जीवन अभिशाप क्यों बना?

February 1958

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(श्री. रामकृष्ण डोंगरे, कटनी)

अब मानस उस युग का निर्माण बड़े जोर-शोर से कर रहा है जिसका निष्कर्ष है- संहार अर्थात् प्रलयकाल। वह समय व वे हथियार, मशीनें किस काम की जो सृष्टि को मानव से शून्य कर दें। वह राज्य (सत्ता) किस काम का जहाँ मानव-मानव को ही चुनौती देता हो। अहंभाव ने किसी का साथ नहीं दिया जैसा धान्य वैसा भोजन, जैसी कमाई वैसी बचत, जैसा कर्म वैसा उसका फल। इनमें किसी का क्या दोष। मनुष्य स्वयं की त्रुटि को स्वीकार नहीं करता, इसलिए उसे सभी कुछ अपने विपरीत दिखता है। गीताकार ने कहा है-

सत्वात्संजायते ज्ञानं रजसोलोभ एव च। प्रसादोमोहो रामसो भवतोऽज्ञान मेव च॥

कितना सुस्पष्ट भाव प्रकट कर दिया है। (1) सतोगुण से ज्ञान की उत्पत्ति (2) रजोगुण से लोभ की अधिकता एवं तमोगुण से प्रमाद, मोह उत्पन्न होते हैं। सत्वगुण की अधिकता से मनुष्य स्वर्गादि उच्च लोकों को प्राप्त करते हैं। रजोगुण वाले (राजस पुरुष) मनुष्य लोक में ही रहते हैं तथा तमोगुण दो कारण कीट पतंगों जैसी अधोगति योनियों में निद्रा, प्रमाद, लोभ, वासना, आलम्ब, वेदना के शिकार बनते हैं। इस काल में लक्ष का निर्धारण करना व भविष्य में उसके ही अनुकूल बनने का प्रयास करना यह प्रत्येक के विचार में आने की बात नहीं हैं। अपना भविष्य बिना किसी पथ-प्रदर्शक (गाइड) के उन्नतिशील बनाना असम्भव सा प्रतीत होता है। सुयोग्य दीक्षित की प्राप्ति ही अपने जीवन का प्रथम प्रयास पूर्ण कार्य हैं। वह भटकने के बजाय सुयोग्य, सुनिश्चित स्थान पर भेज सकेगा, ऐसा मेरा भी अनुभव है। जीवन एक अमूल्य निधि है तथा उसको किस दिशा में ले जाना है यह एक साधारण बात नहीं है। यह अत्यन्त गम्भीर हैं। मथुरा में 8 मई के गायत्री सम्मेलन में गायत्री परिवार के कुलपति आचार्य श्री पं. श्रीराम जी शर्मा ने आयोजित प्रतिनिधियों के समक्ष उस प्रभावशाली, मार्मिक, जीवन स्तर को उठाने व उतने ही काल में उनकी कमजोरियाँ एवं अविश्वास, निराशायुक्त सूक्तियाँ एवं कार्य करने से पहिले फल की आशा रखना आदि बातों पर बहुत गम्भीर प्रभाव डाला। अपने पुरुषों और नारियों के समक्ष यह कहने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं की, कि नारियाँ क्या नहीं कर सकती, तथा नारियों ने क्या नहीं किया? इतिहास उठाकर देखें! इनके उच्च गौरवशाली आदर्शों को पहचानो। किन्तु अब नारियों के निकम्मा बनने का कारण पुरुष है- पुरुष! इसमें नारियों का कोई दोष नहीं। नारी अपनी प्राचीन पद्धतियों, रस्म रिवाजों को समझती हैं कि मुझे क्या करना हितकर होगा और अभी क्या अनिवार्य है, कि मेरी बचत हो, हर प्रयास से अपनी सहूलियत की खोज में रहती है। तथा भविष्य में परिस्थितियों के ही अनुकूल बनने को मजबूर हो जाती हैं। इसका मतलब यह नहीं कि आपको आफिस में डाट पड़ी है या व्यापार में घाटा आया है तो आप अपने घर पर आकर गुस्सा बुझाने का कोई कारण ढूँढ़े तथा उस निर्दोष (सहधर्मिणी) पर अपने गुस्सा का घड़ा फोड़ें। नारी हर समय से पुरुष का साथ देती आई है, देती है, और देती जायगी। किन्तु पुरुष हमेशा अपनी वासना से अतृप्त रहा। उसने कभी भी (विपत्ति काल में) उसकी करुण अवस्था में उसका हाथ पकड़कर उसकी किसी वेदना पर अपनी ही वेदना जैसा अनुभव किया हो? अथवा साँत्वना भी दी हो और नारी ने पुरुष का क्या नहीं किया? नारी अपने वचनों की सच्ची होती है, वह उसका स्वाभाविक गुण है, तथा किसी भी स्थिति में क्यों न हो संतुष्ट रहती है। प्रत्येक लज्जाशील नारी पूज्य है। इनको वेदों ने अपनाया हैं। पुरुष की नारी पूरक है, पर पुरुष नारी को अपनी दासी मानता है।

