पूजा की थाली
ऊँचे पर्वतों पर एक मंदिर था। तीर्थ यात्री लम्बी यात्राएँ करके उसके दर्शन को आते और बड़ी श्रद्धा के साथ अपना मस्तक उसके दरवाजे पर धरते हुए श्रद्धा भरी पूजा की थाली अर्पित करते। मूर्ति ने वह सब देखा तो उसके अहंकार का ठिकाना न रहा। उसने मन ही मन कहा मेरे बिना इन मनुष्यों का उद्धार नहीं, वे मूर्ख जो मुझे पत्थर माना करते हैं, यहाँ आकर मेरे गौरव को देखें कि मैं कितनी महान् हूँ।
मंदिर के गुम्बज में से कोई अदृश्य सत्ता हंस पड़ी। उसने कहा-री मूर्ख ! तू रही पत्थर की पत्थर ही। मनुष्य तुझे पूजने नहीं आते वे तो अपने अन्तर के सत्य के आगे मस्तक झुकाने आते है। निकटतम सत्य को दूर जाकर पूजने की तो इनकी पुरानी आदत हैं। --दार्शनिक वल्लातोल