धर्म पुराणों की सत् कथाएँ

September 1961

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बाल भगवान

महाप्रलय के समय अग्नि की ज्वाला में सब कुछ नष्ट हो गया। केवल जल ही जल सब ओर दिखाई पड़ता था, तब भी मारकण्डेय मुनि जीवित रह गये। वे भटकते हुए फिर रहे थे तो उन्हें बालक के रूप में भगवान दिखाई दिये। प्रलय की भय दूरता से घबराए हुए मुनि को व्याकुल देखकर उस बालरूपमयी परब्रह्म ने कहा-मुनिवर आप बहुत थके मालूम पड़ते है इस विपत्ति से बचने के लिए मेरी शरण में आओ और मेरी शरीर में प्रवेश कर जाओ।

बालक भगवान की ही रूप है। मनुष्य बालक के समान निर्मल मन बनाले तो भगवान ही बन सकता है।

दमन, दान, दया

एक बार ब्रह्मा जी के पास देवता, मनुष्य और असुर तीनों पहुँचे और उनने अपने अपने कल्याण का उपाय पूछा। ब्रह्मा जी ने उत्तर में एक ही शब्द ‘द’ वह और समझाया कि वे अपनी बुद्धि से इसकी व्याख्या करले।

उनने जब विचार कर लिया तब ब्रह्मा जी ने तीनों को अलग अलग बुलाकर पूछा कि उनके संकेत सूत्र की क्या क्या व्याख्या की? तो देवताओं ने कहा-द का अर्थ है दमन। हम लोग असंयमी है जब मन और इन्द्रियों का दमन करेंगे तभी हमारा कल्याण होगा। ब्रह्माजी ने कहा ठीक है। तुम्हारे लिए यही व्याख्या ठीक है।

अब मनुष्यों को बुलाया गया। उनने अपनी व्याख्या बताते हुए कहा ‘द’ का अर्थ है दान। हम लोग कंजूस हो गये है, स्वार्थ में बुरी तरह फँसे है। दान और परोपकार से ही हमारा कल्याण होगा। ब्रह्माजी ने का यही तुम्हारे लिए उचित है।

अन्त में असुर आये। उनने कहा द का अर्थ है दया। हम लोग निष्ठुर हृदय और क्रूरकर्मा बने हुए है। दया और प्रेम के बिना हमारा उद्धार भला और कैसे हो सकता है? ब्रह्मा जी ने कहा- तुम्हारे लिए यही आवश्यक है।

प्रत्येक स्थिति के मनुष्य से दोष हो सकते है और सभी अपने दोषों को ढूँढ़कर उनका निराकरण करना चाहिए।

सत्पात्र की परीक्षा

एक दिन भारी वर्षा हो रही थी। महर्षि अयोद धौम्य ने अपने शिष्य आरुणी से कहा-बेटा खेत पर जाकर देखो कहीं पानी मेंड़ तोड़कर निकल न रहा हो। बालक तुरन्त चल दिया। खेत पर जाकर देखा तो पानी मेंड़ तोड़ कर निकल रहा था। उसने रोकने की बहुत कोशिश की पर पानी रुका नहीं। अब उसने ऐसा किया कि जहाँ से पानी निकल रहा था वहाँ खुद ही लेट गया। रात भर कड़ाके की ठंड में वह इसी प्रकार पड़ा रहा। प्रातः सब बच्चों की देख भाल हुई तब आरुणी को न पाकर चिन्ता हुई। महर्षि उसे ढूँढ़ते हुए खेत की ओर गये तो उसे मेंड़ के सहारे लेटा पाया। ठंड से उसका शरीर थर-थर काँप रहा था तो भी वह गुरु के खेत की रक्षा के लिए कष्ट सहते हुए प्रसन्नता अनुभव कर रहा था। गुरु ने उसे उठाकर छाती से लगा लिया और पूरे मनोयोग से उसे विद्या पढ़ाई।

विद्या सत्पात्र के पास जाकर दी उसकी श्रेष्ठता को निखारती है, कुपात्र के पास जाकर तो वह सर्प के मुँह में गये हुए दूध की तरह विष बढ़ाती है। इस लिए विद्या देने के साथ ही छात्र में मानवीय स् गुणों के विकास का प्रयत्न भी किया जाना चाहिये। जैसा कि प्राचीन गुरुकुलों में किया जाता था।

