दो में से एक का चुनाव

April 1962

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अध्यात्मवाद को व्यावहारिक जीवन में धारण करने के लिए हमें अपने दैनिक जीवन में कुछ समय इस कार्य के लिए भी लगाने को तत्पर होना पड़ेगा। आमतौर से हमारे दिन−रात के 24 घंटे शरीर तथा उससे संबंधित भौतिक समस्याओं को सुलझाने तथा उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने में लगते हैं। कुछ समय सोने, खाने, नहाने, मल-मूत्र त्यागने में लगता है, कुछ रोजी-रोटी कमाने में बीतता है, कुछ आराम, मनोरंजन गपशप में, कुछ उलझनों को सुलझाने में लग जाता है। यह कार्य इतने अधिक और इतने उलझे हुए होते हैं कि 24 घंटे का समय भी इनके लिए कम पड़ता है। यदि यह घंटे 2—4 की मात्रा में और भी बढ़ गए होते— एक दिन 24 घंटे की अपेक्षा 26 या 28 घंटे का होता, तो भी कम ही सिद्ध होते। इंद्रियों की वासनाएँ, तृप्त करने के समय बड़ी प्रिय लगती हैं, पर उस भोग के जो दूरवर्त्ती परिणाम होते हैं, वे इतनी उलझनें पैदा करते हैं कि मनुष्य के लिए वह सब एक भारी बंधन बन जाता है।

वासना की ठंडी आग

जिह्वा इंद्रिय विविध−विधि स्वादिष्ट भोजन, जल्दी−जल्दी अधिक मात्रा में खाने को लालायित रहती है। उसकी तृप्ति लोग करते भी हैं। पर इस असंयम के कारण जब पेट खराब होता है, तथा मन दूषित बनता है, नाना प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं, तब उस देह दुर्बलता की समस्या, शारीरिक कष्ट ही नहीं, आर्थिक कठिनाई, कार्यों में असफलता आदि की अगणित समस्याएँ पैदा कर देती है। जिह्वा इंद्रिय पर काबू प्राप्त करके जिसने अपने स्वास्थ्य को संभालकर रखा है, उसकी तुलना में, असंयमी की समस्याओं में जमीन-आसमान का अंतर होता है। इसी प्रकार कमेंद्रिय की वासना से प्रेरित होकर लोग अपने जीवनरस को इतना निचोड़ डालते हैं कि जवानी में ही बुढ़ापा आ घेरता है और मृत्यु का दिन— कालमृत्यु बनकर, छलांग मारकर सामने आ खड़ा होता है। जितने बच्चों का उत्तरदायित्व नहीं उठ सकता, उतने बच्चे उत्पन्न हो जाते हैं। फिर उनकी रोटी, बीमारी, पढ़ाई, शादी की समस्याएँ सामने आती हैं। कोई बच्चा अयोग्य, कोई कुपात्र निकला तो और नई उलझनें सामने आती हैं। पत्नी यदि सहचरी न हुई, दुर्गुणी निकली, तो वह भी रोज एक नई समस्या उत्पन्न कर देती है। शरीर की वासनाएँ यों अपने योग्य समय पर बड़ी प्रिय लगती हैं, पर उनका परिपाक इतना विषम होता है कि संभाले नहीं संभलता।

