व्रत रखने के त्रिविध लाभ

February 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री लक्ष्मीनारायण बी. ए.)

किसी लक्ष्य को सामने रखकर विशेष संकल्प के साथ लक्ष्य सिद्धि के अर्थ किये जाने वाली क्रिया विशेष का नाम व्रत है। व्रत प्रकृति और निवृत्ति भेद से दो प्रकार के और नित्य-नैमित्तिक-काम्य भेद से तीन प्रकार के होते हैं।

द्रव्य विशेष भोजन तथा पूजन के द्वारा अन्य व्रत प्रवृत्ति मूलक और केवल उत्पन्न आदि द्वारा साध्य व्रत निवृत्ति मूलक हैं। ये दोनों ही प्रकार के व्रत पुनः लक्ष्य भेद से तीन प्रकार के होते हैं यथा नित्य, नैमित्तिक और काम्य।

एकादशी आदि व्रत जिनके न करने से प्रत्यवाय होता है उन्हें नित्य व्रत कहते हैं।

पापक्षय आदि निमित्त को लेकर अनुष्ठित चान्द्रायण आदि व्रत नैमित्तिक हैं।

किसी विशेष तिथि में अनुष्ठित सावित्री व्रत आदि-ऐसे व्रतों को काम्य व्रत करते हैं।

इस प्रकार धर्म शास्त्रों में व्रत के विभिन्न भेद कहे गये हैं। इसके अतिरिक्त कायिक और मानसिक भेद से भी व्रत के दो भेद होते हैं।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य ये सब मानस व्रत हैं, तथा दिवा रात्रि उपवास या अशक्त पक्ष में रात्रि को भोजन, अयाचित रूप से रहना आदि व्रत कायिक हैं। व्रत, उपवास, नियम तथा शारीरिक तप के द्वारा सभी वर्ण के मनुष्य पापमुक्त होकर पुण्य प्रभाव से उत्तम गति लाभ करते हैं।

शुक्ल पक्ष की विभिन्न तिथियों को चन्द्रमा की विभिन्न कलाओं का प्रभाव पृथ्वी और जीवों पर चन्द्रमंडल द्वारा और कृष्णपक्ष की विभिन्न तिथियों को सूर्य मंडल द्वारा पड़ा करता है। इसके अतिरिक्त नक्षत्र-लोक आदि का भी प्रभाव पड़ा करता है। इसी कारण उपवास द्वारा शरीर को सम्भालना और इष्ट पूजन द्वारा मन को सम्हालना इन व्रत विधाओं का मुख्य रहस्य, उद्देश्य और वैज्ञानिक आधार है।

व्रतों का वर्णन करके, विवेचन करके अब उनकी महिमा तथा उपयोगिता पर विचार किया जाता है।

विधि पूर्वक व्रतानुष्ठान होने पर शरीर मन, बुद्धि तीनों का अथवा आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक त्रिविध कल्याण होता है।

(1) व्रतों से आधिभौतिक लाभ :-

काम, क्रोध, लोभ, मोह की वृत्ति मनुष्यों में स्वाभाविक होने के कारण पाचन शक्ति से अधिक भोजन मनुष्य प्रायः कर लेता है। वही अन्न अपच उपजाता हुआ अनेक प्रकार की व्याधियों का घर बन जाता है।

व्रत के पूर्व दिन, व्रत के बीच में या एकादशी आदि व्रतों में जो उपवास, फलाहार, लघु आहार या आहार संयम की विधियाँ हैं उनसे अनायास ही पाकयन्त्र को विश्राम मिल जाता है तथा अपक्व अन्न पचकर शरीर को स्वस्थ बना देता है।

अनेक भारतीय और विदेशी चिकित्सकों ने भी विभिन्न चिकित्साओं से थककर शारीरिक निरोगिता के लिये उपवास चिकित्सा की ही सबसे अधिक महिमा बताई है।

फिर अनियमित स्वभाव उद्दाम बनकर वे लगभग घोड़े की तरह मनुष्य को विविध प्रकार की विपत्तियों के खड्डे में डाल देता है। व्रत की विधियों में आहार-विहार का ऐसा सुन्दर नियम रख दिया गया है कि उससे उद्दाम प्रवृत्तियाँ स्वयं ही नियन्त्रित हो जाती हैं तथा मनुष्यों को क्रमशः उन्नत बनाकर आध्यात्मिक पथ में सुप्रवृत्त कर देती हैं।

(2) व्रतों से आधिदैविक लाभ :-

नित्य, नैमित्तिक, काम्य सभी प्रकार व्रतों में ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय और मन का संयम तथा विविध प्रकार तपस्याओं का विधान करें। फिर समस्त संयम या तप निष्काम भाव से अनुष्ठित होने पर आत्मोन्नति का कारण बनता है और सकाम भाव से अनुष्ठित होने पर विविध विभूतियों को प्रदान करता है यह सर्वविदित है।

आँखों के संयम करने वाले “दिव्य नेत्र” बनते हैं, वाक्संयमी, वाकसिद्ध या सुवक्ता बनते हैं।

इस तरह संसार में जितनी प्रकार की दैवी विभूतियाँ देखी जाती हैं, सभी तपस्याओं के फल से उपलब्ध हैं।

अनेक प्रकार की दिव्य औषधियाँ, चिकित्सा, विद्या आदि दैवी विभूतियाँ-तपस्या के ही बल से प्राप्त होती हैं। जो कुछ दुस्तर, दुष्प्राप्य, दुर्लभ या दुष्कर हैं- वह सब तपस्या के द्वारा ही सिद्ध होता है।