पतिव्रता का तप तेज

गान्धारी ने अन्धे पति के अनुसरण में अपनी आँखों से पट्टी बाँधे रहने का जो व्रत लिया था, उस तप के प्रभाव से उनके नेत्रों में दिव्य शक्ति उत्पन्न हो गई थी। युद्ध में जाने से पूर्व दुर्योधन को नंगे शरीर सामने खड़े करके उस पर दृष्टिपात किया था फलस्वरूप उसका शरीर वज्र जैसा हो गया था उस पर कोई शस्त्र चोट नहीं करता था। दुर्योधन माता के सामने बिलकुल नंगा आने से सकुचाया, कटिप्रदेश पर एक वस्त्र डाल रखा था। दृष्टि न पड़ने से वही स्थान बचा रह गया और मल्लयुद्ध के समय श्री कृष्ण जी के इशारे पर भीम ने उस स्थान पर ही गदा प्रहार करके दुर्योधन को मारा।

इसी प्रकार एक बार युधिष्ठिर गान्धारी के पास गये। गान्धारी क्रोध में बैठी थी। उसकी थोड़ी सी दृष्टि आँख की पट्टी में नीचे होकर युधिष्ठिर के पैरों के नाखून पर जा पड़ी तो वे नाखून जल कर लाल के स्थान पर काले हो गये।

पतिव्रत एक महान् तप है उसकी साधना से नारी महान् दिव्य शक्ति उपलब्ध कर सकती है।

गौ की महिमा

अयोध्या के राजा दिलीप को कोई सन्तान न थी। इस प्रारब्ध भोग की शान्ति के लिए उन्होंने गुरु वशिष्ठ के आश्रम में जाकर तप करने का निश्चय किया। गुरु ने गौ चराने गौओं की सेवा करने, गौ दुग्ध पीने का आदेश दिया। दिलीप वही करने लगे। एक दिन उनकी निष्ठा की परीक्षा के लिए गुरु ने माया निर्मित सिंह भेजा। उसने गाय को दबाया दिलीप तीर चलाना चाहते थे पर हाथ ने काम न दिया। अब वे चिन्ता में पड़े कि गुरु की अमानत तथा गौ माता की रक्षा कैसे हो? सिंह को कहा यदि तुम बदले में अपना शरीर खाने को दे दो तो मैं गाय को छोड़ सकता हूँ। राजा इसके लिए प्रसन्नता पूर्वक तैयार हो गये। कर्तव्य पालन में असफल रहने की निन्दा सुनने की अपेक्षा उन्हें मृत्यु कही अधिक श्रेयस्कर लगी।

जब वे खरी कसौटी पर कस लिए गए तो सिंह ने भी उन्हें छोड़ दिया।

गौ के शरीर में दैवी तत्व की प्रचुर मात्रा होती ही है श्रद्धापूर्वक गौ सेवा करने से शरीर और मन का पोषण होता है, बन्धुत्व आदि रोग दूर होते है और सतोगुणी भावनाएँ बढ़ती है। दिलीप ने गौर सेवा में यह सब पाया।

माता उर्वशी

एक बार अर्जुन कहीं बन में थे। अप्सरा उर्वशी उस पर मोहित होकर अर्जुन के रास्ते में बड़ी दुखी मुद्रा बना कर बैठ गई। एक नारी को इस प्रकार दुखी देखकर अर्जुन ने इसका कारण पूछा। उसने कहा मुझे एक बड़ा मानसिक कष्ट है उसे आप चाहें तो आसानी से दूर कर सकते है। अर्जुन ने कहा देवि मैं आपकी जो सहायता कर सकता हूँगा अवश्य करूँगा आप निस्संकोच कहिए। उर्वशी ने काम प्रस्ताव करते हुए कहा- मैं आपके द्वारा आप जैसा ही एक पुत्र चाहती हूँ। मेरी इच्छा पूरी कीजिए।

