तीर्थ यात्रा और ब्रह्म भोज का सच्चा स्वरूप-यह दोनों हमारे जीवन के अभिन्न अंग बनें।

February 1958

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(श्रीराम शर्मा आचार्य)

हिन्दू धर्म शास्त्रों के आधार पर पुण्य कार्यों में तीर्थ यात्रा एवं परिक्रमा का प्रमुख स्थान है। आप हर वर्ष लाखों-करोड़ों व्यक्ति किसी न किसी तीर्थ को जाते हैं। प्रत्येक देव मन्दिर के चारों ओर परिक्रमा का स्थान रहता है और उसकी प्रदक्षिणा किये बिना देव दर्शन सफल नहीं माना जाता। यह सोचना भूल है कि “यह एक रूढ़ि मात्र है। भला किसी स्थान विशेष को देखने या घूमने मात्र से पुण्य किस प्रकार हो सकता है।”

वास्तविकता यह है कि तीर्थ यात्रा और प्रदक्षिणा दोनों ही “धर्म प्रचार” के महान् तथ्य के प्रतीक हैं। यह एक निर्विवाद सत्य है कि मनुष्य का दुर्बल मन आस-पास के वातावरण से शिक्षा, प्रदर्शन, साहित्य एवं दृश्यों से प्रेरणा प्राप्त करता है। जिस प्रकार बुरी परिस्थितियों से सम्बन्धित होकर मनुष्य कुमार्गगामी एवं पतनोन्मुखी होता है उसी प्रकार सुरुचिपूर्ण एवं धार्मिक वातावरण एवं प्रचार से प्रकाश पाकर मनुष्य सन्मार्गगामी बनता है। जन साधारण को, मानव समाज को, बुराई या भलाई के मार्ग पर चलाने का बहुत कुछ श्रेय भले या बुरे प्रचार पर है। इस शरीर और मन में घुसी हुई असुरता अपना प्रचार कार्य आप करती रहती है। चोरी, ठगी, झूठ, व्यभिचार, जुआ, नशा आदि सिखाने के लिए किसी सभा, संस्था, विद्यालय की जरूरत नहीं हैं। यह प्रवृत्तियाँ अपने आप स्वतः बड़ी तेजी से फैलती हैं। भागीरथ प्रयत्न तो इन्हें रोकने का और मन्द ज्योति से टिमटिमाने वाली सात्विकता को बढ़ाने के लिए करना पड़ता है।

धर्म की रक्षा के लिए, जनता में धर्म भावनाओं को सजीव रखने के लिए सर्व प्रमुख कार्य ‘धर्म प्रचार’ है। ब्राह्मण और साधु का जीवन इन्हीं दो कार्यों के लिये समर्पित होता है। वे निरंतर घूमते रहते हैं और जहाँ जाते हैं वहीं कथा, पुराण, कीर्तन, प्रवचन, सत्संग आदि द्वारा धर्म शिक्षा देते हैं और वह, कीर्तन, संस्कार, पर्व, त्यौहार आदि के सामूहिक उत्सव आयोजन करके धर्मोत्साह पैदा करते हैं। अपनी निज की थोड़ी साधना के अतिरिक्त उनका शेष सारा समय इसी धर्म सेवा में लगता है। यही प्राचीन परम्परा है। संसार की इस अत्यन्त महत्वपूर्ण सुख शान्ति स्थापित करने की सच्ची प्रक्रिया को चलाने के कारण ही सन्त महात्माओं का इतना मान होता है। इसी से उनके चरणों में मस्तक झुकाया जाता है। उनके अमूल्य कार्यक्रम में किसी अभाव के कारण बाधा न पहुँचे, इसी दृष्टि से जनता उन्हें समय-समय पर दान-दक्षिणा देकर अपने को पुण्य फल का अधिकारी मानती है। न घूमने वाले साधु की और धर्म शिक्षा न करने वाले ब्राह्मण की शास्त्रों में निन्दा की गई है।

