विश्वमानव की अखंड अंतरात्मा

April 1962

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विश्वमानव की आत्मा एक और अखंड है। समस्त जड़-चेतन उसी के अंतर्गत अवस्थित हैं। इस आत्मा में अपनी एक दिव्य आत्मा, स्वर्गीय ज्योति जगमगाती है। अनेक मल आवरणों ने उसे ढक रखा है। यदि वह ज्योति इन आवरणों को चीरकर अपने शुद्ध स्वरूप में जगमगाने लगे तो उसका आलोक जहाँ भी पड़े, वहीं आनंद का परम आह्लादकारी दृश्य दिखाई दे सकता है। इस प्रकार की सीमा में आने वाली हर वस्तु स्वर्गीय बन सकती है। ऐसी बहुमूल्य ज्योति हमारे अंदर मौजूद है। स्वर्ग की सारी साज-सज्जा हमारे भीतर प्रस्तुत है, पर अविद्या के प्रतिरोधी तत्त्वों ने उसे भीतर ही अवरुद्ध कर रखा है। फलस्वरूप मानव प्राणी स्वयं नारकीय स्थिति में पड़ा हुआ है और वैसा ही नरकतुल्य वातावरण अपने चारों और बनाए बैठा है।

आत्मा स्वार्थ की संकुचित सीमा में अवरुद्ध होकर आज खंडित हो रही है। हर व्यक्ति अपने को दूसरों से अलग खंडित देखता है, फलस्वरूप चारों ओर संघर्ष और कलह का वातावरण उत्पन्न होता है।

वस्तुतः हम सब एक है, अखंड हैं, सब एकदूसरे से जुड़े हुए हैं, एक का सुख−दुःख दूसरे का सुख−दुःख हैं। उठना है तो सबको एक साथ उठना होगा ,सुख ढूँढना है तो सबको उसे बाँटना होगा। खंडित व्यक्ति स्वार्थ की संकुचित सीमा में रहकर अपने शरीर के लिए कुछ भी—कितना ही इकट्ठा क्यों न कर ले,पर इससे उसे कोई चैन न मिलेगा। जब तक हम 'अपने को सब में और सबको अपने में” न देखने लगेंगे, तब तक मानव अपनी महानता से— मानवता से वंचित ही बना रहेगा।

एकदूसरे के प्रति प्रेम, आत्मीयता, ममता, स्नेह, उदारता, क्षमा, करुणा की दृष्टि से देखें और जो कुछ अपने पास है, उसका लाभ दूसरों को देने के लिए प्रस्तुत रहें, तभी मनुष्य की मनुष्यता सार्थक हो सकती है। आध्यात्मिकता का संदेश है कि हम में से हर कोई अपने भीतर दृष्टि डाले, अंतर्मुखी होकर देखे कि उसके भीतर कितनी प्रचुर मात्रा में दैवी संपत्ति भरी पड़ी है। यदि वह उसे जान ले, देख ले और उसका सदुपयोग करने लगे तो मरने के बाद नहीं— इसी जीवन में— आज ही स्वर्ग का आनंद ले सकता है। यह कथा कल्पना नहीं, वरन सुनिश्चित तथ्य है कि अपने आपको जान लेने पर मनुष्य सब कुछ जान सकता है। अपने आपको सुधार लेने पर संसार की हर बुराई सुधर सकती है। अपने को बना लेने पर बाहर के जगत में सब कुछ बन सकता है, अपने को विकसित कर लेने पर बाहर की सारी गिरावट उत्कृष्टता में परिणत हो सकती है। व्यक्ति महान बने, तथा सारी वसुधा महानता से ओत−प्रोत हो, यह मिशन लेकर अखण्ड ज्योति जन्मी है। जब तक वह जलेगी, तब तक इसी प्रयत्न में लगी रहेगी।

दूसरे हमसे भिन्न नहीं, हम दूसरों से भिन्न नहीं, इसी मान्यता में अध्यात्मवाद का सारा रहस्य सन्निहित है। दूसरों की पीड़ा जब पीड़ा लगने लगे, दूसरों को दुखी देखकर जब अपने अंदर करुणा उपजे, दूसरों को सुखी और समृद्ध देखकर जब अपने भीतर संतोष और हर्ष की लहर लहराए, तब समझना चाहिए कि हम आध्यात्मिकता के वास्तविक स्वरूप को पहचानने और ग्रहण करने की स्थिति में पहुँच रहे हैं। जब तब व्यक्ति अपने को समाज से भिन्न समझता है, लोकहित से अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को अधिक महत्त्व देता है, तब तक वह मानवीय आदर्शों से पतित ही माना जाएगा।