मृगतृष्णा में भटकना

तृष्णाओं से उत्पन्न समस्याओं का परिवार इससे भी बड़ा है। धन को ही लीजिए उसकी आवश्यकता इसलिए है कि अपनी तथा अपने आश्रित परिवार गुजर−बसर ठीक तरह होती चले। जिसे इतना प्राप्त होता रहता हो उसे संतोष करके उतने से काम चलाना चाहिए और शेष बचीं हुई शक्तियों को आत्मकल्याण में, परमार्थ के कार्यों में, लगाना चाहिए। पर ऐसा करता कौन है? हर किसी की हविस हजार से लाख की ओर, लाख से करोड़ की ओर दौड़ती है। जमा करना, जोड़ना और फूँकना−उड़ाना इतना प्रिय एवं स्वाभाविक लगता है कि इसकी पूर्ति के लिए निरंतर बेचैनी बनी रहती है। उस बेचैनी की पूर्ति के लिए नाना प्रकार के व्यापार आरंभ किए जाते हैं और फिर उनका जंजाल इतना बढ़ जाता है कि सोने और खाने की भी फुरसत नहीं मिलती। वाहवाही और नामबरी की भी एक ऐसी ही हविस है, जो आदमी को ऐसे ही उड़ाए फिरती है, जैसे आँधी के झोंके पत्तों को उड़ाए फिरते हैं। चुनावों में खड़े उम्मीदवारों में से अधिकांश इसी तृष्णा के बीमार होते हैं। विवाह शादियों में पैसे की होली फूँकी जाती है, इसमें बात बड़ी होने की तृष्णा काम करती रहती है। फैशन और ठाट−बाट पर लोग कितना अधिक खरच करते हैं। यह वाहवाही की तृष्णा का ही परिणाम है। जिनके संतान नहीं है, पुत्र नहीं है, वे कितने बिलखते हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है। आज जनसंख्या वृद्धि की समस्या जितनी विषम है, उसे देखते हुए संतान न उत्पन्न करना एक बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य है, पर कितने ही व्यक्ति संतान न होने की चिंता में ही डूबे रहते हैं। इस प्रकार अगणित तृष्णाएँ मनुष्य के प्राण खाती रहती हैं और उनकी पूर्ति के लिए इतने विशाल ताने−बाने बुनने पड़ते हैं कि जाले में फँसी हुई मकड़ी की तरह, जाल में जकड़े हुए पक्षी की तरह अपने को हम सब प्रकार विवश पाते हैं।

सीमित स्वाभाविक आवश्यकताएँ

आवश्यक वासनाओं और तृष्णाओं से भी पहले शारीरिक स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं। नित्यकर्म, आहार−विहार, रोजी−रोटी, परिवार−पोषण जैसे आवश्यक कार्यों की पूर्ति इस जमाने में इतनी विषम हो रही है कि उनकी पूर्ति में भी बहुत समय लगता है। फिर शत्रुओं द्वारा, मित्रों द्वारा कोई न कोई परेशानी भी समय−समय पर उत्पन्न की जाती रहती है। सामाजिक रीति-रिवाजों का बोझा रहता है और यदाकदा आकस्मिक आपत्तियाँ भी सामने आ खड़ी होती हैं। इनमें समय लगाना पड़ता है। अधिकांश लोग सचमुच ही बहुत व्यस्त रहते हैं, उनके पास समय का वास्तव में ही अभाव रहता है। आत्मकल्याण कार्यों के लिए जब वे यह कहते हैं कि “क्या करें हमें फुरसत नहीं मिलती” तो उनकी सच्चाई पर अविश्वास नहीं होता। वस्तुतः हमारी आज की समस्याओं का जो रूप बन गया है, वह ऐसा ही पेचीदा है कि उससे किसी मनुष्य का आध्यात्मिक कार्यों के लिए समय निकाल सकना असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य है।

क्षणभंगुर जीवन की घड़ियाँ

इतना होते हुए भी एक बात अत्यंत गंभीरता के साथ विचार करने की है कि यदि आज ही हमारा जीवन समाप्त हो जाए और मृत्यु सामने आ खड़ी हो तो फिर वे समस्याएँ, आकांक्षाएँ और चिंताएँ किस प्रकार सुलझेंगी, जो हमें अब निरंतर परेशान करती रहती हैं। जीवन को पानी के बुलबुले की तरह क्षणिक कहा गया है, सो असत्य नहीं है। भरी जवानी में, उठती उम्र के नौजवानों की लाशें रोज ही आँखों के आगे से गुजरती हैं, फूल से कोमल बच्चे देखते−देखते मुरझा जाते हैं, फिर हमारे ही बारे में क्या निश्चय है कि सौ वर्ष की आयु तक जीवित रहने का अवसर मिलेगा ही। दिन जिस तेजी में गुजरते हैं, उसे देखते हुए सौ वर्ष भी कुछ ही दिनों में बीत सकते हैं। हम लोग इतनी आयु पूरी कर चुके ,लगता है अभी कल-परसों तक बचपन के खेल खेलते थे, पर आज अधेड़ हो चले। यही क्रम कुछ दिन चलते रहने पर बुढ़ापा भी सामने आ पहुँचा और मृत्यु भी दूर नहीं है। जिस दिन इस शरीर को त्यागकर हमारा प्राण आकाश में विचरण कर रहा होगा, वह दिन अब बहुत दूर नहीं है। सोचने की बात है कि यदि वह दुःखद घड़ी कल ही सामने उपस्थित हो जाए तो जिन व्यस्तताओं में से घड़ी भर भी हमें परमार्थ के लिए समय नहीं मिलता, वे सुलझ जावेंगी या उलझी ही पड़ी रहेंगी?

