एक लक्ष्य के दो कार्यक्रम

April 1962

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आत्मकल्याण और युग निर्माण के जिन दो कार्यक्रमों को लेकर हम लोग अग्रसर हुए हैं, वे देखने से दो प्रतीत होते हुए भी वस्तुतः एक ही हैं। आत्मकल्याण का कार्यक्रम ऐसा है, जिसमें न केवल अपनी आत्मिक प्रगति होती है, न केवल बंधनमुक्ति से सद्गति की समस्या हल होती है, वरन उससे यह लौकिक जीवन भी सुख-शांति से, समृद्धि से, संतोष और सम्मान से परिपूर्ण होता है। चूँकि हर व्यक्ति दूसरे अनेकों के साथ सामाजिक, आर्थिक, आत्मिक कारणों से संबंधित होता है, इसलिए उसकी हर भली-बुरी प्रक्रिया का असर भी अन्य अनेकों पर पड़ता है। एक व्यक्ति यदि आतंकवादी, आततायी उपद्रव कर बैठे तो उससे उस अकेले की ही नहीं, उस घटना से संबंधित अन्य अनेकों व्यक्तियों की शांति नष्ट होती है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति यदि अपने जीवन को धार्मिक, आदर्शवादी, सन्मार्गगामी, श्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट बना लेता है तो उसका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रभाव दूसरे अनेकों पर पड़ता है। इस प्रकार आत्मनिर्माण के साथ−साथ युग निर्माण का कार्य भी अपने आप चल पड़ता है।

दुनियाँ कैसे बदलेगी?

हम दुनियाँ को बदलने की बात सोचते रहते हैं, चाहते हैं कि संसार में से बुराई घटे और अच्छाई फैले। इस कार्य की पूर्ति के लिए आमतौर से सभा-सम्मेलन करने की, प्रवचन-व्याख्यान करने की, लेख लिखने और अखबार छापने की बात सोची जाती है, कुछ प्रचारात्मक, प्रदर्शनात्मक कार्यक्रम भी बनते हैं, प्रतियोगिताएँ, जुलूस, प्रदर्शिनी आदि के आयोजन होते हैं और बात इतने तक ही समाप्त हो जाती है। यह कार्यक्रम बहुत दिन से चलते आ रहे हैं, इनका थोड़ा−सा असर भी होता है, पर चिर-प्रयत्नों के बावजूद वह लक्ष्य अभी भी बहुत दूर दिखाई पड़ता है, जिसके लिए यह सब किया गया होता है। कारण एक ही है कि लोगों की पैनी दृष्टि इन सुधारात्मक काम करने वालों के व्यक्तिगत जीवन पर जा टिकती है। वे यह जानना चाहते हैं कि यदि यह प्रचार वस्तुतः अच्छा और सच्चा है तो इसके संयोजकों ने, प्रचारकों ने अपने जीवन में उतारा ही होगा। लाभदायक उत्तम बात का लाभ कोई स्वयं ही अपनाने के लाभ से वंचित क्यों रहेगा? जनता की यह कसौटी सर्वथा उचित भी है। धर्म और सत्य के मार्ग पर चलना कष्टसाध्य है, उसमें लाभ तो है, पर तुरंत नहीं, विलंब से वह मिलता है। इसके विपरीत अनैतिक कार्यों का अंतिम परिणाम दुःखद भले ही हो, तुरंत तो लाभ रहता ही है। इस तुरंत के लाभ को छोड़कर तुरंत कष्टसाध्य प्रक्रिया में पड़ने के लिए लोग तभी तैयार हो सकते हैं, जब उन्हें यह विश्वास हो जाए कि धर्मप्रचारक लोग उन्हें बहका तो नहीं रहे हैं। यदि उन्हें संदेह हो गया कि धर्मप्रचार का आडंबर सस्ती वाहवाही लूटने और किसी स्वार्थ-साधन के लिए किया जा रहा है तो लोग धर्म-कर्म की बातों को सुन तो लेते हैं, पर उन्हें अपनाने के लिए तैयार नहीं होते। प्रचार की बड़ी−बड़ी स्कीमें इसी चट्टान से टकराकर टूट जाती हैं। आज अगणित सुधारवादी संस्थाऐं प्रचुर जनशक्ति और धनशक्ति लगाकर मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाने का आंदोलन कर रही हैं, पर हम देखते हैं कि वह सब निष्फल ही जा रहा है, स्थिति बद से बदतर होती चली जा रही है।