तीर्थ यात्रा में पैदल जाने का महत्व है, जैसे दौड़ की बाजी में गढ़ी हुई झण्डी को छूने का महत्व है वही महत्व तीर्थ यात्रा के देव दर्शन का हैं। तीर्थ यात्री का कर्तव्य है कि पैदल चलकर गाँव-गाँव धर्मोपदेश करता हुआ, धर्म प्रवृत्ति को जागृत करने वाले कीर्तन आदि आयोजन कराता चले। पुण्य का मूल तथ्य यही धर्म प्रचार है। नियत स्थान पर पहुँचना तो झण्डी छूना है। दौड़ की बाजी जीतने के लिए किसी प्रकार झण्डी छू लेना काफी नहीं है, वरन् दौड़ सकने की शक्ति सिद्ध करना मुख्य है। आज की तीर्थ यात्रा ‘रूढ़ि’ मात्र रह गई है। प्रदक्षिणा, परिक्रमा देव मन्दिर की जाती है वह इस बात की प्रतीक है कि देव कार्यों के लिए दिव्य प्रवृत्तियों के पोषण एवं अभिवर्धन के लिए भ्रमण आवश्यक है। तुलसी की परिक्रमा, पीपल की परिक्रमा, तीर्थ की परिक्रमा, नमदा परिक्रमा, ब्रज परिक्रमा आदि के पीछे यह सत्य काम करता है। यदि यह अदृश्य रूप तथ्य का ध्यान न रहे, केवल लकीर पीटी जाय तो मूल उद्देश्य प्राप्त नहीं होता और न पुण्य फल की ही गुंजाइश बचती है।

गायत्री तपोभूमि सच्ची तीर्थ यात्रा का महत्व हर धर्म प्रेमी के मन में बिठाने के लिए प्रयत्नशील है। ‘धर्म फेरी’ का महत्व संसार के श्रेष्ठ कर्मों में अत्यन्त ऊंचा है। धर्म प्रचार के लिए घूमना आत्म कल्याण और परमार्थ की दृष्टि से महान कार्य है। देवर्षि नारद एक स्थान पर 2॥ घड़ी से अधिक न ठहरने का व्रत लेकर धर्म प्रचार के लिए निरन्तर घूमते रहते थे। उनकी यह साधना, जप, तप, योग, समाधि करने वाले अन्य महात्माओं की अपेक्षा भगवान को अधिक प्यारी लगी और वे भगवान के पास बे रोक-टोक चाहे जब आने-जाने का अधिकार प्राप्त कर सके। पुराणों को पढ़ने से प्रतीत होता है कि यह अधिकार अपनी व्यक्तिगत साधना में लगे हुए अन्य किसी ऋषि को नहीं मिल सका था। नारद जी ही वीणा बजाते हुए चाहे जब विष्णु लोक में जा धमकते थे और भगवान को अपनी शंकाओं का उत्तर देने को विवश कर लेते थे। इतनी बड़ी सफलता का कारण नारद की सर्वश्रेष्ठ धर्म-प्रचार साधना ही थी। जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य, भगवान बुद्ध, मीरा, दयानन्द, गाँधी आदि प्रमुख सन्तों का जीवन इसी मार्ग में लगा है। आज भी संत बिनोवा सर्वोदय एवं भूदान के लिए पैदल यात्रा करके सच्ची तीर्थ-यात्रा का उदाहरण उपस्थित कर रहे हैं। तीर्थ यात्रा का पुण्य ऐसी ही उद्देश्य पूर्ण, विवेक पूर्ण धर्म-फेरी से होना संभव हैं। अब वह समय आ गया है जब सच्ची परिक्रमा, सच्ची धर्म-फेरी और सच्ची तीर्थ यात्रा का मर्म समझ लिया जाय और उसी के लिए कटिबद्ध हुआ जाय।