शरीर और आत्मा के स्वार्थ

जीवन का वास्तविक स्वरूप न समझने के कारण ही हम इतनी परेशानियों में फँसते और समस्याओं में उलझते हैं। यह शरीर हमें एक औजार की और एक वाहन की तरह उपयोग करने के लिए मिला हुआ है। घोड़ा जिसके पास होता है, वह मालिक अपने इस वाहन की आवश्यक देखभाल और व्यवस्था तो करता है, पर उस घोड़े को सजाने संभालने में ही चौबीसों घंटे नहीं लगा रहता। उसे उस मंजिल का भी ध्यान रखना होता है, जिसके लिए यह घोड़ा खरीदा गया है। यदि कोई व्यक्ति अपनी मंजिल की बात भूल जाए और घोड़ा किस काम के लिए खरीदा गया है, यह सोचना छोड़कर दिन-रात उस जानवर की साज-संभाल में ही लगा रहे तो उसे उपहास का पात्र बनना पड़ेगा, मूर्ख कहलाना पड़ेगा और घोड़ा खरीदने की उसकी मूल योजना का उद्देश्य ही खटाई में पड़ जाएगा। हम सब आज ऐसे ही मूर्ख घुड़सवार का अभिनय कर रहे हैं। क्या हमारे लिए यही उचित है?

शरीर की उचित आवश्यकताएँ आसानी से पूरी हो सकती हैं। पेट भरने को रोटी, तन ढ़कने को कपड़ा तथा परिवार के उचित पोषण की सीमा तक जिसकी महत्वकांक्षाएँ सीमित हो जाएँ, उसे परमार्थ साधना के लिए पर्याप्त समय मिल सकता है। वासनाओं और तृष्णाओं पर यदि नियंत्रण प्राप्त कर लिया जाए, तो मस्तिष्क को काफी अवकाश आत्मचिंतन के लिए मिल सकता है। वासनाओं की,तृष्णाओं की महत्वकांक्षाएँ ही मनुष्य का सारा समय, सारा मस्तिष्क, सारा ओज जोंकों की तरह चूसती रहती हैं। यदि इन नागिनों से छुटकारा पाया जा सके तो फिर आदमी के पास आत्मकल्याण के लिए कुछ सोचने और कुछ करने को इतनी बड़ी मात्रा में समय बच सकता है कि वह अपना लक्ष्य पूर्ण कर ले। 84 लाख योनियों में लाखों वर्षों तक भ्रमण कराने वाली पीड़ाओं से छूट जाए और इस सुरदुर्लभ मानव शरीर का सदुपयोग करके भावी पीढ़ी के लिए प्रकाश दीप की तरह युगयुगांतरों तक यशस्वी बने रहने के लिए अमरता प्राप्त कर ले।

तुलनात्मक विचार करें

यदि शरीर की अमिट वासनाओं और मन की अनंत तृष्णाओं को एक स्वल्प मात्रा में एक लघु क्षण के लिए तृप्त करने में सारा जीवन लगा दिया जाए और फिर आग में घी डालते रहने पर न बुझने वाली ज्वाला की तरह अशांति ही हाथ लगी तो इस गोरखधंधे में उलझा रहना क्या बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य माना जाएगा? इसके स्थान पर यदि जीवनयात्रा के आवश्यक और उचित साधन जुटाने में सामान्य श्रम, समय और मनोबल लगाया गया होता और बचे हुए पुरुषार्थ को आत्मकल्याण एवं परमार्थ में लगाया गया होता तो उससे अनंतकाल तक मिलने वाला आनंद प्राप्त हुआ होता और इस धरती पर असंख्य प्राणियों ने उस जीवन में लाभ उठाया होता।