आत्मा अखंड है। हम सब एक ही नाव के यात्री, एक ही मंजिल के राही हैं, एक ही डाल पर रहने वाले पक्षी, एक ही बिल में रहने वाले चींटी-चींटे, परस्पर एक ही सूत्र में बँधे हुए हैं। सबका सुख−दुःख एक है। यदि संसार में पाप बढ़ेगा, तो उसके बुरे प्रतिफलों से पुण्यात्माओं को भी कष्ट सहना पड़ेगा। पेड़ गिर पड़े तो उस पर रहने वाले सभी पक्षी आश्रयविहीन होंगे, बिल में पानी भर जावे तो उसमें रहने वाले सभी कीड़े संकट में पड़ेंगे। मानव जाति का भाग्य एक ही लिपि में लिखा गया है। यदि उत्थान होना है, सुख मिलना है तो वह सामूहिक ही हो सकता है। चार लोग अमीर रहना चाहें और सब गरीबी भुगतें, यह स्थिति देर तक नहीं रह सकती । चाहे साम्यवाद हो, चाहे अध्यात्मवाद, दोनों ही दृष्टिकोणों से यह गर्हित माना जाएगा और इसे बदलने का प्रयत्न किया जाएगा।

आत्मा एक व्यापक तत्त्व है, वह अनंत और अखंड है। पानी की हर लहर पर एक अलग सूरज चमकता दीखता है, पर वस्तुतः असंख्य सूर्य कहाँ होते हैं? एक ही सूर्य की आभा तो अगणित लहरों पर स्वतंत्र प्रतिबिंब जैसी दीखती है। आत्मा भी एक है, उसकी अखंड ज्योति एक है। अखंड ज्योति एक है। हम लहरों पर चमकने वाले प्रतिबिंबों की भाँति अलग भले ही दिखाई दें, पर वस्तुतः हम सब एक हैं। एक ही ज्वाला की अगणित चिनगारियाँ विभिन्न शरीरों में जलती दीखती हैं, एक ही बिजलीघर की प्रचंड धारा अनेक बल्बों में चमकती है, पर धारा का उद्गम एक है।

इस एकता को जितनी जल्दी हम समझ लें, उतना ही उत्तम है। वेदांत का अद्वैत सिद्धांत ही सत्य है। द्वैत मिथ्या है। द्वैत को मिटाकर अद्वैत की प्राप्ति के लिए ही अध्यात्म शास्त्र और साधना विज्ञान का आविर्भाव हुआ है। जीव जब अपनी सत्ता को भुलाकर के ईश्वर में लीन हो जाता है, तब समाधि का, मुक्ति का सुख मिलता है। लौकिक जीवन में भी सुख-शांति का यही मार्ग है। व्यक्ति अपने संकुचित स्वार्थों की शैली में सोचना छोड़कर समाज की, समूह की बात सोचने लगे तो सर्वांगीण मुक्ति का वातावरण विनिर्मित हो सकता है। राजनैतिक स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता आदि स्वतंत्रता के विविध आंदोलन चलते रहते हैं। आत्मा स्वतंत्र है, वह बंधन में नहीं रहना चाहती। जब छोटी−सी चिड़िया तक पिंजड़े में बंद रहने की पराधीनता स्वीकार नहीं करती और अवसर मिलते ही उन्मुक्त आकाश में उड़ जाती है तो आत्मा ही क्यों पराधीन रहे? स्वाधीनता की उसकी भूख स्वाभाविक है। यह भूख आत्मिक स्वतंत्रता में ही जाकर पूर्ण होती है। व्यक्ति छोटे-से शरीर के लिए, छोटे-से कुटुंब के लिए ही सब कुछ सोचे और सारे संसार की कठिनाई की ओर से आँखें बंद कर ले, तो यह संकीर्णता, सीमाबद्धता, स्वार्थपरता ही कही जाएगी। इसी भवबंधन में बंधा हुआ तो प्राणी जन्म-मरण की फाँसी में झूलता रहता है।

संकुचित स्वार्थों की सीमा में अवरुद्ध व्यक्ति तुच्छ है। जो अपनी ही बात सोचता है, अपने ही दुःख से दुखी और अपने ही सुख से सुखी है, वह अभागा प्राणी पानी की एक बूँद की तरह है, जिसका अस्तित्व उपहासास्पद ही रहता है। समुद्र भी महान है और उसकी हर बूँद भी धन्य है। सूर्य अपनी ज्योति को अपने घर में ही प्रकाशित नहीं रहने देता, वरन उसकी किरणें लोक-लोकांतरों तक निस्वार्थ भाव से बिखरी रहती हैं। इसी से सविता को देवता कहते हैं। वे मनुष्य भी देवता ही हैं, जो ससीमता के बंधन तोड़कर असीम बनने जा रहे हैं, जिनने स्वार्थ का परमार्थ में परिपात करने का निश्चय कर लिया है।

इस संसार का भाग्य और भविष्य एक ही नाव में रखा हुआ है। विज्ञान की प्रगति ने इस एकता को और भी अधिक घनिष्ठ कर दिया है; इसलिए हमें सुख और दुःख की, लाभ और हानि की, उत्थान और पतन की, जीवन और मरण की समस्या पर व्यक्ति की दृष्टि से नहीं, समूह की, समाज की, संसार की दृष्टि से विचार करना चाहिए। जिसमें सबकी भलाई है, उसी में अपनी भलाई हो सकती है, जिससे सबका सुख और संतोष है, उसी में हमें भी सुख-शांति मिल सकती है। अपने को सुखी बनाने की इच्छा करने वाले प्रत्येक को विस्तृत दृष्टि से देखना चाहिए और आत्मा की अखंड ज्योति को एक सीमित क्षेत्र तक संकुचित न रखकर विस्तृत-विशाल क्षेत्र में फैलने देना चाहिए। सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है।


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