अर्जुन सन्न रह गये। उनने उत्तर दिया, देवि एक तो मैं पत्नी व्रती हूँ। दूसरी नारी को माता समान मानता हूँ। दूसरे काम प्रस्ताव स्वीकार करने पर भी यह निश्चय नहीं कि पुत्र ही हो और कन्या न हो। फिर पुत्र भी हो तो यह भी आवश्यक नहीं कि उसमें मेरे जैसे ही गुण हों। फिर उसे पेट में रखने और पालन करने में तथा मेरे समान होने तक प्रतीक्षा करने में बहुत कष्ट होगा। इसलिए एक सबसे उत्तम उपाय यह है कि आप मुझे आज ही अपना पुत्र मान ले। इससे आपको मुझे आज ही अपना पुत्र मान ले। इससे आपको मुझ जैसा पुत्र प्राप्ति का लाभ तुरन्त ही मिल जायेगा। मैं भी सदा आपको कुन्ती के समान माता ही मानता रहूँगा।

पर नारी को मातृबुद्धि से देखना यही भारतीय आदर्श रहा है।

द्वेष रहित हा ब्रह्मर्षि है

विश्वमित्र तपस्वी तो थे पर वे बड़े अहंकार थे। वे ब्रह्मर्षि बनना चाहते थे। पर अहंकार की प्रचुरता के कारण वे उस पद तक न पहुँच सके। अपने मार्ग में उनने वशिष्ठ जी को बाधक माना और उनके सौ पुत्र मार डाले। वशिष्ठ जी इस कुकृत्य से दुखी तो अवश्य थे पर उनने अपना विवेक नहीं खोया।

एक रात को छिपा कर विश्वमित्र वशिष्ठ जी को मारने के लिए पहुँचे और उनकी कुटिया के पीछे अवसर की ताक में छिप रहे। रात को वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुन्धती आपस में बातें कर रहे थे। अरुन्धती ने पूछा विश्वमित्र अभी तक ब्रह्मर्षि क्यों नहीं बन पाये? वशिष्ठ जी ने उत्तर दिया उनका तप असाधारण है, त्याग भी महान् है, उनकी निष्ठा की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही कम है। पर केवल अहंकार ही उनका पिण्ड नहीं छोड़ रहा है। जिस दिन वह दुष्ट उनका पीछा छोड़ देगा जैसे तपस्वी आज इस पृथ्वी पर बहुत थोड़े है।

वशिष्ठ जी की द्वेष रहित और उदार भावनाओं का परिचय पाकर विश्वमित्र को अपने कुकृत्यों पर बड़ी ग्लानि हुई। उनने प्रकट होकर वशिष्ठ जी के चरण पकड़ लिये। विश्वमित्र का अहंकार गलिन हुआ देखकर वशिष्ठ जी ने उन्हें छाती से लगा लिया और कहा आज सच्चे अर्थों में ब्रह्मर्षि हो गये, उस दिन से वे ब्रह्मर्षि हो गये। उस दिन से वे ब्रह्मर्षि कहाने लगे।

युधिष्ठिर की उदार बुद्धि

उन दिनों पाण्डव वनवास गये थे। एकबार जंगल में घूमते फिरते उन्हें प्यास लगी। पास के तालाब में नकुल पानी पीने गये तो वहाँ रहने वाले यक्ष ने कहा-मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर तब खाना पीना। नकुल ने उसकी वान न सुनि और पानी पीने गये तो यक्ष की माया से प्रभावित होकर मूर्छित होकर गिर पड़े। इसी प्रकार अन्य तीनों भई भी तालाब पर गये और यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिए बिना पानी पीने के प्रयत्न में मूर्छित होकर गिर पड़े। अन्त में युधिष्ठिर पहुँचे। उनने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिया और उसे संतुष्ट किया।

प्रसन्न होकर यक्ष ने उन्हें पानी पीने दिया और कहा मूर्छित पड़े भाइयों में से किसी एक को जिसे आप कहे उस जीवित कर दूँ युधिष्ठिर ने कहा-नकुल को जीवित कर दीजिए। मैं कुन्ती का हूँ माद्री के पुत्रों में से भी एक का जीवित रहना उचित है। यद्यपि बलशाली अर्जुन और भीम है पर न्याय की दृष्टि से मैं नकुल को ही जीवित करने के लिए कहता हूँ यक्ष ने उनकी उदारता कस प्रभावित होकर चारों को ही जीवित कर दिया।


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