आत्मा की अनन्त सामर्थ्य

September 1961

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किन्हीं आध्यात्मिक व्यक्तियों में कुछ अलौकिक चमत्कारी शक्ति देखी जाती है वे कई बार ऐसे आश्चर्य जनक कार्य करते है जिन्हें देखकर उनकी विशेषता स्वीकार करनी पड़ती है। कई आध्यात्मिक शक्तियों के आशीर्वाद से दूसरों का भला और शाप से अहित होता देखा जाता है। पुराण इतिहास में ऋषि तपस्वियों के जीवन के अगणित अलौकिक कार्यों का विवरण मिलता है।

योग की सिद्धियाँ और विभूतियाँ प्रसिद्ध है। योग शास्त्र के दक्षिणमार्गी और वाममार्गी ग्रन्थों में इस प्रकार की विभूतियों के कारण और विधानों को विस्तार पूर्वक बताया गया है। जिन लोगों ने उस मार्ग पर चलते हुए जितनी मंजिल पार की है उनमें उस साधना विज्ञान से संलग्न अनेकों साधक अपने में कुछ विशेष प्रकार की सूक्ष्म शक्ति संग्रह करने में समर्थ होते है और उसका लाभ स्वयं उठाते अथवा दूसरों को देते रहते है। यह प्रत्यक्ष तथ्य है। प्राचीन काल में ऐसे अगणित साधक सर्वत्र दृष्टि गोचर होते थे। यह ऋषियों का देश ही था। यह अध्यात्म विद्या का गौरव सभी को विदित था और सभी उसके साथ अपने को किसी न किसी रूप में संबद्ध रखने का प्रयत्न करते थे। प्रातः और साय सन्ध्या वन्दन की साधना तो सभी के लिए अनिवार्य थी जो उसकी उपेक्षा करता था उसे पतित माना जाता था। इसी अपराध के अपराधी समाज बहिष्कार का दण्ड पाते थे और शूद्र, अन्त्यज,चाण्डाल आदि नामों से पुकारे जाते थे।

आज तो दुर्भाग्य से इन नामों की जातियाँ ही बन गई है। कैदियों की कालान्तर में कोई जाति ही बन जाय तो इसे उचित नहीं कहा जायेगा इसी प्रकार आज अन्त्यज चाण्डाल आदि जो जातियाँ देखी जाती है, वस्तुतः उनका आरम्भ साधना की उपेक्षा करने से दंड स्वरूप हुआ था। यह कभी नहीं सोचा गया था कि आगे चलकर यह वशं परम्परा ही चल पड़ेगी। आज तो आत्म कल्याण की आध्यात्मिक साधनाओं से विमुख हममें से अधिकांश लोग चाण्डाल अन्त्यज कहे जाने के ही अधिकारी है।

हमारे पूर्वज जानते थे कि मनुष्य बड़ा, आलसी और स्वार्थी है। उसकी दृष्टि चिरस्थायी किन्तु दूर वर्ती लाभों को देखने में चूक करती है और तुरन्त के छोटे से सुख के लिए वह भविष्य को अन्धकारमय बना लेने का प्रमाद बहुधा करता रहता है। इसी की रोकथाम के लिए इस प्रकार के बन्धन लगाये गये थे, दण्ड विधान बने थे, ताकि आत्म साधना की उपेक्षा करके कोई व्यक्ति उन लाभों से वंचित न रहे जो मानव जीवन की सफलता के लिए नितान्त आवश्यक है।

ऋषि मुनि प्रचण्ड साधनाएँ करके असाधारण और अलौकिक आत्मबल सम्पादन करते थे और अपने लोक परलोक को शानदार बनाते थे। पर इतना आत्मबल तो सभी के लिए आवश्यक समझा जाता था जिससे वह सुखी सन्तुष्ट और शान्ति पूर्ण जीवन यापन कर सकें। साधना और स्वाध्याय की अनिवार्यता पर धर्म शास्त्रों में अत्यधिक जोर दिया गया है क्योंकि आन्तरिक स्थिति की स्वस्थता के लिए यह दोनों ही बातें आवश्यक है। आन्तरिक स्वास्थ्य के बिना बाह्य जीवन नितान्त असफल एवं संतापयुक्त ही रहता है चाहे उसमें भौतिक सम्पदाएँ कितनी ही अधिक क्यों न हो।

अध्यात्म के सत्परिणाम प्रसिद्ध है। उसके आधार पर लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार की सुख शान्ति उपलब्ध होती है, शान्ति, संतोष प्रसन्नता निर्भरता और स्वतंत्रता के पाँच प्रतिफल इस अंक के विगत पृष्ठों में बताये जा चुके है। जब यह लाभ प्राप्त होते है तो उनके स्थूल साधन भी साथ ही जुड़े रहेंगे। संतोषजनक धन, स्त्री, पुत्र, परिवार स्वास्थ्य, पद, यश, विद्या, चतुरता, मैत्री आदि जो साधन इस लोक की सुख सम्पत्ति के रूप में पुकार आत्मिक स्थिति जितनी ही विकसित होती चलेगी उतनी ही यह साधन सामग्री भी अपने आस पास एकत्रित होती चली जायगी।