सक्रिय शिक्षा की सार्थकता

बुराइयाँ दिन−दिन बढ़ती चली जा रही हैं। इसका कारण एक ही है कि बुरे लोग अपने व्यावहारिक जीवन में उन बुराइयों को धारण कर लोगों पर यह प्रभाव डालते हैं कि इन कार्यों में उनकी पूरी और पक्की निष्ठा है। निष्ठा की भावना ही दूसरों को प्रभावित करती है। बुराइयाँ प्रचार की, विस्तार की, शिक्षण की, आंदोलन की कोई योजना कहीं से भी प्रसारित नहीं हो रही है, न उनके संवर्द्धन के लिए कोई संस्था-संगठन ही काम करता है, फिर भी पाप−प्रचार का इतनी तीव्रता से बढ़ने का कारण जहाँ मनुष्य की पतनोन्मुख स्वतः प्रवृत्ति है, वहाँ आस−पास के वातावरण में लोगों को वही सब करते हुए उसका प्रभाव भी एक बड़ा महत्त्वपूर्ण कारण है। डडडड को बढ़ाने के लिए दुहरा प्रयत्न आवश्यक है और मन की पतनोन्मुख पशु-प्रवृत्ति को आत्मोत्कर्ष की ओर अभिमुख करने के लिए स्वाध्याय और सत्संग की व्यवस्था रहनी चाहिए, दूसरी ओर ऐसे अनुकरणीय आदर्श भी सामने रहने चाहिए, जिन्हें देखकर लोग प्रकाश ग्रहण करें और उनके पदचिह्नों पर चलते हुए अपना लक्ष्य एवं कार्यक्रम निर्धारित करें।

अध्यात्म के चार आधार

आत्मकल्याण का लक्ष्य पूरा करने के लिए आत्मनिर्माण का कार्यक्रम बनाना होगा; इसलिए भजन आवश्यक है। उपासना को पूरा स्थान देना होगा, पर केवल उसी तक सीमित रह जाने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। (1) साधना (2) स्वाध्याय (3) संयम (4) सेवा, यह चार कार्य मिलने से एक सर्वतोमुखी सर्वांगपूर्ण अध्यात्मवाद बनता है। जिस प्रकार दोनों हाथ और दोनों पैर ठीक होने से हमारी शारीरिक क्षमता ठीक कार्य करती है, उसी प्रकार इन चारों साधनों की समस्वरता से ही कोई व्यक्ति स्वस्थ अध्यात्मवादी बन सकता है। जिस व्यक्ति के दो हाथ और दो पैर के चार अंगों में से यदि एक या दो ही अवयव काम करें, शेष अपंग या नष्ट हो जाएँ तो वह अपने जीवन को सक्षम कैसे बनाएँ रख सकेगा? जिनका अध्यात्मवाद केवल थोड़े से भजन तक सीमित रह गया है, स्वाध्याय, संयम और सेवा के लिए उनके जीवन में कोई स्थान नहीं, वे वैसे ही अपंग हैं जैसे केवल एक हाथ या केवल एक पैर वाला व्यक्ति होता है।

जीवन को बदला और ढाला जाए?