तीर्थों, देव मन्दिरों की भाँति यज्ञों की भी परिक्रमा की जाती है। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान इस युग का महानतम एवं अभूतपूर्व ब्रह्मयज्ञ है। अपने परिवार के प्रत्येक निष्ठावान साधक को इसके लिए धर्म-फेरी करनी चाहिए। 1000 कुण्डों की 101 यज्ञशालाओं की 240 लाख आहुतियाँ करने के लिए 1 लाख याज्ञिक चाहिए, जो सो भी ऐसे जो सवालक्ष अनुष्ठान एवं 52 उपवास करें। इस प्रकार के, इतने धर्म-प्रेमी ढूँढ़ने के लिए लाखों-करोड़ों आदमियों तक गायत्री यज्ञ का सन्देशा पहुँचाना पड़ेगा। ऐसे कार्यों के लिए सौ से कहने पर मुश्किल से कोई एक तैयार होता है। यह समुद्र मंथन करके रत्न निकालने जैसा कठिन कार्य है। इसके लिए एकमात्र उपाय यही है कि अखण्ड ज्योति परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने क्षेत्र के घर-घर में गायत्री यज्ञ का सन्देश पहुँचाने के लिए वैसे ही घूमे जैसे वोट माँगने के लिए घूमना पड़ता है। इतने बड़े आयोजन की घोषणा कर देने पर अपने परिवार के ऊपर महायज्ञ की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गई है। इसकी असफलता एक महान् धार्मिक आवश्यकता का अपूर्ण रह जाना, विश्व मानव का एक दुखद दुर्भाग्य तो है ही-साथ ही अपने परिवार की प्रतिष्ठा का प्रश्न भी है। यह हमारे लिए एक परीक्षा की चुनौती एवं जीवन-स्मरण की कसौटी है।

महायज्ञ की सफलता सदस्यों की धर्म-फेरी पर अवलम्बित है। यदि धर्म-फेरी लगाने में हम लोग अपनी तौहीन, हेठी, बेइज्जती न समझें, इस परम पुनीत कार्य को सच्ची तीर्थ यात्रा समझें, सच्ची परिक्रमा मानें तो एक लाख याज्ञिक तैयार कर सकना सरल है। धर्म-फेरी में कुछ प्रचार साहित्य रहना भी आवश्यक है। इस विषय से सर्वथा अपरिचित लोगों को सारी बात भली प्रकार केवल वाणी से समझा सकना हर किसी के लिए सुगम नहीं है- फिर इसमें वक्त भी ज्यादा लगेगा, इसलिए धर्म-फेरी के लिए जाते हुए कुछ प्रचार साहित्य भी साथ में रहना चाहिए। हममें से हर व्यक्ति अपनी स्थिति के अनुसार निश्चय करे कि इतनी दूरी तक के क्षेत्र को मुझे छान डालना है। दो-दो, चार-चार धर्म प्रेमियों की टोली बनाकर धर्मफेरी के लिए निकलें और जिनसे यज्ञ में सम्मिलित होने की आशा हो उन सभी के घरों में एक परिपत्र या पुस्तिका पहुँचा दें। पोस्टर सार्वजनिक स्थानों पर चिपकाये जा सकते हैं।

धर्मफेरी के साथ वितरण करने के लिए अत्यन्त सस्ता साहित्य, लागत से भी कहीं कम मूल्य में दिया जा रहा है। 6 रु. में 80 पुस्तिकायें तथा 240 परिपत्र दिये जा रहे हैं। जहाँ तक सम्भव हो यह साहित्य कई व्यक्ति मिलकर कई सैट रेल पार्सल से मंगावें। डाक से बहुत अधिक पोस्टेज इस पर लगता है, यों मजबूरी में डाक से भी भेजते तो हैं ही, पर यह भार है अत्यन्त कष्टसाध्य। जो भी हो, यह धर्म प्रचार और धर्मफेरी का कार्यक्रम अपनाकर हम लोग यज्ञ को सफल बनाने में आवश्यक सहयोग दें।

