भारतवर्ष की प्राचीन आदर्श शासन व्यवस्था

February 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री नारायण स्वामी)

वर्तमान समय में इस सम्बन्ध में अनेक परस्पर विरोधी मत प्रचलित हो गये हैं कि समाज की शासन व्यवस्था किस प्रकार की रहे। अब से कुछ सौ वर्ष पहले तक तो संसार में एक यही शासन प्रथा प्रचलित थी कि सब प्रकार के अधिकार तथा शक्ति राजा के हाथ में रहे और वही समाज को पूर्ण रूप से अपने नियन्त्रण में रखे। उस समय शासन का अच्छा या बुरा होना राजा के व्यक्तित्व पर निर्भर था। अगर राजा सदाशय तथा योग्य हुआ तो प्रजा सुखी रहती थी और अगर वह अयोग्य और दुष्ट स्वभाव का हुआ तो लोगों की दुर्गति होती थी और राष्ट्र पतन की ओर जाने लगता था। इसलिए विचारशील लोग राजा के विरोधी हो गये और प्रजातन्त्र का समर्थन करने लगे। फिर प्रजातन्त्र में गुटबन्दी और थोड़े से प्रभावशील लोगों का बोलबाला देखकर उसका भी विरोध किया जाने लगा और बकुनिन तथा मार्क्स ऐसे पश्चिमी समाजवादी विचारक सब प्रकार के राज्य अथवा शासन को ही बुरा बतलाने लगे और अनेक देशों में राज्य को जड़-मूल से ही नष्ट करने की कोशिश भी की गई।

पर यह सिद्धान्त भारतीय विचारधारा के अनुकूल नहीं है। यहाँ के सामाजिक विधान में राज्य को तक अनिवार्य संस्था ठहराया गया है। साथ ही यह ही स्पष्ट है कि भारतीय विचारकों ने समाज के नियंत्रण की जो व्यवस्था निश्चित की थी वह योरोप की तरह संघर्ष उत्पन्न करने वाली और क्राँतियों को जन्म ने वाली भी नहीं थी। सन् 1933 में फैसिष्ट इटली में 22, और सोवियत रूस में 46 प्रकार के व्यापार संघ थे। पर भारतीय समाज व्यवस्था में केवल चार प्रकार के संघ ही रखे गये हैं। एक शिक्षा सम्बन्धी अथवा ब्राह्मण, दूसरा प्रबन्ध सम्बन्धी अथवा क्षत्रिय, तीसरा धनोत्पादन सम्बन्धी या वैश्य और चौथा शारीरिक परिश्रम सम्बन्धी या शुद्र। इन चारों श्रेणियों के कार्यों को मर्यादा के भीतर रखने के लिए एक मुख्य व्यवस्थापक सभा होती थी जो चारों संघों या वर्णों के प्रतिनिधियों से बना करती थी। उसका एक मुख्य प्रधान (राजा) निर्वाचित होता था, जो व्यवस्थापक सभा की सहायता से कार्य संचालन करता था। इस पद्धति के अनुसार बने राज्य को मानव राज्य कहा जाता था। जिस प्रकार किसी भी छोटे समूह या समुदाय को नियन्त्रण में रखने के लिए मुखिया की जरूरत होती है, उसी प्रकार देश में उत्तम व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक राजा की आवश्यकता होती है, फिर उसे आप चाहे राजा कहें या सभापति कहें। राजा से घृणा तो तब होने लगी जब वे प्रजा के अनुकूल काम न करके स्वेच्छाचारी बन गये और लोगों पर अत्याचार करने लगे। ऐसी दशा में आवश्यकता इस बात की थी कि राजा की इस निरंकुशता को दूर करके फिर राज्य संस्था का सुधार कर लेते। पर इसके बजाय वर्गवादियों ने राज्य संस्था को ही समाप्त करने का नारा बुलन्द कर दिया, जो समाज के लिए किसी दशा में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।

भारतवर्ष में प्राचीन काल में जो शासन या राज्य व्यवस्था थी उसकी प्रशंसा अनेक विदेशी विद्वानों ने भी जो खोलकर की है। सर चार्ल्स मेटकाफ ने लिखा है कि भारतवर्ष में जो पंचायतें थीं, वह छोटे-मोटे प्रजातन्त्रीय राज्यों की ही तरह थी। वे उन सब बातों का प्रबन्ध करती थीं जिनकी गाँवों को जरूरत हुआ करती है। एक दूसरे लेखक सर जार्ज बर्डवुड ने लिखा हैं कि “हिन्दुस्तान में सबसे अधिक धार्मिक और राजनैतिक क्राँतियाँ हुई हैं, पर ग्राम-पंचायतें अपना काम सदैव बिना रुकावट के करती रहीं। सिथियन, यूनानी, अफ़गान, मंगोल आदि अपने पहाड़ी इलाकों से आकर आक्रमण करते रहे, इसी प्रकार पोर्तुगीज, डच, अंग्रेज, फ्राँसीसी अपने-अपने समुद्रों से आये और इस देश के कुछ भागों के शासक बन गये, पर ग्रामों के धार्मिक, और व्यापार संघों पर उनके आने और जाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे एक चट्टान की तरह, ज्वार भाटे के उतार और चढ़ाव से अप्रभावित रहे।