आत्मिक सिद्धियों से सम्पन्न जो तपस्वी एवं सिद्ध पुरुष देखे जाते है उनका अपने अस्थिर शरीर और मन पर नियंत्रण होते ही प्रकृति पर भी एक सीमा तक अधिकार हो जाता है। सूक्ष्म जगत में जो कुछ हो रहा है, या होने जा रहा है, उसे वे वैसे ही देख सकने में समर्थ होते है जैसे हम चर्म चक्षुओं से साधारण दृश्यों को देखते है। प्रकृति के साधारण नियमों का उल्लंघन किसी बात में नहीं है, जीव की कुछ अपूर्णताएं ही उसे सीमित रखती है। पक्षी आकाश में उड़ सकते है, मछली दिन रात पानी में डूबी रह सकती है, हंस पानी पर चलते रहते है, अनेकों सूक्ष्म कीड़े हवा और पानी में घूमते रहते हैं पर हमें दीखते नहीं। यही बातें यदि मनुष्य करने लगें तो वे बातें सिद्धियाँ लगती है। आत्म शक्ति संपन्न व्यक्ति अपनी अपूर्णताएं दूर कर सकता है और अन्य अनेक प्राणियों की तरह विशिष्ट शक्तियों से संपन्न हो सकता है। यह लाभ यों सामान्य ही हैं पर उनसे मानव जीवन को और भी सर्वांगीण बनाने में सहायता मिलती है।

वैज्ञानिक जानते हैं कि एक विशाल ग्रह में जो शक्तियाँ और क्षमताएँ होती हैं वे सभी बीज रूप से एक परमाणु में मौजूद रहती हैं। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड का ढाँचा पिण्ड के अन्दर मौजूद है। आत्मा आखिर परमात्मा का ही अंश तो है, जीव में ईश्वर के सभी गुण विद्यमान् हैं। पर वे सभी प्रस्तुत अवस्था में पड़े हैं। साधना द्वारा उनका जागरण किया जाता है। वैज्ञानिक एक छोटे से अणु की छिपी शक्ति का जब ठीक उपयोग कर लेने में समर्थ हो जाते हैं तो विनाश कारी, एटम बम बनकर तैयार हो जाता है। मनुष्य यों एक परमाणु के समान ही तुच्छ प्रतीत होता है पर साधना के द्वारा जब उसकी प्रसुप्त शक्तियों का जागरण किया जाता है तो वह अत्यंत शक्तिशाली और महान् बन जाता है। स्वयं ही वह सुसम्पन्न नहीं होता वर और भी अनेकों को सुसम्पन्न बना देने की क्षमता उसमें प्रस्फुटित हो जाती है। कुण्डलिनी जागरण, ब्रह्म समाधि आदि ऐसे ही अवस्थाएँ है जिनमें सामान्य शरीर रहते हुए भी जीवन वस्तुतः अत्यन्त उच्च भूमिका में जा पहुँचता है और प्रकृति के सूक्ष्म रहस्यों का इसी प्रकार साक्षात्कार करता है जैसे हम सामान्य वस्तुओं को चर्म चक्षुओं से देखते है। ऐसे सिद्ध पुरुष अपने आत्मिक प्रभाव का उपयोग करके किन्हीं परिस्थितियों को बदल भी सकते है। व्यक्तियों और वस्तुओं में भी उनके द्वारा परिवर्तन होता जाता है। ईश्वर की कार्य प्रणाली में वे भी एक तरह से भागीदार बन जाते है और एक नियत सीमा तक वे ईश्वरीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सृष्टि व्यवस्था का संचालन भी कर सकते है।

आत्मिक क्षेत्र का विस्तार और महत्व अत्यन्त विशाल है। उसकी सफलताएँ इतनी महान् है कि विवेकवान् व्यक्ति भौतिक जीवन में बड़े से बड़े कष्ट सहकर भी, बड़े से बड़े त्याग करके भी उस क्षेत्र में प्रवेश करते है। ऋषि मुनि, त्यागी तपस्वी मूर्ख नहीं थे। वे सच्चे व्यवहारवादी थे। बड़े लाभ के लिए छोटे लाभ का त्याग करने की व्यवहारिक नीति का ही उनने पालन किया है। मिट्टी में बीज बखेरते समय किसान भी तो यही करता है। साधना की प्रक्रिया देखने में घाटे का काम, समय की बर्बादी भले ही लगे पर वस्तुतः वह वैसी बात नहीं है। उसमें बहुत कुछ तथ्य है, बहुत कुछ सार है।