जीवन के यह दो ही उपयोग हो सकते हैं। एक तृष्णा और वासनाओं के जंजाल में जकड़ा हुआ इतना व्यस्त जीवन जिसमें आत्मकल्याण की साधना के लिए न इच्छा जगे और न अवकाश मिले। दूसरा वह जिसमें सीमित आकांक्षाओं के साथ संतोषपूर्वक समय गुजारते हुए कर्मयोगी की तरह संसार के प्रस्तुत उत्तरदायित्वों को शांतिपूर्वक निवाहते हुए परमार्थ का भी संपादन कर लिया जाए। निश्चित रूप से दूसरा जीवनक्रम अधिक दूरदर्शितापूर्ण एवं अधिक लाभदायक है। किंतु आश्चर्य और खेद की बात है कि आज हम सब उस जीवनक्रम को अपनाए हुए हैं, जिसमें अशांति, बर्बादी और पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ मिलने वाला नहीं है। तुलनात्मक दृष्टि से इन दोनों प्रकार के जीवनक्रमों पर विचार किया जाना चाहिए और सोचा जाना चाहिए कि लाखों-करोड़ों वर्ष बाद मिले हुए मानव जीवन का सदुपयोग करने की समस्या का हल करना आवश्यक है या नहीं? अन्य अनेक साधारण समस्याओं को हल करने में कितना सोच−विचार किया जाता है और उसका कारगर हल ढूँढ निकाला जाता है। कितने खेद की बात है कि करोड़ों-करोड़ रुपयों से अधिक मूल्यवान इस सुरदुर्लभ मानव जीवन के सदुपयोग का प्रश्न हम उपेक्षा के कूड़े में ही पटके रहते हैं। यह उपेक्षा एक दिन कितनी कष्टकारक,कितनी पश्चात्ताप भरी वेदना उत्पन्न करती है, इसका अनुमान यदि आज लगाया जाना संभव हो सके तो निश्चय ही इस भूल को आज ही सुधार लिया जाए।

फुरसत का अभाव कब तक?

आवश्यक कार्यों से सदा फुरसत मिल जाती है। जो काम कम महत्त्व के होते हैं, उन्हें पीछे के लिए छोड़कर मनुष्य आवश्यक कार्यों को हाथ में लिया करता है। यदि स्त्री या बच्चा सख्त बीमार हो तो कितने ही लाभ के काम को छोड़कर उनकी चिकित्सा तथा परिचर्या में लगना पड़ता है। व्यस्त आदमियों को भी अपने स्वजनों की जीवन-रक्षा के लिए बहुत समय लगाने में कुछ कठिनाई नहीं होती। जिस कार्य को मनुष्य आवश्यक और उपयोगी समझता है, उसके लिए व्यस्तता के अगणित कामों को पीछे के लिए धकेलकर उस महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले कार्य के लिए समय निकालता है। आत्मकल्याण के लिए यदि फुरसत नहीं मिलती तो इसका अर्थ केवल इतना ही है कि इस कार्य को सबसे व्यर्थ सबसे कम उपयोगी माना गया है और उपेक्षा के कूड़ा खाने में पटक दिया गया है। महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले कार्य सदा प्राथमिकता प्राप्त करते हैं, उनके लिए तुरंत समय निकालता है। समय का अभाव आमतौर से उन्हीं बातों के लिए रहता है, जिन्हें हम महत्त्वहीन,अनुपयोगी,बेकार की बात समझते है।

आत्मकल्याण को इतना उपेक्षणीय मानना, फुरसत न रहना और शरीर, मन को प्रसन्न करने के लिए चौबीसों घंटे लगे रहना, क्या यही नीति हमारे लिए उचित है? क्या इसी से हमारा जीवन-लक्ष्य सफल हो सकेगा? यह विचारणीय प्रश्न है। इसको सुलझाने में हम जितनी शीघ्रता करें, जितना सही निष्कर्ष निकाल लें, उतनी ही हमारी भलाई है।


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