1-आध्यात्म ही सब कुछ है

September 1961

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(श्रीराम शर्मा आचार्य)

सृष्टि में अनेकों प्रकार के आनन्ददायक पदार्थ है, पर वे जड़ होने के कारण स्वयं किसी को किसी प्रकार का सुख दुःख नहीं दे सकते। आत्मा की चेतना ही उन पदार्थों के साथ जब घुलती तब पदार्थ में रस उत्पन्न होता है और तभी वे सुखदायक लगने लगते है। यदि आत्मा की अनुभूति उनके प्रतिकूल हुई तो वे ही दुःखदायक बन जाते है। इस संसार में पदार्थ कोई भी ऐसा नहीं है जो अपने आप किसी को सुख या दुःख दे सके।

संसार में अनेकों सुन्दर दृश्य, पदार्थ मौजूद है पर यदि अपनी आंखें जाती रहे, दिखाई न पड़े तो सृष्टि के सभी पदार्थ अदृश्य हो जावेंगे, सर्वत्र अन्धकार ही छाया देखेगा दृश्य पदार्थों की सारी सुन्दरता नष्ट हो जायगी। संसार में बहुत बहुत मधुर शब्दों की ध्वनि होती है। पक्षियों का कलरव, मेघ गर्जन, मधुर भाषण, प्रेमालाप, बालकों की तोतली बोली गायन, वाद्य, प्रवचन आदि बहुत कुछ सुनने योग्य इस संसार में मौजूद है, पर यह सब है तभी तक जब तक अपने कानों में चैतन्यतत्व जागृत है। यदि कान की सजावटता जाती रहे तो यह सारी शब्द धारा समाप्त हो जायेगी तब सर्वत्र नीरवता का साम्राज्य ही दीखेगा।

जिव्हा में कोई रोग हो जाय, मुँह में छाले भर जाय या स्वाद अनुभूति की इन्द्रिय में कोई विकार आ जाय तो फिर संसार के सुस्वादु पदार्थों में क्या विशेषता रह जाएगी? उत्तम से उत्तम भोजन भी मिट्ठी जैसे स्वादहीन लगेंगे। नपुंसकता या कोई और मूत्रेन्द्रिय का रोग हो जाय तो काम सेवन की सुविधाएँ रहते हुए भी उस संबंध में कोई आनंद शेष न रहेगा। पेट का पाचन क्रिया काम न करे तो पौष्टिक पदार्थों का सेवन भी भला शरीर का क्या पोषण कर सकेगा? यदि मस्तिष्क की सजीवता कुण्ठित हो जाय, मूढ़ता, स्मरण शक्ति का लोप, उन्माद आदि कोई रोग घेर ले तो फिर ज्ञान सम्पादन के अगणित साधन होते हुए भी अपना क्या लाभ होगा? तब विद्यालयों, ग्रन्थों, शिक्षकों एवं अन्यान्य ज्ञानवर्धक सुविधाओं से भी क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?

आत्मा की सूक्ष्म चेतना सारे शरीर का नियन्त्रण ओर संचालन करता है। उस व्यवस्था में रत्ती भर भी अन्तर आ जाय तो यह सुन्दर, सुगठित, स्वस्थ और सूक्ष्म लगने वाला शरीर भी भार रूप हो जाता है। साधारण सा रोग उठ खड़ा होने पर और परेशानी का ठिकाना नहीं रहता। फिर कोढ़, क्षय, उपदंश, हैजा, प्लेग, जैसा कोई संक्रामक रोग हो जाय तब तो दूसरे लोगों का सहयोग भी कठिनता से मिलता है। लोग छूत से बचने के लिए दूर दूर रहते है और स्वजन सम्बन्धी भी परिचर्या से कतराते है। इस प्रकार का कोई विकार खड़ा होने पर पहले जो लोग अपने ऊपर जान देते थे वे ही दूर रहने और अपना पिण्ड छुड़ाने का प्रयत्न करते है।

