जीवन-ज्योति (Kavita)

February 1958

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मानव उठ जीवन ज्योति जगा।

तू सत्यं शिवं सुन्दरं है, तू है अविनाशी अजर अमर।

तू अविचल, अलख निरंजन है, अमृतमय है तेरा निर्झर॥

फिर आज भटक किस ओर पड़ा, सुध भूल गया कैसे अपनी।

सुनसान, मलीन, अंधेरा-सा, क्यों पड़ा हुआ है तेरा घर॥

अज्ञानमयी दुर्बुद्धि भगा। मानव उठ जीवन-ज्योति जगा॥

चल जगती तल पर सोच समझ, मैला मत कर लेना अंचल।

पग थाह-थाह कर चलना रे, इस मग में है आगे दल-दल॥

असि की धारा पर चलना है, मत इधर उधर को दृष्टि उठा।

अपनी पीड़ा को पी जाना, वह जाय न नयनों में से जल॥

पहचान बिराना और सगा। मानव उठ जीवन ज्योति जगा॥

इस चोर ठगों की नगरी में, मत गाँठ कटा जाना प्यारे।

ऐसे कागज के किले न रच, जो फूँक लगें विनशे सारे॥

‘बड़े भाग मानुष तन पाया’ फिर भी सूझ रही शैतानी।

संभल, गिरा जाता है मूरख, जीती बाजी को मत हारे॥

खेकर यह नौका पार लगा। मानव उठ जीवन ज्योति जगा॥


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