आचार्य जी ने तपोभूमि में अपने प्रवचन में यह भी कहा और सन्देशा कहा कि- आप लोग अपने आप को स्वयं पहिचानें तथा जाग्रत रहें। आपकी आर्थिक, सामाजिक, कौटुंबिक उत्तरदायित्व की जिम्मेदारी का महत्व कोई साधारण नहीं है, क्योंकि आप प्रतिज्ञाबद्ध हैं एवं अपने कर्मों पर सबको ध्यान रखना चाहिये। जिस तरह से कोई व्यक्ति अग्नि लेकर जाता है और उसकी लापरवाही से उसको अग्नि रास्ते में ही ठंडी हो जाती है। दूसरा कोई बात करते-2 बुझा देता है, तथा तीसरा कोई भोजनोपराँत उस अग्नि को बुझा देता है तथा चौथा व्यक्ति अपना कार्य करने के पश्चात् दूसरे लोगों को बुलाकर प्रेरणा देता है कि यदि आपको आवश्यकता है तो अग्नि यहाँ से लेकर जायं और दूसरों को भी दें। हमें निकम्मे व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं है। हमें सुयोग्य पुरुष चाहियें। भारत के प्रत्येक घर को देवत्व तुल्य बनाना है। घर-2 माता का पूजन व सब संसार धर्ममय हो।

आज प्रत्येक परिवार में अकारण ही कटुता का समावेश है, मित्रभाव में विश्वासघात है, अपने स्वार्थ के पीछे हम क्या नहीं कर डालते। इस परिस्थिति को बदलने के लिए केवल मस्तिष्क के संतुलन का संभालना ही उपयुक्त होता है। सब विकारों को दूर करने में एक नित्य गायत्री साधना ही सरल सुलभ है, प्रत्यक्ष फलदायिनी है। इसका आश्रय लेने वाला कभी निराश व हताश नहीं हुआ। किन्तु लगन की आवश्यकता है। इससे अपनी बुराइयाँ अपने आप विलीन होकर उत्साहवर्धक एवं जनहित कल्याणकारी मार्ग में प्रगति होती है। हमारी भारतीय संस्कृति का एक मात्र आधार हैं? हमारा धर्म जो सदैव ही निष्पक्षता व सत्य उवाच करने को बाध्य करता है। वही दीक्षित है जो सबके प्रति सुदृष्टि रखता है, वही पंडित है जो जितेन्द्रिय है। वही तपस्वी है जो दूसरों के दुःख को दूर करने में तत्पर रहता है वही धार्मिक है जो दूसरों के दिल को नहीं दुखाता।

सत्य विधानुकूल- दूसरे के धर्म व संस्कृति को मसलकर, अपमान पहुँचाकर, आगे बढ़ाने का निष्फल प्रयत्न करने वाले का जीवन किसी भी बड़ी सुख शाँति का अनुभव नहीं कर सकता। यदि अपनी उन्नति करना है तो देश के साथ-साथ आगे बढ़ने में हैं। कोई भी धर्म व संस्कृति हिंसात्मक कार्य करने का आदेश कभी नहीं देती। अपने निजी स्वार्थ के प्रलोभनवश ही मनुष्य अपना स्तर गिरा देता है।


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