आध्यात्मिक साधना का त्रिविध मार्ग

February 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री नेहर बाबा)

अधिकाँश लोगों के लिए आध्यात्मिक साधना का स्वरूप अपने-अपने धर्मों द्वारा निर्दिष्ट क्रिया-कलाप का बाह्य अनुष्ठान ही होता है। प्रारम्भिक अवस्थाओं में इस अनुष्ठान का भी एक महत्व होता है, क्योंकि इससे आत्मशुद्धि और मनोनिग्रह में सहायता मिलती है। पर बाद में साधक को ऊपरी नियमों के पालन की अवस्था से ऊंचा उठकर आध्यात्मिक साधना के गम्भीर स्तरों में प्रवेश करना पड़ता है। जब साधक इस भूमिका में पहुँच जाता है तब धर्म का बाह्य रूप उसके लिए गौण हो जाता है और उसकी रुचि धर्म के उन मूल तत्वों की ओर हो जाती है जो सभी बड़े-बड़े मजहबों में व्यक्त हुए हैं। सच्ची आध्यात्मिकता उस जीवन को कहते हैं जिसके मूल में आध्यात्मिक बोध और उसका व्यवहार रहता है।

जैसा कि अनेक साधारण व्यक्ति समझते हैं, साधना का अर्थ यह नहीं हैं कि मनुष्य कठोर नियमों के बन्धन में बंधा रहे। कोई एक अटल नियम ऐसा नहीं हो सकता जिसको अनिवार्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति पर लागू किया जाय। आध्यात्मिक क्षेत्र में साधना के अनेक भेद हो सकते हैं। प्रत्येक साधक के लिए उसके संस्कारों और मनोवृत्ति के अनुकूल साधना प्रणाली में कुछ अन्तर किया जा सकता है। इस प्रकार सबका साधना-ध्येय एक होने पर भी विशेष साधक का साधन भिन्न हो सकता है।

आध्यात्मिक क्षेत्र की साधना अवश्य ही भौतिक क्षेत्र की साधना से भिन्न प्रकार की होती है, क्योंकि आध्यात्मिक क्षेत्र का ध्येय भी भौतिक क्षेत्र के ध्येय से भिन्न प्रकार का होता है। भौतिक क्षेत्र का ध्येय एक ऐसा पदार्थ है जिसका काल की दृष्टि से आदि और अन्त होता है और जिसका उद्देश्य किसी अन्य वस्तु का प्राप्त करना होता है। किन्तु आध्यात्मिक साधना का ध्येय ऐसी वस्तु की प्राप्ति होता है जो सदा रही है, सदा रहेगी और इस समय भी हमारे ही अन्तर में मौजूद है।

जीवन के आध्यात्मिक ध्येय को जीवन के भीतर ही ढूंढ़ना चाहिए, जीवन के बाहर नहीं। इसलिए आध्यात्मिक क्षेत्र की साधना ऐसी होनी चाहिए कि वह हमारे जीवन को उस जीवन के अधिकाधिक निकट ले जाय जिसे हम आध्यात्मिक समझते हैं। आध्यात्मिक साधना का ध्येय किसी सीमित अभीष्ट की प्राप्ति करना नहीं होता जो कुछ दिन स्थिर रहकर फिर मिट जाय। वरन् उसका उद्देश्य जीवन का ऐसा आमूल परिवर्तन होता है जिससे कि वह सदा के लिए चिरस्थायी महान सत्य को प्राप्त कर सके। कोई साधना तभी सफल समझी जा सकती है जब वह साधक के जीवन को ईश्वरीय उद्देश्य के अनुकूल बनाने में समर्थ होती है और वह उद्देश्य होता है जीव मात्र को ब्रह्म भाव की आनन्दमय अनुभूति कराना। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने साधन को इस ध्येय के स्वरूप के सर्वथा अनुकूल बनावें।

