सिख धर्म के गृहस्थ गुरु

April 1962

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किसी व्यक्ति के उच्च आध्यात्मिक भूमिका तक पहुँचने में, जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने में गृहस्थ धर्म बाधक नहीं है। गृही और विरक्त दोनों ही स्थिति में रहकर ईश्वर उपासना और आध्यात्मिक साधना की जा सकती है। इन दोनों मार्गों में से जिसे जो अनुकूल जँचा है, उसे उसने स्वीकार किया है। प्राचीनकाल में अनेकों ऋषि गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए साधनासंलग्न रहे और बहुतों ने एकाकी जीवन को सुविधाजनक समझकर ब्रह्मचारी या संन्यासी रहकर आत्मिक प्रगति की।

आंतरिक विकास का संबंध भावना की उत्कृष्टता से है। सत्यनिष्ठा, सदाचार, दया, निष्पृहता, अनासक्ति, निरहंकारिता, ईश्वर-उपासना, परमार्थ भावना आदि सद्वृत्तियों को अपनाने से किसी भी वर्ण आश्रम में रहते हुए मनुष्य लक्ष्य तक पहुँच सकता है। इनके अभाव में वेश धारण कर लेने या घर त्याग देने, अविवाहित रहने जैसी बाह्य-प्रक्रियाओं के ही आधार पर कोई लक्ष्य प्राप्त करना चाहें तो संभव नहीं।

संतों के कई संप्रदाय ऐसे हैं, जिनमें पत्नी न रखने का विधान है, पर कई संप्रदाय ऐसे भी हैं, जिनमें गृहस्थ जीवन पर कोई प्रतिबंध नहीं है। सिख धर्म भी उन्हीं सम्प्रदायों में से एक है। जिसके गुरुओं और संतों ने गृहस्थ धर्म में रहकर आत्मकल्याण और लोकसेवा का महत्त्वपूर्ण उदाहरण उपस्थित किया है।

सिख धर्म के संस्थापक और आदिगुरु नानक का विवाह 19 वर्ष की आयु में हुआ। गृहस्थ होने पर भी वे विरक्त की भाँति भावनाएँ रखे रहे। उनके दो पुत्र हुए। प्रथम उदासोमत के प्रवर्त्तक श्री चंद जी और दूसरे लक्ष्मी दास।

दूसरे गुरु अंगद देव भी गृहस्थ थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम जीवी था। जिससे चार संतान हुई, दो पुत्र तथा दो कन्याएँ।

तीसरे गुरु अमर दास जी हुए हैं, उनकी धर्मपत्नी का नाम राम कुँवर था। उनकी भी चार संतानें थीं। दो कन्याएँ, दो पुत्र।

चौथे गुरु राम दास जी का विवाह गुरु अमर दास जी की कन्या भानी कुँवर से हुआ। उनके तीन पुत्र हुए, पृथ्वी चंद्र, महादेव और अर्जुन देव। सबसे छोटे पुत्र अर्जुन देव को उन्होंने अपनी गद्दी सौंपी।

पाँचवें गुरु अर्जुन देव जी के दो विवाह हुए। पहला मोड़ गाँव के चंदन दास खत्री की कन्या राम देवी जी के साथ, दूसरा कृष्णा चंद की पुत्री गंगा देवी के साथ। प्रथम स्त्री से कोई संतान नहीं थी। दूसरी से भी कई वर्षों तक संतान नहीं हुई। अंत में गंगा देवी के गर्भ से एक बालक जन्मा— हरगोविंद सिंह, सिख धर्म के वे ही छठवे गुरु बने।

छठवे गुरु हरगोविंद जी के तीन विवाह हुए। पहला उल्ले गाँव में नारायण दास की पुत्री दामोदरी के साथ। दूसरा अमृतसर निवासी हरि चंद की पुत्री नानकी के साथ। तीसरा मंदियाली के दयाराम की पुत्री महादेवी के साथ। प्रथम पत्नी से पुत्र गुरुदित्ता और कन्या बीवी वीरोजीथी। द्वितिय पत्नी से तेग बहादुर और तीसरी पत्नी से तीन पुत्र सूरज मल, हरराम और अटल जी जन्मे। इस प्रकार गुरु हरगोविंद जी की तीन पत्नियों से पाँच पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। इसके साथ ही गुरुजी के एक और विवाह का भी पता लगता है। एक मुसलमान काजी की कन्या कौल्ला उनके पास किसी प्रकार आ गई। वह बड़ी रूपवती और बुद्धिमती थी। गुरु साहब उस पर बहुत अनुराग रखते थे। गुरु साहब ने उसके नाम पर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के पास एक सरोवर बनवा दिया और उसका नाम कौलसर रखा। गुरु हरगोविंद जी अपने पौत्र— गुरुदत्त के पुत्र हरराय से विशेष प्रेम रखते थे। अंततः उन्होंने उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी बनाया।

सातवें गुरु हरराय का विवाह सं॰ 1704 में दयाराम की पुत्री कृष्ण कौर से हुआ। उससे दो पुत्र हुए, रामराय और हरकिशन। अपने छोटे पुत्र हरकिशन को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। तब वे केवल पाँच वर्ष के थे। गुरुगद्दी प्राप्त करने के तीन वर्ष बाद ही आठ वर्ष की आयु में वे स्वर्गवासी हो गए; इसलिये उनका विवाह न हो सका। इस प्रकार आठवें गुरु हरकिशन जी अविवाहित ही स्वर्गवासी हुए।

नौवें गुरु तेगबहादुर जी का विवाह सं॰ 1686 में लाल चंद की पुत्री गुजरी जी से हुआ। उनके पुत्र गुरु गोविंद सिंह सं॰ 1713 में जन्मे।

दसवें गुरु गोविंद सिंह की दो पत्नियाँ थीं। उनका बड़ा पुत्र अजीत सिंह मुसलमान आक्रमणकारियों के साथ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। दूसरे पुत्र जुझार सिंह ने भी इसी प्रकार वीरगति प्राप्त की। दो छोटे पुत्र जोरावर सिंह और फतेह सिंह मुसलमानों द्वारा पकड़े गए और उन्हें जीवित ही दीवार में चिनवाकर मारा गया। इस प्रकार दसवें गुरु गोविंद सिंह जी के चारों पुत्र धर्म के लिए बलिदान हो गए।

इस प्रकार दसों गुरुओं की परंपरा गृहस्थ धर्म की है। यह उचित एवं युगधर्म के सर्वथा अनुकूल भी है। विरक्त जीवन जनसमाज से सर्वथा दूर जंगलों में एकाकी रहने वाले महात्माओं के लिए अनुकूल हो सकता है, पर यदि वे जनसंपर्क में आते हैं, तो उनके चारित्रिक पतन की भारी संभावना रहती है, जैसी कि आजकल आमतौर से देखी जाती है। आत्मकल्याण के जो पथिक जनसंपर्क से दूर नहीं रह सकते हैं, उनके लिए गृहस्थ धर्म ही उपयुक्त है। इस दृष्टि से सिख गुरुओं ने एक अनुकरणीय परंपरा की स्थापना की है।


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