(श्री अगरचन्द नाहटा, सं. जैन जगत)
विश्व विविधताओं का भंडार है। जगत के सारे व्यवहार सापेक्ष होते हैं, इसलिये बहुत सी बातों के सम्बन्ध में एक ही कार्य के लिए विधि निषेध के वाक्य शास्त्रों में मिलते हैं। एक दृष्टिकोण से एक कार्य ठीक है तो दूसरे व्यक्ति, परिस्थिति और दृष्टि से वह ठीक नहीं मालूम होता। अपितु उसके ठीक विरोधी कार्य की वहाँ उचितता होती है। योगी और भोगियों का मार्ग अलग 2 है। देह और आत्मा भिन्न पदार्थ हैं। भोगी का लक्ष्य बहिर्जगत की ओर होता है, तो योगी का अंतर्जगत की ओर। बहुत सी बातें जो बहिर्मुखी प्राणियों के लिये जरूरी होती हैं, अन्तर्मुखी के लिये वे त्याज्य हैं। सापेक्ष दृष्टि से ही विचार कर उसे विवेकपूर्वक जीवन में स्थान देना चाहिये।
मनुष्यों की रुचि, प्रकृति, आकृति, भाषा, ध्वनि, परिस्थिति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। अतः सभी बातें सब के लिये एक–सी लागू नहीं की जा सकतीं। तत्वज्ञों ने इसलिए धर्म के भिन्न-भिन्न मार्ग प्राणियों की योग्यता, रुचि व परिस्थितियों को देखते हुए बतलाये हैं। जिनको जिस पथावलम्बन से शान्ति, सुख, आनन्द और अभ्युदय प्राप्त हो उनके लिये वही मार्ग प्रशस्त है। बालक अवस्था में जो बातें उसके लिये उचित हैं वही यौवन और वृद्धावस्था में अनुचित हो जाती हैं। सर्दी के मौसम में मोटा कपड़ा पहिनना आवश्यक है, पर गर्मी में यह प्रतिकूल हो जाता है। इसलिए प्रत्येक पग व डग पर विवेक की आवश्यकता होती है।
साधारणतया लोक व्यवहार को सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिये तीव्र स्मरण शक्ति की आवश्यकता होती है। अच्छा और बुरी बातें और घटनायें दीर्घकाल तक याद रखना आवश्यक हो जाता है। विगत अनुभवों के थपेड़ों से मनुष्य बहुत शिक्षा पाकर आगे बढ़ता है अतः एक दूसरे के सम्बन्ध, व्यवहार, लेन-देन आदि की याददाश्त जरूरी होती है। धार्मिक व्यक्तियों को भी शास्त्रों को याद रखना जरूरी होता है। विस्मरणशील मनुष्य अच्छा नहीं समझा जाता, पर एक स्थिति जीवन में ऐसी भी आती है, जिसमें सब बातों को भूल जाना ही कल्याणकारी माना जाता है।
पूर्वकालीन घटनाओं की स्मृति और प्राणियों के साथ घटित व्यवहारों से राग-द्वेष उत्पन्न होता है। अपने प्रियजनों के व अनुकूल प्रसंगों की स्मृति से राग-भाव बढ़ता है और विरोधी व प्रतिकूल व्यक्ति व घटनाओं की स्मृति से द्वेषभाव जागृत हो जाता है। इसलिए वीतराग वृत्ति के इच्छुक पुरुषों के लिये अनुकूल और प्रतिकूल सभी बातें विस्मरण योग्य हो जाती हैं। जो होना था हो गया, उसे याद कर राग-द्वेष का उदय करना बन्धन का हेतु है। समय-समय पर परिस्थितिवश अनेकों व्यक्तियों से प्रेम और द्वेष हो जाता है, पर जब आध्यात्मिकता की ओर कदम बढ़ाया जाता है तो समस्त जगत के साथ स्नेह और द्वेष के बन्धन समाप्त कर देने आवश्यक हो जाते हैं। महापुरुषों के सन्देशों को स्मरण रखना उपयोगी है। ताकि जीवन में उनसे सतत् प्रेरणा मिले, पर एक स्थिति ऐसी भी होती है, जब चित्त “सम” हो जाता है तो उसे किसी चीज की विचारणा व स्मृति नहीं रह जाती। संकल्प-विकल्प, ऊहापोह, चित्त की चंचलता के द्योतक हैं। उससे ऊपर की स्थिति है “निर्विकल्प समाधि”। वहाँ पूर्ण समता और शान्ति प्राप्त होकर जीवनमुक्त स्थिति की दशा बरतने लगती है, उसके लिये सब को “भूल जाओ” यही सुगम व प्रशस्त पथ है। पहले बुरे को भूले, फिर अच्छे को। यदि स्मरण शक्ति बढ़ाना श्रेष्ठ गुण है तो ‘भूल जाना’ उससे भी ऊँची और श्रेष्ठ स्थिति है।
हमारा जीवन भूतकाल की घटनाओं, परिस्थितियों एवं चेष्टाओं से आच्छादित रहता है। उनके संस्कार अंतर्मन में गहराई तक घुसे रहते हैं। यही संस्कार जन्म-जन्मान्तरों तक राग और द्वेष के कारण बनकर भव बन्धनों में जकड़े रहते हैं और प्राणी बार-बार जन्मता मरता रहता है। अतीत को विस्मृति के गर्त में धकेल कर हम उन संचित स्वभावों और संस्कारों से बहुत हद तक छुटकारा पा सकते हैं। बालकवत सरल बनने के महान् आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करके सरलता पूर्वक आगे बढ़ सकते हैं। जैन धर्म के ग्रन्थों में समभाव वीतरागता पर बहुत जोर दिया गया है। पूज्य संतप्रवर श्रीगणेशप्रसादजी वर्णी इस ‘भूल जाओ’ की शिक्षा पर अधिक बल देते हैं। वस्तुतः आत्मिक प्रगति के लिये यह एक महत्वपूर्ण मार्ग है। “माननीय वर्णीजी ने मेरे पत्र का उत्तर देते हुए चैत्र सुदी 5 के कार्ड में लिखा है कि :-”हमारी तो यह श्रद्धा है जो कल्याणलिप्सु महानुभावों को सबको भूल जाना चाहिये।”
“मेरी तो यह सम्मति है जो कल्याण का मार्ग अपने ही अभ्यन्तर में देखो”-
वर्णीजी के उपरोक्त सारगर्भित शब्दों ने ही मुझे यह लेख लिखने की प्रेरणा दी है।
गुजराती में कहावत है “दुख नो औषद दहाड़।” अर्थात् ज्यों-त्यों शोकादि दुख अधिक दिनों के पुराने होते जाते हैं, त्यों-त्यों उसका असर कम होता जाता है क्योंकि वे बातें आस्ते-2 भुलादी जाती हैं। प्रसंगवश वहाँ जब भी वे बातें याद आती हैं मनुष्य उनकी स्मृति से दुखी होने लगता है। अतः व्यवहार में भी दुखद प्रसंगों, आपसी बैर, विरोधी बातें भुला देने से ही लाभ मिलता है। किसी के साथ कुछ कुछ सम्बन्ध हुआ हो तो क्षमतक्षामय द्वारा उसे भुला देना ही अच्छा है। अन्यथा वह कटुता जरूर फैलती जायगी। इसीलिए कहा जाता है अब आगे की बातें आई-गई कर दो, भुला दो और प्रेम सम्बन्ध में बंध जाओ। “बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेय।” संकल्प-विकल्प आत्मोजति की स्थिरता में परम बाधक हैं। विस्मृति से वे समाप्त हो जाते हैं।