आध्यात्मिक क्षेत्र में साधना के प्रत्येक अंग का ध्येय जीवन के सभी स्तरों में ईश्वरत्व की प्राप्ति होना चाहिए। इस दृष्टि से आध्यात्मिक साधना के विभिन्न स्तर आध्यात्मिक पूर्णता की स्थिति के निकट पहुँचने की भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हैं। साधना उतने ही अंश में पूर्ण होती है जितने अंश में वह इस आध्यात्मिक आदर्श को व्यक्त करती है अर्थात् जितने अंश में वह पूर्ण जीवन के सदृश्य होती है। इस प्रकार साधन और साध्य में जितना ही कम अन्तर होता है, साधना उतनी ही पूर्ण होती है। और जब साधना पूर्ण हो जाती है तब साधना आध्यात्मिक साध्य में जाकर मिल जाती है और इस प्रकार साधना और साध्य का भेद अखण्ड सत्ता की अविकल पूर्णता में लीन हो जाता है।

ज्ञान, कर्म और भक्ति की साधना

साधना के गम्भीर स्तरों में साधना का अर्थ होता है- (1) ज्ञान-मार्ग, (2) कर्म-मार्ग, (3) भक्ति-मार्ग का अनुसरण। ज्ञान के साधन का स्वरूप होता है। (क) यथार्थ बोध से उत्पन्न होने वाले वैराग्य का अभ्यास और (ख) ध्यान की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएं और अन्तःप्रज्ञा का निरन्तर उपयोग।

1- वैराग्य जीव इस जगत के जाल में फंसकर वह भूल गया है कि वह ईश्वर की ही सत्ता का एक अंश है। यह मूल अज्ञान ही जीव का बन्धन है और इस बन्धन से छुट जाना ही आध्यात्मिक साधना का उद्देश्य होता है। इस दृष्टि से मोक्ष के साधनों में साँसारिक विषयों के बाहरी त्याग की गणना की जाती है। तथापि वह सर्वथा आवश्यक नहीं है। वास्तव में आवश्यकता है साँसारिक विषयों की स्पृहा या आकाँक्षा के भीतरी त्याग की। जब इस स्पृहा का त्याग हो जाता है, तब इस संसार के पदार्थों का त्याग गौण हो जाता है।

2- ध्यान-ध्यान के सम्बन्ध में ऐसा नहीं समझना चाहिए कि वह पर्वत-कन्दराओं में रहने वाले दुनियोंडडडडड के ही करने की कोई अनोखी क्रिया है। प्रत्येक मनुष्य अपने को किसी न किसी वस्तु का ध्यान करते पाता है। इस प्रकार के स्वाभाविक ध्यान और साधक के ध्यान में अंतर यही है कि साधक का ध्यान क्रमबद्ध और नियमित रूप से होता है और वह ऐसी वस्तुओं का ध्यान करता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होती हैं। साधन रूप में किया जाने वाला ध्यान किसी आकार या मूर्ति पर भी हो सकता है और निराकार भी।

3- अन्तःप्रज्ञा ज्ञान का साधन तब तक अधूरा रहता है, जब तक साधक निरन्तर विवेक का अभ्यास नहीं करता। ईश्वर का साक्षात्कार उसी साधक को होता हैं जो सत्य एवं नित्य वस्तुओं के सम्बन्ध में अपनी अन्तःप्रज्ञा और विवेक से काम लेता है।

कर्म मार्ग- ज्ञान के साधन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रत्येक अवस्था में तद्नुकूल कर्म के साथ हो। दैनिक जीवन में विवेक के अनुसार चलना आवश्यक है और उसमें ऊंची से ऊंची अन्तःप्रज्ञा की प्रेरणा होनी चाहिए। बिना किसी भय अथवा शंका के हृदय की सर्वोत्तम प्रेरणाओं के अनुसार आचरण करना ही कर्मयोग अथवा कर्ममार्ग का स्वरूप है। साधन में आचरण की ही प्रधानता है। केवल विचार की नहीं। इस दृष्टि से जो मनुष्य बहुत पढ़ा-लिखा तो नहीं हैं किन्तु जो सच्चे मन से भगवान का नाम लेता है और अपने छोटे से छोटे कर्तव्य का पूरे मन से पालन करता है, वह उस मनुष्य की अपेक्षा भगवान के अधिक समीप हो सकता है, जिसे दुनिया भर का दार्शनिक ज्ञान तो है, परन्तु जिसके विचारों का उसके दैनिक जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