राजा सगर का अश्वमेध का घोड़ा खो गया था, उसने अपने साठ हजार बेटों को आज्ञा दी कि पृथ्वी का चप्पा-चप्पा ढूँढ़ डालो और यज्ञ का घोड़ा खोज लाओ। आज्ञाकारी बेटों ने वही किया और घोड़े को ढूँढ़ने में सफलता प्राप्त करने के लिए उन सबने अपनी जान दे दी। आज इतिहास में उस घटना की पुनरावृत्ति हो रही है। श्रद्धालु साधक जो इतना जप, अनुष्ठान, उपवास करके याज्ञिक बनें- एक प्रकार के अश्वमेध के घोड़े हैं। वे एक ही नहीं एक लाख चाहिए। ऐसे श्रद्धालुओं की खोज करने के लिए, राजा सगर के साठ हजार बेटों की तरह अपने परिवार के 60 हजार सदस्यों को भी भारत भूमि का चप्पा-चप्पा खोज डालना पड़ेगा। घर-घर अलख जगाना पड़ेगा। गाँव-गाँव, गली, मुहल्ले गायत्री माता और यज्ञ पिता का संदेश पहुँचाना पड़ेगा। सगर पुत्रों ने अपने प्राणों तक का उत्सर्ग किया था। गायत्री पुत्रों को भी कुछ न कुछ त्याग तो करना ही पड़ेगा। कुछ समय का, कुछ श्रम का, कुछ पैसों का। महायज्ञ के अत्यंत विशालकाय आयोजन के लिए धर्म संग्रह की कोई सार्वजनिक याचना नहीं है, पर धर्मफेरी के साथ धर्म प्रचार साहित्य के निमित्त हर परिजन कुछ आर्थिक त्याग करें ही, ऐसी हमारी हार्दिक अभिलाषा है, ऐसे समय में सर्वथा कृपणता दिखाना, एक निराशाजनक बात ही समझी जायगी। प्रतिदिन कम से कम एक पैसा या एक मुट्ठी अन्न इस कार्य के लिए निकाला जाय और कई व्यक्ति मिलकर हर महीने इकट्ठा साहित्य मंगाते और बाँटते रहें तो भी बहुत कार्य हो सकता है।

साधु और ब्राह्मण का कार्य धर्म प्रचार था। आज इन वर्गों की जनसंख्या तो प्राचीनकाल की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक है। पर कर्तव्य का सर्वथा लोप होता चला जा रहा है। अपनी निज की मुक्ति कमाने तथा चेली चेले मूंड़ने के खराब धंधे में फंसे हुए साधु और लड्डू रबड़ी उड़ाने वाले, दान-दक्षिणा से लखपती बने हुए ब्राह्मण चारों ओर देखे जा सकते हैं। पर वह ब्रह्म कर्तव्य जिससे जनता का मानसिक स्तर ऊर्ध्वगामी रहता है आज दीख नहीं पड़ता। इस अभाव की पूर्ति हम लोगों को मिल-जुलकर करनी होगी। जैसी टूटी-फूटी योग्यता एवं परिस्थिति है उसी में से कुछ का उत्सर्ग उस लुप्त प्रायः ब्रह्म परम्परा को जीवित रखने के लिए करना होगा। यही धर्मफेरी का उद्देश्य है। यज्ञ किये बिना, दान दिये बिना, गौ को रोटी दिये बिना, भिखारी को भीख दिये बिना गृहस्थ का भोजन पाप भोजन माना गया है। आज कुपात्र भिखारियों को देने की अपेक्षा धर्म प्रचार के लिए-धर्म साहित्य वितरण करके आत्माओं में ज्ञान का प्रकाश देने के लिए नित्य एक दो पैसा या एक दो मुट्ठी अन्न निकालने का व्रत हम में से हर एक को लेना चाहिये। सच्चे तीर्थयात्रा के रूप में धर्मफेरी और सच्चे ब्रह्मभोज के रूप में धर्म मुट्ठी का व्रत हमारे जीवन के दैनिक क्रम में अनन्य रूप में घुल जाना चाहिये।