अपनी निज की विशेषताओं के कारण जो लोग प्रिय पात्र थे वे ही उन विशेषताओं के समाप्त हो जाने पर उपेक्षा करने लगते है। शत्रु बन जाते है। जिस वेश्या पर यौवनकाल में प्रेमाजन चाल कौओं की तरह मंडराते रहते थे वृद्धा होने पर उसके पास कोई दुःख दर्द की भी सुधि लेने नहीं आता। माता से जब तक बालक दूध तथा जीवन धारण करने की सुविधा को प्राप्त करने के लिए उस पर निर्भर रहता है तब तक उससे अत्यधिक प्रेम करता है। माता जरा देर के लिए भी बच्चे को छोड़ कर कही चली जाय तो वह रोने लगता है। उसी को गोदी में चिपके रहने की इच्छा करता है। पर जब वही माता बूढ़ी हो जाती है, जवान बच्चों के लिए कुछ लाभदायक नहीं रहती तब बेटे का व्यवहार बदल जाता है। वह उपेक्षा ही नहीं करता तिरस्कृत भी करने लगता है।

यह परिस्थितियाँ बताती है कि आत्मा की सजीवता, सूक्ष्मता ओर सुदृढ़ स्थिति ही एक मात्र वह तथ्य है जिसके कारण पदार्थों और व्यक्तियों का सहयोग, सुख और स्नेह प्राप्त होता है। इसमें कमी आने पर व्यवहार ही बदल जाता है। अपने पराये हो जाते है मित्र शत्रु में बदल जाते है। अपने पास धन बहुत हो पर उसकी रखवाली के लायक शक्ति शेष न रहे तो वह धन ही प्राण का ग्राहक बन जाता है स्वजन सम्बन्धी भी मरने की प्रतीक्षा देखते है और चोर डाकुओं का लालच बड़ जाता है। वे किसी बलवान और सुरक्षा सम्पन्न के ऊपर आक्रमण करने की अपेक्षा दुर्बलों को ही अपना शिकार बनाते है। अशक्त व्यक्ति के लिए धन उसकी जान का ग्राहक है। रूपवती स्त्री भी उसके लिए विपत्ति ही है। कारोबार व्यापार आदि में अनेक प्रतिद्वंद्वी खड़े हो जाते है। अपनी मनमानी करने में जिसको भी वह कमजोर व्यक्ति कुछ बाधक लगता है यही उसे काटा समझ कर रास्ते में से हटाने की कोशिश करता है। दुर्बल काया पर अगणित रोगी का आक्रमण होता है। बीमारियाँ उसे अपना घर बना लेती है। मरने पर तो इस देह को जल्दी से जल्दी घर से निकाल बाहर करने और उसे नष्ट करने की व्यवस्था करनी पड़ती है।

यह सब बातें अचरज की भरी, स्वाभाविक है। रोज ही आँखों के सामने इस प्रकार की घटनायें घटित होती रहती है संस्कृत में एक उक्ति है जिसका अर्थ है दैव भा दुर्बल के लिए घातक सिद्ध होना है। जितना बल है, जीवन है, प्राण है उसके उतने ही सहायक और प्रशंसक रहते है। जब इनमें कमी आरम्भ हुई कि अपने बिराने बनने लगते है और मित्र शत्रु का रूप धारण करने लगते है। दुर्बलता को देख कर अकिंचन जाय भी आक्रमण करने और आधिपत्य जमाने की चेष्टा करते है। युद्ध क्षेत्र में घायल और ड़ ड़ ड़ और सियार उनका पेट चीर कर आते खींचते फिरते है। यदि हव सैनिक इस दशा में न होता, स्वस्थ और जीवित होता तो इन कौए और सियारों की हिम्मत पास आने को भी न पड़ती वरन् उससे डर कर अपने प्राण बचाने के लिए भागते फिरते। जीवित मनुष्य जिन चींटियों को पैरों से कुचलता रहता है मृत होने पर वे ही चींटियाँ उस शरीर को नोंच नोंच कर खाने लगती है। गुलाब सा सुन्दर शरीर वृद्ध या रोगी होने पर घृणास्पद बन जाता है।

यह सब बातें बताती है कि जब तक जीवनतत्व की प्रचुरता है तभी तक इस संसार के पदार्थ उपयोगी अनुकूल एवं सहायक सिद्ध होते है। जब प्राण घटा तभी स्थिति बदलने लगता है और शक्ति के क्षीण होते ही सब कुछ प्रतिकूल हो जाता है। जो अग्नि मनुष्य की जीवन भर सेवा सहायता करती रही, भोजन पकाने, सर्दी मिटाने, प्रकाश देने आदि कितने ही प्रयोजनों से जीवन संयोगिनी की तरह सहायक रही वह अग्नि शरीर के मृतक हो जाने पर उसे जला डालने के लिए चिता की ज्वालाओं के रूप में धू-धू करती है। नौकर के बूढ़े होने पर उसे नौकरी से हटा दिया जाता है। भेड़ कसाई के यहाँ अपनी गर्दन कटाने को विवश होता है, रूप और यौवन के लोभी भौंरी जवानी ढलते ही पुष्प पर मँडराना छोड़ देते है, निर्धन का कौन मित्र बनता है? दुर्बल की कौन प्रशंसा करता है? अशक्त को किस का आश्रय मिलता है?

