जिसे लक्ष्य बनाकर हम लोग सांस्कृतिक एवं नैतिक पुनरुत्थान के महान अभियान में संलग्न हो रहे हैं।

रचनात्मक कार्यक्रम की प्रतिष्ठा

हम में से प्रत्येक व्यक्ति अब अपने जीवन को एक पारमार्थिक संस्था के रूप में ढालने का प्रयत्न करे। स्वयं उत्कृष्ट बनने और दूसरों को श्रेष्ठ बनाने का कार्य आत्मकल्याण का एकमात्र उपाय है। अब सभा सम्मेलनों का, मीटिंग-प्रस्तावों का जमाना चला गया, वह चीजें पुरानी और निकम्मी बन चुकी हैं। अब रचनात्मक कार्यों द्वारा ही किसी ठोस परिणाम की आशा की जा सकती है। सभ्य समाज की इमारत खड़ी करने के लिए स्वच्छ मन और स्वस्थ शरीर का ईंट-चूना चाहिए। युग निर्माण के यही आधार हैं।

अखण्ड ज्योति हम वर्षों से पढ़ते रहे हैं, अब उस पठन को कार्यरूप में परिणत होना चाहिए। हमारा कुछ समय उन कार्यों में लगना चाहिए, जो किसी सच्चे आध्यात्मवादी के लिए आवश्यक है। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के चारों कार्यक्रम हमारे जीवन में यदि स्थान प्राप्त करने लगें— यदि अखण्ड ज्योति परिवार के बीस हजार सदस्य अपने कार्यक्रम में इस प्रस्तुत योजना को स्थान देने लगें तो उसका परिणाम बहुत ही दूरगामी होगा और युग निर्माण का वह स्वप्न जो आज एक कल्पना जैसा दीखता है, निकट भविष्य में साकार होकर रहेगा। हम अपनी आँखों से सभ्य समाज का सुखद स्वर्गीय वातावरण देखकर शांति और संतोष प्राप्त कर सकेंगे।


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