अन्नदान से ज्ञानदान का पुण्य सौ गुना अधिक बताया गया है। अन्न खाने से थोड़ी देर के लिए भूख बुझती है और कुछ ही देर बाद पेट खाली होकर वह भूख पुनः ज्यों की त्यों जागृत हो जाती है। पर ज्ञान दान से यदि किसी आत्मा में थोड़ी सी भी प्रकाश ज्योति उत्पन्न हो जाय तो उससे जन्म-जन्मान्तरों के दुःख शोक मिट सकते हैं और वह व्यक्ति पशु से देव बन सकता है। इतना बड़ा उपकार ज्ञान दान के अतिरिक्त और किसी अन्न-वस्त्र आदि भौतिक पदार्थों की सहायता से सम्भव नहीं। अन्न, धन आदि का पुण्य फल अगले जन्म में और योनियों में भी मिल सकता है। पर ज्ञान दान का प्रतिफल तो केवल मनुष्य योनि में ही सम्भव है इसलिए ज्ञान दान देने वाले को अगले जन्म में निश्चित रूप से मनुष्य शरीर ही प्राप्त होता है। जिस प्रकार बीमा कम्पनी के एजेन्ट को एक मुश्त एक कमीशन और फिर जब तक बीमा चले तब तक किश्तों पर वार्षिक कमीशन घर बैठे मिलता रहता है, उसी प्रकार धर्म प्रेरणा देने वाले व्यक्ति को उसकी प्रेरणा से धर्म मार्ग में लगने वाले व्यक्तियों के पुण्य का एक भाग कमीशन रूप में मिलता रहता है। पुरोहित को, यजमान को पुण्य दान का दसवां अंश इसीलिए है कि पुरोहित की प्रेरणा से यजमान प्रभावित होता है और प्रेरक का शुभ-अशुभ कार्यों में भागीदार होना वर्तमान सरकारी कानूनों के अनुसार भी और आध्यात्मिक धार्मिक ईश्वरीय नियमों के अनुसार भी निश्चित है।

ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की सफलता के बहाने यह एक परम पुनीत अवसर है, जिस पर धर्मफेरी और धर्म मुट्ठी का शुभ सत्कर्म आरम्भ करें। पूर्णाहुति के बाद भी यह प्रक्रिया हम लोग चालू रखेंगे और इन्हीं दो साधनों से भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान करने का, मानव को सच्चा मानव बनाने का, विश्व भर में स्थायी रूप से सुख शाँति स्थापित करने का, आसुरी तत्वों के उन्मूलन का महान मिशन सफल बनाकर रहेंगे। इस शुभारम्भ के श्रीगणेश का आज ही उपयुक्त अवसर है। अखण्ड-ज्योति के पाठकों को इसे चूकना नहीं है। तीर्थ यात्रा एवं ब्रह्मभोज आवश्यक धर्मकृत्य हैं, इन्हें हमारे दैनिक जीवन में समुचित और स्थायी स्थान मिलना चाहिए।

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“अग्निऋषिः पवमानः पाँचजन्यः पुरोहितः।”

पुरोहित की पवित्र जिम्मेदारी केवल वे लोग उठावें जिनमें आवश्यक गुण हों।

“वदन् ब्रह्माऽवदतोवनीयाम्।”

ज्ञानवान लोग लोक शिक्षण को अपना कर्तव्य समझें।

“तमेव ऋषिं तमु ब्रह्माणमाहुर्यज्ञन्य सामगा।”

निरन्तर ज्ञान दान करते रहना ब्राह्मण की पवित्र जिम्मेदारी है।

“दिवमारुहत् तपसा तपस्वी।”

तप किये बिना किसी की आत्मोन्नति नहीं हो सकती।

“वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः।”

राष्ट्र को बुराइयों से बचाये रखने का उत्तरदायित्व पुरोहितों का है।

“आ देवानाम भवः केतुरग्ने।”

चरित्रहीन लोगों के हाथों में नेतृत्व न पहुँचने दो।

“परातत्सिच्यते राष्ट्रं ब्राह्मणें यत्र जीयते।”

सच्चरित्र लोक सेवी ही राष्ट्र की सच्ची सम्पत्ति होते हैं।

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