साधक क्षेत्र में विचार की अपेक्षा आचरण का कितना अधिक महत्व है, यह बात एक गधे के व्याख्यान से स्पष्ट हो जाती हैं। एक गधे को, जो बड़ी देर से चल रहा था, बड़ी भूख लगी, थोड़ी देर बाद उसे घास की दो ढेरियां दिखलाई पड़ीं, जिनमें से एक रास्ते के दाहिनी ओर दूसरी बायीं ओर थी। गधे ने सोचा कि इन ढेरियों में से किसी एक के पास जाने के पहले यह निश्चय कर लेना उचित है कि दोनों में से कौन सी अधिक उत्तम है। उसने फासले की, छोटी-बड़ी की, घास के घटिया-बढ़िया होने की- अनेक दृष्टियों से विचार किया। पर सब तरह से उसे दोनों ढेरियाँ एक सी ही जान पड़ीं। देर तक इसी उधेड़बुन में पड़ा रहा और अन्त में किसी निश्चय पर न पहुँच सकने के कारण भूखा और थका हुआ ही आगे चला गया। इसी प्रकार आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए यह आवश्यक नहीं कि हमारे पास उस मार्ग का पूरा नक्शा ही मौजूद हो। आध्यात्मिक जीवन के रहस्य उन्हीं के सामने प्रकट होते हैं, जो जोखिम उठाकर वीरतापूर्वक अपने को परीक्षा में डालते हैं।

भक्ति मार्ग-ज्ञान अथवा कर्म के साधन की अपेक्षा भक्ति अथवा प्रेम का साधन और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह प्रेम ही के लिए किया जाता हैं। वह स्वतः पूर्ण है और किसी दूसरे सहायक की अपेक्षा नहीं रखता। संसार में बड़े-बड़े सन्त हो गए हैं, जिन्होंने किसी वस्तु की कामना न करके भगवत् प्रेम में ही सन्तोष माना था। वह प्रेम, प्रेम ही नहीं, जो किसी आशा से किया जाता है। भगवत् प्रेम की अधिकता में प्रेमी प्रियतम भगवान के साथ हो जाता है। प्रेम से बढ़कर कोई साधन नहीं हैं, प्रेम से ऊंचा कोई नियम नहीं हैं, प्रेम से परे कोई प्राप्तव्य वस्तु नहीं हैं, क्योंकि भगवत् प्रेम, भगवत् स्वरूप हो जाने पर अनन्त हो जाता है। ईश्वरीय प्रेम और भगवान एक ही वस्तु है। जिसमें ईश्वरीय प्रेम का उदय हो गया, उसे भगवान की प्राप्ति हो चुकी।

प्रेम को साधन और साध्य दोनों का ही अंग माना जा सकता है, परन्तु प्रेम का महत्व इतना अधिक स्पष्ट है कि बहुधा इसे किसी अन्य वस्तु की प्राप्ति का साधन मानना भूल समझा जाता है। प्रेम के मार्ग में भगवान के साथ एकीभाव जितना सुगम और पूर्ण होता हैं, उतना किसी भी साधन में नहीं होता। जहाँ प्रेम ही हमारा पथ-प्रदर्शक होता है, वहाँ सत्य की ओर ले जाने वाला मार्ग सहज और आनन्दमय होता है। साधारणतः साधना में प्रयत्न रहता ही है और कभी-कभी तो घोर प्रयत्न करना पड़ता है- उदाहरणतः उस साधक को जो प्रलोभनों के रहते वैराग्य के लिए चेष्टा करता है। परन्तु प्रेम के प्रयत्नों का भाव नहीं रहता, क्योंकि प्रेम करना नहीं पड़ता, अपने आप होता हैं। स्वाभाविकपन ही सच्ची ईश्वर प्राप्ति का स्वरूप है। ज्ञान की सबसे ऊंची अवस्था को, जिसमें चित्त सर्वथा तत्त्वाकार हो जाता है, सहजावस्था कहते हैं-जिसमें स्वरूप का ज्ञान अबाधित रहता है। आध्यात्मिक साधना में एक विलक्षण बात यह है कि साधक का सारा प्रयत्न सहज सिद्ध अवस्था को प्राप्त करने के लिए होता है। अन्त में वह जान जाता है कि समस्त साधनाओं का एकमात्र लक्ष्य अपने स्वरूप का ज्ञान ही है। ऐसा ज्ञान प्राप्त होने पर वह अपने सीमित व्यष्टि-भाव को त्यागकर यह अनुभव करता है कि वह वास्तव में परमात्मा से अभिन्न है और परमात्मा सभी पदार्थों में विद्यमान है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118