सुन्दर वस्त्र, अलंकार, विद्या, अधिकार, उत्तम खान-पान सभी कुछ तपोबल से ही प्राप्त होते हैं। नित्य, नैमित्तिक, काम्य तीनों व्रतों में ही दैवी विभूति प्रदानकारी ऐसे अनेक तपों के विधान देखने में आते हैं।

देव पूजा सकाम हो या निष्काम हो, विधिपूर्वक होने से आधिदैविक लाभ बहुत कुछ हो जाता है, इसमें कोई भी सन्देह नहीं हैं। इष्ट की प्रसन्नता से आधिभौतिक धन-सुखादि प्राप्ति के साथ-साथ आधिदैविक सिद्धियाँ भी बहुत कुछ मिलती हैं। इष्ट में तन्मयता द्वारा उनकी सर्व-शक्तिमत्ता का अंश साधक को अवश्य ही मिल जाता है।

उनके दिव्य गुणों का प्रभाव भी साधक को अति उच्चकोटि का महात्मा बना देता है। भक्त साधक इष्टदेव के शक्ति सागर में अवगाहन स्नान करता हुआ शरीर, मन, प्राण, आत्मा सभी को आप्लावित तथा भरपूर बना लेता है।

यही सब व्रतों से आधिदैविक लाभ हैं।

(3) व्रतों से आध्यात्मिक लाभ :-

हमारे धर्म ग्रन्थों में व्रतोपवास सम्बन्धी जिन अनुष्ठानों का विधान है, उनसे आत्मा का प्रचुर कल्याण होता है यह तो निर्विवाद है।

बाह्येंद्रियों और अन्तरिन्द्रियों का संयम, यम-नियम-ब्रह्मचर्य-सदाचार-सात्विक आहार-विहार यह सब व्रत के प्राण हैं। इनके पालन किये बिना व्रत में सफलता कभी हो नहीं सकती, साथ ही यही सब अनुष्ठान आध्यात्मिक उन्नति के भी मूल-मन्त्र हैं।

जिस प्रकार तपाने पर सोने का मल निकल जाता हैं, उसी प्रकार तपस्या अग्नि के द्वारा शरीर मन को तपाने पर उनका मल दूर होकर वे निरन्तर, निर्मल बन जाते हैं तथा निर्मल अन्तःकरण में ही आत्मिक ज्ञान ठहर सकता है।

नित्य, नैमित्तिक, काम्य तीनों व्रतों में ही प्रायश्चित आदि कितने ही शरीर मन तपाने के विधान हमारे महर्षियों ने किये हैं, जिनके द्वारा अन्तःकरण निर्मल होकर आत्माभास ग्रहण के योग्य हो जाता है।

फिर आहार निवृत्ति से विषय निवृत्ति होती है और विषय निवृत्ति ही मुक्ति का द्वार है।

विषयासक्त मन बन्धन का और विषय शून्य मन मोक्ष का कारण है।

व्रतों में निराहार, स्वल्पाहार का विशेष विधान है। अतः व्रतों में आहार निवृत्ति द्वारा विषय निवृत्ति करके मुक्तिपथ प्रशस्त करने के उपाय बताये गये हैं- यही सिद्ध होता है।

एकाग्र चित से इष्ट ध्यान तथा इष्ट जप करना प्रत्येक व्रत में विशेष रूप से विहित है।

“तत्र प्रत्ययैक तानताः ध्यानम्”, ध्यानात् प्रत्यक्षमात्मनः”

इष्ट में चित्त के एक ज्ञान हो जाने का नाम ध्यान है। उससे आत्मा प्रत्यक्ष हो जाती है।

ध्यान के द्वारा ध्येय में चित्त निविष्ट होता है। अनुराग तथा प्रेम भक्ति पूर्वक निविष्ट चित्त से ध्येय देव का ध्यान करते-करते देवता का दर्शन होता है।

इष्टदेव के दर्शन से समस्त पाप घट जाता है और अन्तःकरण निर्मल होकर स्वरूप में स्थित हो जाता है।

ध्यान के अन्त में ध्याता और ध्येय की एकता होने पर समाधि लग जाती है और समाधि में अन्तःकरण परमात्मा में विलीन हो जाने पर आनन्दमय आत्मा का निरतिशय असीम आनन्द मिलने लगता है।

“सुखमात्यान्तिकं यत्तद् बुद्धि ग्राह्ममतीन्द्रियम्। यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।”

“वह असीम आनन्द इन्द्रियों से अतीत, योग बुद्धि से अनुभव करने योग्य है, इसके पाने से साँसारिक कोई भी वस्तु इससे अधिक उत्तम नहीं मालूम पड़ती है।”

यही मनुष्य जन्म का अन्तिम सर्वोत्तम प्राप्तव्य पदार्थ है। व्रत का आध्यात्मिक लाभ में उपासना परायण व्रती को यही अनोखा लाभ मिलता है। इस प्रकार व्रतानुष्ठान द्वारा आधिभौतिक, आधिदैविक आध्यात्मिक, त्रिविधि कल्याण प्राप्त होते हैं।

ऊपर वर्णित त्रिविधि कल्याण आदि के अतिरिक्त व्रतों से अनेक प्रकार की जीवनोपयोगी-शिक्षा भी प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ :- देवाधिदेव महादेव के भण्डारी-कुबेर और गृहिणी-अन्नपूर्णा हैं। किन्तु फिर भी वे भिक्षा ही माँगते रहते हैं। अन्नपूर्णा का अन्न और कुबेर का धन वे विश्व में ही बाँट देते हैं- इसीलिए वे महान् हैं।

महाशिवरात्रि व्रत का उत्सव करते समय हमारे भीतर भी यही महान् भाव आना चाहिये कि सत्पुरुषों की समस्त सम्पत्ति परोपकार के लिये ही होती है।

यही व्रतोत्सव का अपूर्व, अलौकिक तत्व है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118