हिन्दू राज्य की आदर्श नीति यह थी कि ग्राम-पंचायतें तथा अन्य राज्य-संस्थाएं, सर्व साधारण के कार्यों में कम से कम हस्तक्षेप करती थी। शासक संस्था का काम जान माल की रक्षा और मालगुजार वसूल करने तक ही सीमित था। राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं की सीमाएं पृथक-पृथक थीं, परन्तु दोनों जनता के लाभजनक कार्यों में एक दूसरे को सहयोग देती थीं। पश्चिमी देशों में इसके विपरीत पहले राज्य, समाज का एजेन्ट होता था और फिर उसका मालिक बन गया। परन्तु हमारे देश में राजा केवल राज्य का सरदार हुआ करता था, समाज संस्था पर उसका शासन नहीं होता था। इंग्लैण्ड आदि देशों में भी स्थानीय संस्थाएं काम करती हैं, वे कुछ अंशों में हमारी पंचायतों की तरह हैं, पर एक तो वे खर्च बहुत ज्यादा करती हैं और दूसरे वे राज्य की ही बनाई होती हैं। परन्तु प्राचीन भारत में पंचायतें स्वतन्त्र थीं और राज्यों का संगठन और विकास उन्हीं के प्रभाव से हुआ करता था। इनका सम्बन्ध अप्रत्यक्ष रूप में केन्द्रीय शासन तक से होता था। एक समय इनके संगठन और प्रभाव से इतना बड़ा साम्राज्य बना था जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित किये हुये भारतीय राज्य या इण्डियन एम्पायर से भी बड़ा था, क्योंकि अफगानिस्तान और मैसूर तक उसमें सम्मिलित थे।

यह समझना भूल है कि प्राचीन भारत में जंगल ही जंगल थे। यहाँ प्राचीन काल में खेती के योग्य उत्तम भूमि की इतनी अधिकता थी कि अन्न की कमी कभी नहीं हो पाती थी। तरह-तरह के व्यापार भी देश भर में होते थे और अनेक प्रकार के कला कौशल के काम भी जारी थे। एक जगह के माल को दूसरी जगह पहुँचाने के लिए सड़कें और व्यापार पथ बने थे, जिनके किनारे थोड़े-थोड़े अन्तर पर धर्मशालाएं थी। सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगे थे। अनेक जगह बड़े-बड़े शहर आते थे। सिकन्दर की चढ़ाई के वर्णन में उस समय के लेखकों ने लिखा है कि केवल पंजाब में ही 2000 शहर थे।

यहाँ तक कि मुसलमानी काल में, जो अत्यन्त अशाँति और हलचल का युग माना जाता है, हिन्दू भारत की प्राकृतिक, मानसिक, आचार सम्बन्धी उन्नति में कोई रुकावट नहीं पड़ी। मुसलमान शासकों का शासन राजधानी या बड़े-बड़े नगरों तक ही सीमित रहता था। इस युग में भी हिन्दू संस्कृति बराबर उन्नति करती रही और उसका विस्तार अधिक होता गया। मुसलमानी आक्रमण और शासन के समय में ही भारत में हजारों सन्त, महात्मा, विद्वान, लेखक तथा समाज के संगठनकर्त्ता उत्पन्न हुए जिनका नाम हम आज तक लेते हैं और जिनका वर्तमान समय में हिन्दू समाज पर गहरा प्रभाव है।

उपर्युक्त प्राचीन राज्य व्यवस्था पर दृष्टि डालने से यह बात सिद्ध हो जाती है कि वह बड़ी लाभजनक और प्रभावशाली व्यवस्था थी। प्रत्येक ग्राम और नगर अपने-अपने कार्यों में पूर्ण स्वतन्त्र थे और अपने यहाँ के निवासियों के कल्याण के कार्य किया करते थे। आजकल के वर्गवादी जिस समाज के निर्माण का आदर्श दुनिया के सामने रखते हैं उससे कहीं बढ़कर यह प्राचीन भारतीय समाज था।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118