जितना ही गम्भीरता पूर्वक सोचा जाय उतना ही यह तथ्य स्पष्ट होता है कि अपनी आन्तरिक जीवनी शक्ति ही विभिन्न पदार्थों के ऊपर प्रभाव डाल कर उन्हें चमकीला बनाती है अन्यथा वे सब स्वभावतः कुरूप है। कोयला काला कुरूप और निस्तेज है पर जब अग्नि के सम्पर्क में आग है वो भी तेज ओर उष्णता से भरपूर अग्नि जैसा दिखने लगता है। आत्मा ही अग्नि है। वह जिस पदार्थ के साथ जितने अंशों में घुली मिली रहती है वह उतना ही प्रियपात्र एवं हितकारी बन जाता है। आत्मा का सम्बन्ध जिस पदार्थ में जितना ही शिथिल होता जायेगा वह उतना ही व्यर्थ, अप्रिय व अनुपयोगी लगने लगेगा।

जिस मकान, जायदाद, कोठी, मोटर, धन जेवर, घोड़ा, गाय के प्रति अपनी ममता है, मोह है, स्वामित्व की अनुभूति है, वह बहुत ही प्रिय लगते है, उनकी सुरक्षा, एवं सुन्दरता के लिए निरन्तर ध्यान रहता है। उन पर गर्व भी होता है। पर यदि वह वस्तुएँ बिकजाये, पराई हो जाय तो उसकी ओर से उपेक्षा हो जाती है। किसी दूसरे के अधिकार में जाने के बाद वे भले ही आँखों के सामने बनी रहे पर उनके प्रति कुछ भी आकर्षण न रहेगा। ऐसा क्यों हुआ? यदि वस्तुओं से प्रेम रहा होता तो वे पराई होने पर भी पहले की भाँति प्रिय लगती रही होती। इस प्रेम और उपेक्षा में केवल आत्म भाव का ही अन्तर होता है। आत्मा अपने आपको प्यार करता है, जिस चीज में आत्मा का प्रकाश झलकता है, अपनापन अनुभव होता है केवल वही प्रिय लगती है।

पड़ोसी के सुन्दर बच्चे भी अपने लिये कोई मूल्य नहीं रखते, पर अपने कुरूप बालक भी प्राणप्रिय लगते है। पड़ोसी के बच्चे बीमार पड़े या मर जाये तो भी अपने को कुछ भी कष्ट नहीं होता पर यदि अपने बालक को थोड़ा भी कष्ट हो तो भारी चिंता हो जाती है। और उसे निरोग बनाने के लिए भारी दौड़ धूप एवं बहुत धन खर्च करने में भी संकोच नहीं होता। अपने परिवार के प्रति जो ममता रहती है वह पड़ोसियों के प्रति अजनबियों के प्रति कहाँ दृष्टि गोचर होती है? अपने गुणहीन स्वजन भी विराने गुणवान् व्यक्तियों से अधिक महत्त्वपूर्ण एवं मूल्यवान लगते है। क्या पदार्थ, क्या व्यक्ति सभी का प्रिय अप्रिय लगना उनकी विशेषताओं पर नहीं अपनी ममता और आत्मीयता पर निर्भर है। जिसकी जैसी अभिरुचि है उसे वैसा ही दृष्टि पदार्थ या व्यक्ति पसन्द आते है। संसार में सभी कुछ होता रहता है, सभी कुछ मौजूद है पर अपने को अच्छा वही लगेगा जिसमें अपनी अभिरुचि होगी। सुखानुभूति का अभिरुचि से पसन्दगी से संबंध है। एक आदमी को दूध पसन्द है तो दूसरे को शराब प्रिय लगती है। यहाँ दूध और शराब के गुण दोषों का प्रश्न नहिं, प्रश्न केवल अभिरुचि का हैं। जिसके कारण बुरी वस्तुएँ भी अच्छी लगने लगती है और अच्छी चीज बुरी प्रतीत होती है।