हमें यह भली−भाँति समझ लेना चाहिए कि जीवन का उद्देश्य जीवन की सारी प्रक्रिया को अध्यात्मवाद के अनुरूप ढाल लेने की प्रेरणा को प्राप्त करना है। यदि वह प्रेरणा प्राप्त नहीं हो सकी हो तो समझना चाहिए कि भजन में कहीं कमी है। मिर्च खाते ही जीभ में तीखापन लगता है, आग को छूते ही गरमी अनुभव होती है, नशा करते ही खुमारी आती है, फिर भजन, यदि सच्चा है तो उसकी प्रेरणा जीवन को आदर्शवाद बनाने के लिए क्यों सामने उपस्थित न होगी? भजन वह है जो तुरंत उच्चकोटि की विचारधारा में रमण करने की छटपटाहट अनुभव कराता है। स्वाध्याय और सत्संग की भूख जिसे जगी नहीं तो समझना चाहिए कि इसे अभी सच्चा भजन करने का अवसर नहीं मिला। इसी प्रकार जो स्वाध्याय करने लगा हो ,उसे अपनी वासनाओं और तृष्णाओं पर संयम करने की लगन लगेगी ही। वह अपने जीवन को अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित, अनुपयुक्त रीति से व्यतीत नहीं कर सकता। शरीर की आवश्यकताएँ पूरी करने की तरह उसे आत्मा की आवश्यकताएँ पूर्ण करने का महत्त्व समझ पड़ेगा और वह अपना सर्वस्व लौकिक लाभों के लिए ही उत्सर्ग न कर सकेगा, वरन पारलौकिक हित-साधन के लिए अपनी शक्ति का एक अच्छा भाग लगाना आरंभ करेगा। जिसकी बुद्धि शरीर को ही सब कुछ नहीं मान बैठी है, जिसने आत्मा के अस्तित्व और उसके हित को भी समझना आरंभ कर दिया है, वह स्वार्थ-साधन में ही कैसे लगा रहेगा? सेवा के लिए उसके जीवन में कुछ भी स्थान न हो, ऐसा कैसे बन पड़ेगा?

भजन शब्द संस्कृत की ‘भज’ धातु से बनता है, जिसका अर्थ होता है ‘सेवा’। जिसने भजन का मार्ग अपनाया, उसके हर कदम पर सेवा की प्रक्रिया सामने आवेगी। स्वाध्याय और संयम के परिणामस्वरूप अंतःकरण का जिस प्रकार परिपाक होना है, उसमें ‘सेवा’ अनिवार्य है। हर सच्चा अध्यात्मवादी सेवाभावी अवश्य होगा। जिसे सेवा में रुचि नहीं, वह भजनानंदी हो सकता है, अध्यात्मवादी नहीं। आज एकांगी संकुचित दृष्टि वाले, भजनानंदी बहुत हैं, पर सर्वांगपूर्ण अध्यात्मवादी बनने का प्रयत्न कोई विरले ही करते हैं। यह मार्ग कष्टसाध्य है। लोग सस्ते नुस्खे ढूँढने लगे हैं। उनको यह भ्रम हो गया है कि घंटा-आधा घंटा कुछ भजन पूजन करने मात्र से भगवान प्रसन्न होकर हमारा लोक-परलोक संभाल देगा। यदि इतना ही सस्ता जीवन-लक्ष्य रहा होता तो प्राचीनकाल में किसी ऋषि-मुनि ने, महात्मा-धर्मात्मा ने त्याग और तप का कष्टसाध्य मार्ग न अपनाया होता। वे हम से कम चतुर न थे। यदि सस्ते नुस्खे जीवनमुक्ति की, आत्मकल्याण की समस्या को हल करने में सफल रहे होते तो कोई भी समझदार आदमी आध्यात्मिक आदर्शों का जीवन बनाने की कष्टसाध्य प्रक्रिया को अपनाने के लिए कदापि तैयार न हुआ होता।

