तुम जब खेवनहार हो!

September 1961

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डूब नहीं सकती अब नौका झंझा या मझधार हो।

भय क्या मुझे, व्यग्र क्यों होऊँ? तुम जब खेवनहार हो॥

यौवन की मादक वीणा क्यों झंकृत सहसा हो उठी।

आँखों में सावन-भादो-सी क्यों यह वर्षा हो उठी॥

श्वाँस श्वाँस में किसकी संस्मृति आज व्याप्त सी हो उठी।

उर मन्दिर में किसकी प्रतिमा, सहसा जागृत हो उठी॥

पूजा व्यर्थ नहीं जाती है, निर्गुण या साकार हो॥

ढह कैसे प्रासाद सकेगा जिसका दृढ़ आधार हो।

किसमें लय होने को चल दी सरिता इठलाती हुई॥

अपना सब अस्तित्व गँवाकर, हँसकर बलखाती हुई।

सुनता ध्वनि खोने में मिलता अन्तर से आती हुई॥

बन जाता है गीत पीर जब आती मुसकाती हुई।

श्रद्धा व्यर्थ नहीं जाती है, चाहे कुछ आधार हो॥

कैसे नहीं मिलेगा प्रियतम, जब कि हृदय में प्यार हो॥

-रामस्वरूप खरे साहित्य रत्न


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