इस संसार में वस्तुतः कोई भी वस्तु न तो आकर्षक है और न सुन्दर। यहाँ सब कुछ जड़ तत्व का परायण हैं जो सर्वथा निर्जीव, निष्ठुर और निस्सार है। प्रिय केवल आत्मा है। आत्मा की आभा ही अपना विस्तार जहाँ जड़ा करती है वही प्रियता मधुरता, सुन्दरता, सरसता का अनुभव होता है। आत्मा जितना बलवान है उसी अनुपात से दूसरे पदार्थ या प्राणी अपने लिए उपयोगी एवं सहायक रहते है। यह तथ्य सत्य से नितान्त परिपूर्ण है। मोटे रूप से इसे हर कोई जानता भी है किन्तु कैसा आश्चर्य है कि जानते हुए भी हम सब अनजान बने हुए है। आत्मा के महत्व को भुलाए बैठे है और पदार्थों के पीछे पागल बने फिरते है।

वस्तुओं की, व्यक्तियों की, साधनों की परिस्थितियाँ अपने सुख दुःख का कारण मानी जाती है। उन्हें ही बदलने या सुधारने के लिए प्रयत्न किया जाता है। पर क्या कभी यह भी सोचा है कि अपनी आन्तरिक स्थिति में हेर फेर किये बिना क्या बाह्य परिवर्तन हमारे लिए अभीष्ट परिणाम उपस्थित कर सकेंगे?

इस कुरूप संसार में सुन्दरता कहा यदि सौंदर्य का अजस्र दर्शन करना हो तो अपनी अन्तरात्मा में सौंदर्यानुभूति का विकास करना होगा, इस परिवर्तन के साथ ही हर वस्तु सुन्दर दिखने लगेगी। इस निर्जीव, निष्प्राण, निष्ठुर दुनिया में प्रेम कहाँ? यदि प्रेम की प्यास है तो अपनी आत्मा में भरे हुए प्रेम के अमृत को चारों ओर बिखेरना पड़ेगा उसके छींटे जहाँ जहाँ भी पड़ेंगे वहाँ सब कुछ प्रेमास्पद ही दिखने लगेगा। इस दुःख रूप जड़ जगत में भोगने योग्य क्या है? सब कुछ स्वाद रहित है। स्वाद तो अपनी इन्द्रियों में बसी हुई रसना में है। रसना नष्ट होने पर यहाँ स्वादिष्ट रह ही क्या जायेगा? यदि स्वाद की लालसा हो तो अपनी शुद्ध रसना को जागृत करे हर पदार्थ रसमय लगने।

हम निर्धन क्यों रहे? अपने सीमित धन को ही अपना मानने की अपेक्षा इस धरती की सारी संपदा को अपने बाप (परमात्मा) की ही जायदाद क्यों न माने? हम मित्रो का, पुत्रों का, स्वजनों का अभाव क्यों अनुभव करे? इस सारी वसुधा को ही कुटुम्ब क्यों न माने? हम असहाय एवं दुर्बल क्यों रहे? अपने आत्म से भरे हुए अनन्त बने को ही विस्तृत एवं विकसित क्यों न करे? यह विकास जितना ही अग्रगामी होगा उतने अनुपात से संसार हमारे लिए सहायक एवं उपयोग प्रतीत होने लगेगा।

अपने अन्दर बहुत कुछ है। बहुत कुछ ही नहीं सब कुछ भी है। बाहर तो केवल भीतर की छाया मात्र है। इस अन्दर के बहुत कुछ को, सब कुछ को ढूँढ़ना, समझना, सुधारना, बनाना और बढ़ाना यही अध्यात्म है। अध्यात्म का महत्व अनन्त है। जो कुछ इस संसार में सुख, सौंदर्य, सहयोग, प्रिय, मधुर, लाभ, सन्तोष, आनन्द एवं उल्लास दिखाई देता है वह सब अपने भीतरी तत्व की ही छाया दर्शन है। छाया के पीछे न भाग कर हम उद्गम का आश्रय ग्रहण करे यही अध्याय है, यही अध्यात्म का सन्देश है।


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