एक ही सुनिश्चित मार्ग

आत्मकल्याण का उद्देश्य केवल वे ही पूर्ण कर सकते हैं, जो अपने जीवन में अध्यात्मवाद की स्थापना करने के लिए उसी ढाँचे में अपने को ढालने के लिए तैयार हैं। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग न प्राचीनकाल में था, न अब है, न आगे होगा। सस्ते नुस्खे अपनाकर जो चुटकी बजाते मुक्ति मिलने, सद्गति होने एवं परमात्मा के मिलने की आशा लगाए बैठे हैं, उन्हें कल्पना-जगत में नीचे उतरकर वास्तविकता को सुनना-समझना पड़ेगा और सत्य और तथ्य को हृदयंगम करते हुए भजन को जीवन के कण−कण में ओत−प्रोत कर लेने का प्रयत्न करना होगा। हम देर तक धर्मविनोद के खेल खेलते नहीं रह सकते। जीवन का अंत निकट आता जा रहा है, यदि कुछ वास्तविक आध्यात्मिक कार्य हम से न बन पड़ा तो फिर कुछ सत्परिणाम भी कहाँ से हाथ लगेगा?

हम अपने जीवन को आध्यात्मिक आदर्शों के अनुकूल ढालने का प्रयत्न करें। हमारे विचारों और कार्यों में एक सुव्यवस्थित हेर−फेर होना चाहिए, तभी तो अध्यात्म का सत्परिणाम सामने प्रस्तुत होगा। अपने को सुधारने और बनाने का कार्य हम जितनी तत्परता से करेंगे, उसी के अनुकूल निकटवर्त्ती वातावरण में सुधार एवं निर्माण का कार्य आरंभ हो जावेगा। प्रवचनों और लेखों की सीमित शक्ति से युग निर्माण का कार्य संपन्न हो सकना संभव नहीं, वह तो तभी होगा, जब हम अपना निज का जीवन एक विशेष ढाँचे में ढालकर लोगों को दिखाएँगे। प्राचीनकाल के सभी धर्मोपदेशकों ने यहीं किया था। उनने अपने तप और त्याग का अनुपम आदर्श उपस्थित करके लाखों-करोड़ों अंतःकरणों को झकझोर डाला था और लोगों को अपने पीछे−पीछे अनेक कष्ट उठाते हुए भी चले आने के लिए तत्पर कर लिया था। बुद्ध, महावीर, दयानंद, गांधी, ईसा, सुकरात, अरस्तू आदि महापुरुषों के प्रवचन नहीं उनके कार्य महत्त्वपूर्ण थे। जनता ने प्रकाश उनकी वाणी से नहीं, कृतियों से ग्रहण किया था।

अपने सुधार में सबका सुधार

अपने सुधार में सबका सुधार समाया है, आत्मनिर्माण ही युग निर्माण है। संसार को बनाने का कार्य अपने को बनाने से आरंभ करना होगा। जमाना तब बदलेगा जब हम स्वयं बदलेंगे। युगनिर्माण योजना का आरंभ दूसरों को उपदेश देने से नहीं, वरन अपने मन को समझाने से शुरू होगा। यदि हमारा अपना मन, हमारी बात मानने को तैयार नहीं हो सकता, तो दूसरा कौन सुनेगा? कौन मानेगा? जीभ की नोंक से निकले हुए लच्छेदार प्रवचन दूसरों के कानों को प्रिय लग सकते हैं, वे उसकी प्रशंसा भी कर सकते हैं, पर प्रभाव तो आत्मा का आत्मा पर पड़ता है, यदि हमारी आत्मा खोखली है तो उसका कोई प्रभाव किसी पर न पड़ेगा; इसलिए आत्मकल्याण की दृष्टि से भी और युग निर्माण की दृष्टि से भी हमें एक ही कार्य करना है— आत्मसुधार, आत्मनिर्माण, आत्मविकास। इस कार्यक्रम को पूर्ण करने में ही उन सेवाकार्यों का भी स्वतः समावेश हो जावेगा, जिनके द्वारा जमाने को पलट देना युग को बदल डालना संभव है। इसी में स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय भी है।


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