देव-देवताओं के अनुग्रह और उनके सत्परिणामों पर आमतौर से धार्मिक लोग विश्वास करते है। उनकी पूजा उपासना के अनेकों विधि विधान, भजन पूजन होते रहते है और भक्ति भावना से उनके लाभ भी मिलते है। पुराणों में देवताओं की शक्ति और कृपा के अनेकों उपाख्यान मौजूद है। वे असत्य नहीं है। यदि असत्य होते तो अतीत काल से अब तक वह श्रद्धा भक्ति और पुण्य परम्परा यथावत चलती न आती। असत्य कमजोर होता है इसलिए वह काम समय तक ठहरता है। केवल सत्य में ही वह क्षमता है कि देर तक ठहरे और बराबर बढ़ता एवं फलता फूलता रहे।

साधना किन्हीं देवी देवताओं की भी की जाती है। कुछ यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र भी ऐसे है जो किन्हीं कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के साथ सिद्ध किये जाते है। इस प्रकार की सभी साधनाएँ साधक की आत्मिक स्थिति के अनुसार ही सफल होती है। श्रद्धा और विश्वास, साहस और धैर्य, एकाग्रता और स्थिरता, दृढ़ता और संकल्प ही वे तत्व है जिनके आधार पर यह साधनाएँ सफल होती है। यदि साधक पर यह साधनाएँ सफल होती है। यदि साधक का संकल्प दुर्बल हो श्रद्धा और विश्वास ढीले हो, चित्त अस्थिर एवं अधीर रहे तो विधि विधान सही होते हुए भी वैसा परिणाम न मिलेगा जैसा मिलना चाहिए। अदृश्य जगत में जो महान् देव शक्तियाँ अवस्थित है उनको अपनी ओर आकर्षित कर सकना निश्चित रूप से अपनी आत्मिक स्थिति पर निर्भर है। जो लोग साधना रत रहते है पर अपनी मनोदशा को परिष्कृत नहीं करते वे उन लाभों से वंचित रह जाते है जो दूसरे अन्य साधक उसी मार्ग पर चलते हुए बहुत कुछ प्राप्त कर लेते है।

सच तो यह है कि आत्मा के अन्तरंग प्रदेश में ही उन अदृश्य देव शक्तियों का निवास होता है जो हमें कही बाहर रहती दिखती है। साधनों के द्वारा हमारे गुप्त चक्रों, संस्थानों, आन्तरिक ग्रन्थियों का जागरण होता है और वे ही हमारे विश्वास के अनुरूप देवता का रूप धारण करके सामने आ उपस्थित होती है। जैसे चतुर माली अपने परिश्रम से किसी पौधे को भली प्रकार विकसित कर लेता है उसी प्रकार श्रद्धावान् साधक भी अपने अन्तः प्रदेश में रहने वाली किन्हीं देव शक्तियों को अपनी श्रद्धा और साधना की सुनिश्चितता के आधार पर सफल एवं सत्परिणाम दायिनी बना लेता है। आलसी और अनाड़ी माली वैसा ही खेत, वैसी ही पौधा वैसी ही उपकरण होते हुए भी अपनी पौधे को निष्प्राण बना देता है। देवताओं के लिए सभी समान है। सभी प्रिय है। पर वे किसी पर कृपा किसी पर उपेक्षा करते देखे जाते है तो इसके मूल में साधक की आत्मिक स्थिति ही काम करती है। किन्हीं की उत्कृष्ट भावनाएँ स्वल्प काल में ही देव शक्तियों को द्रवित कर लेने में सफल होती है पर किन्हीं की अश्रद्धा उन्हें कुछ भी प्राप्त न होने की स्थिति में ही रखे रहती है।

किसी भौतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए सकाम उपासना करने वाले लोगों की मनोभूमि सांसारिक स्तर पर निम्न श्रेणी की ही होती है, इसलिए वे मंत्र शक्ति से अपना कोई प्रयोजन भले ही सफल करले पर सच्ची देव कृपा से वंचित ही रहते है। इसके विपरीत जिनकी आत्मा में सच्ची श्रद्धा भक्ति होती है, जिनका मन निस्वार्थ और निष्काम होना है उन्हें उच्च कोटी के दैवी अनुग्रह प्राप्त होते है। उनको लोक और परलोक दोनों ही सार्थक होते है। इस तथ्य पर विचार करने से भी यही स्पष्ट होता है कि उच्च स्तर की आत्मिक भूमिका ही देव कृपा उपलब्ध होने का प्रधान कारण है।

ईश्वर को भक्त के वश में कहा जाता है। गोपी बालाएँ प्रेम के बल पर ही उसे अपने आँगन में नाच नचा सकी, मीरा ने प्रेम की मजूरी देकर ही उसे चाकर रखा था। सूरदास की लकड़ी पकड़ कर चलने और द्रौपदी के लाज रखने के लिए नंगे पैर दौड़ने के लिए उसे विवश होना पड़ा था। और अधूरे और नीरस मन किए हुए बड़े बड़े पूजा


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