हम भी सत्य को ही क्यों न अपनाएँ?

April 1962

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जिन्होंने जीवन में आध्यात्मिक प्रगति की है, उनने सत्य का सहारा लिया है। सत्य की उपेक्षा करके कोई आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सका। इस पथ के पथिकों ने अपनी यात्रा में सत्य की प्रमुखता को ही सफलता का कारण बताया है।

सत्य से भरी हुई वाणी ही अमृतवाणी है। सत्य बोलना ही सनातन धर्म है। संतजन सत्य पर सदा दृढ़ रहते हैं। कोई साधक अन्य समस्त साधनाओं को छोड़ दे और केवल एक सत्य को ही पकड़े रहे तो वह संसारसागर से पार हो सकता है।

कोई शत्रु अपनी जितनी हानि कर सकता है, उससे कहीं अधिक हानि असत्य मार्ग का अवलंबन करने वाला मन अपनी हानि कर लेता है। जो असत्य बोलता है, वह कौन-सा पाप नहीं कर सकता।

नरकगामी वे होते हैं, जो झूठ बोलते हैं और वे भी जो वचन देकर विश्वासघात करते हैं। जिसने झूठ नहीं छोड़ा, उसने कोई पाप नहीं छोड़ा। असत्यवादी की साधुता उलटे रखे हुए घड़े के समान है, जिस पर ज्ञान और प्रेम की वर्षा का पानी एक बूँद भी नहीं ठहरता।

जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर का कथन है—“सदा सावधान और प्रमादरहित होकर सत्य का पालन करें। संसार के सभी सत्पुरुषों ने असत्य को निंदित ठहराया है। क्रोध में, भय में, हास्य-विनोद में भी असत्य भरे पापवचन न बोलें। खूब सोच-विचारकर परिमित ही बोलना चाहिये ताकि असत्य का उच्चारण न हो। आत्मकल्याण के इच्छुक साधक को परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट, वाचालतारहित और किसी को पीड़ा न पहुँचने वाली सत्य से युक्त मधुर वाणी ही बोलनी चाहिए।”

श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे—“कलियुग की तपस्या सत्य भाषण है। सत्य के बल से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है। असत्य को अपनाने वाले मनुष्य का धीरे−धीरे सर्वनाश ही हो जाता है।”

स्वामी रामतीर्थ का वचन है:—‘चाहे सारी दुनियाँ भी तुम्हारे विरुद्ध होती हो, तो भी तुम सत्य पर आरुढ़ रहो। सत्य बहुत ही मूल्यवान है, उसे प्राप्त कर सको तो ब्रह्म की प्राप्ति सहज है। सत्य के लिए यदि अभावग्रस्त जीवन अपनाना पड़े, सांसारिक कामनाओं और महत्वाकांक्षाओं से विमुख होना पड़े, कुटुंबी और रिश्तेदारों को नमस्कार करना पड़े, यहाँ तक कि चिरपोषित अंधविश्वासों को भी छोड़ना पड़े, तो उन्हें छोड़ देना ही उचित है। यह सत्य के साक्षात्कार का मूल्य है। जब तक उस मूल्य को न चुकाया जाएगा, सत्य की उपलब्धि न हो सकेगी।’

योगी अरविंद की अनुमति है—“सच्चाई समस्त सच्ची प्राप्तियों का मूल आधार है। यही साधन, मार्ग और लक्ष्य है। सच्चे बनने पर तुम दिव्य जीवन से संबंधित हो सकोगे।”

युगपुरुष महात्मा गांधी ने कहा है—“परमेश्वर का सच्चा नाम ‘सत्’ अर्थात् सत्य है; इसलिए परमेश्वर सत्य है, यह कहने की अपेक्षा सत्य ही परमेश्वर है, यह कहना अधिक अच्छा है। सत्य की आराधना के लिए ही हमारा अस्तित्व है, इसी के लिए हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति और इसी के लिए हमारा श्वासोच्छास होना चाहिए। साधारणतया सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र समझा जाता है, परंतु विचार में, वाणी में और आचार में सत्य का होना ही सत्य है। इस सत्य को पूर्णतया समझने वाले के लिए जगत में और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। सत्य को परमेश्वर मानना मेरे लिए अमूल्य धन रहा है। मैं चाहता हूँ कि यही हम में से सबके लिए हो।”

आर्य समाज के संस्थापक श्री स्वामी दयानंद सरस्वती ने लिखा है—“सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग के लिए सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचारकर करने चाहिए। जो भक्त उपासना का अभ्यास करना चाहे, उसके लिए उचित है कि वह किसी से वैर न रखे। सबसे प्रीति करे। सत्य बोले। मिथ्या कभी न बोले। चोरी न करे। सत्य का व्यवहार करे। जितेंद्रिय हो, लंपट न हो। निरभिमान हो, राग−द्वेष छोड़ भीतर-बाहर से पवित्र रहे।”

भक्त-संतों ने भी ईश्वर उपासना में सत्य को ही प्रारंभिक एवं आवश्यक साधन माना है।

कबीर कहते हैं—

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हृदय साँच है, ताके हृदय आप।

हरि का मिलन सहज है, जो दिल साँचा होय।

साँई के दरबार की, राह न रोके कोय॥

संत दादू दयाल का वचन है—

सीधा मारग साँच का, साँचा होय सो जाए।

झूठे को कुछ ना मिले, दादू दिया बताए॥

दया धर्म का रुखड़ा, सत से बढ़ता जाए।

संतों को फूलै-फलै, वही अमर फल खाए॥

भक्त पलटूदास की उक्ति है—

पलटू पकड़े साँच को, झूँठे से रह दूर।

दिल में आवे साँच तो, साहब हाल हजूर॥

रामायण में सत्य की महत्ता प्रकट करने वाली अनेक चौपाइयाँ हैं—

(1) सत्य मूल सब सुकृत सुहाए।

      वेद-पुराण विदित मनु गाए॥

(2) नहिं असत्य सम पातक पुंजा।

    गिरि सम होंहि कि कोटिक गुंजा॥

(3) तनु तिय तनय धामु धनु, धरनी।

     सत्यसंथ कहुँ तृन सम बरनी॥

यदि अपने पैर सत्य को अपनाने में लड़खड़ाते हों, साहस न होता हो, आंतरिक दुर्बलताएँ हताश करती हों, तो भी निराश नहीं होना चाहिए। समस्त बलों के केंद्र उस परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह सत्य का व्रतपालन करने से हमें साहस, बल, धैर्य, निष्ठा और इस मार्ग में जो कष्ट आवें, उन्हें सहन करने की क्षमता प्रदान करे। वेद में एक ऐसी ही प्रार्थना आती है—

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयम्।

तन्मे राध्यतां इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि॥

                                                                                                                                                                                      —यजु. 1/5

हे व्रतपति परमेश्वर, मैं व्रत का पालन करने की अभिलाषा करता हूँ। मुझे वह शक्ति दो, जिससे व्रत को निभा सकूँ। मैं असत्य से सत्य की ओर बढ़ना चाहता हूँ।

सच्चे मन से सदुद्देश्य के लिए की गई प्रार्थना को प्रभु सुनते हैं और तदनुकूल बल और प्रकाश भी प्रदान करते हैं। यदि हमारी निष्ठा सच्ची होगी तो परमेश्वर वह बल हमें भी अवश्य प्रदान करेंगे।


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