महा महिमामयी मथुरा-पुरी

December 1958

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(श्री रामनारायण अग्रवाल)

[ऑल इंडिया रेडियो, नई दिल्ली पर ब्रजभाषा के कार्यक्रमों के अधिकारी श्री आर. एन. अग्रवाल लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार व कवि हैं। ‘ब्रज साहित्य मंडल’ के एक मंत्री होने के साथ-साथ आप अत्यन्त महत्व पूर्ण शोध-कार्यों में संलग्न हैं। महायज्ञ में सम्मिलित होने के लिये आप सपत्नीक पधारे थे। उसी अवसर पर आपने यह लेख विशेष रूप से ‘अखण्ड ज्योति’ के लिये प्रकाशनार्थ दिया है।

जिस मथुरा पुरी को इस युग के अभूतपूर्व गायत्री-यज्ञानुष्ठान के लिये चुना गया वह सदा से धर्म-भूमि विभिन्न धार्मिक समुदायों का एक प्रमुख प्रचार-केन्द्र रही है भारतीय धर्म और संस्कृति के इतिहास में उसका बहुत बड़ा सहयोग रहा है, और यज्ञ-यागादिक धर्म-कार्य वहाँ निरन्तर सम्पन्न होते रहे हैं, इन विषयों पर सुयोग्य लेखक ने प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री से सप्रमाण प्रकाश डाला है। वर्तमान समय की यह भक्ति -रस प्रधान नगरी आध्यात्म और ज्ञान-मार्ग के भी स्मरणीय दृश्य उपस्थित कर चुकी है, इसकी एक झलक पाठकों को इस लेख में मिलेगी।]

मथुरापुरी भारतवर्ष के प्राचीनतम नगरों में से एक है। इसे भारत की सप्त महापुरियों में स्थान दिया गया है और मोक्षदायिका बतलाया गया है। वैदिक, पौराणिक वासुदेव धर्म तथा बौद्ध और जैन धर्मों के साथ साथ यह नगर वर्तमान वैष्णव धर्म का भी केन्द्र रहा है और इसके वर्णनों से प्राचीन वाङ्मय भरा पड़ा है। राजनीति और इतिहास का भी मथुरा नगर पुराना केन्द्र रहा है। भारत के प्राचीन गणतंत्रों में अग्रगण्य अंधक वृष्णि वंशी नरेशों के शूरसेन जनपद की राजधानी भी यह नगर रहा। क्या नाग, क्या हूण, क्या कुशाण और क्या गुप्त सभी नरेशों की सदा इस पर दृष्टि रही और भारतीय इतिहास के उत्थान-पतन का इतिहास मथुरा नगरी,युगों से अपने अंचल में छिपाये आज भी स्थित है। यही नहीं दर्शन, काव्य कला, पुरातत्व और व्यवसाय का भी यह नगर गढ़ था। मूर्तिकला के विकास में मथुरा का योगदान तो विश्व विख्यात ही है। यही नहीं भारतीय संस्कृति के मूलाधार नटनागर भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि होने के कारण तो इस नगर की महिमा सदा सदा के लिए अक्षुण्ण हो गई है और अपनी वर्त्तमान हीनावस्था में भी यह संपूर्ण देश के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।

कहा जाता है कि मधु नामक एक प्रतापी नरेश ने मथुरा नगर की स्थापना की थी। इस धर्मात्मा नरेश ने वनों को काटकर यह सुन्दर नगर बसाया और इसे अपनी राजधानी बनाया। इसीलिए मथुरा को मधुपुरी या मधुरा भी कहा गया है। वह मधु नरेश किस वर्ग का था इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है, कुछ इसे यादव वंशी तथा कुछ दैत्य वंशी मानते हैं, परन्तु मधु एक प्रतापी, प्रजापालक और कुशल शासक था यह सभी स्वीकार करते हैं, परन्तु मधु के उपरान्त उसका पुत्र लवण उसके अनुरूप नहीं रहा, वह एक क्रूर शासक था और उसने यज्ञादि पर प्रतिबन्ध लगा कर अपनी प्रजा विरोधी नीति के कारण यहाँ के ऋषियों और जनता को असन्तुष्ट कर दिया था। ऋषियों ने अयोध्या जाकर लवण के अत्याचारों की कथा भगवान राम को सुनाई थी और लवण से उनका त्राण करने के लिए अनुरोध किया था, जिसके परिणाम स्वरूप इच्छाक वंशी एक विशाल सैन्य दल भगवान राम के अनुज शत्रुघन के नेतृत्व में मथुरा पर चढ़ आया और उसने लवण का वध किया। लवण के वध उपरान्त भगवान राम की इच्छानुसार शत्रुघन मथुराधीश बनाये गये। उन्होंने इस नगर को फिर से बसाया। वाल्मीकि ऋषि की रामायण के उत्तर काण्ड में यह घटना विस्तार से दी गई है। वाल्मीकि जी ने मथुरा की शोभा का बड़ा भव्य वर्णन किया है और यमुना के तट पर बसी इस सुन्दर नगरी को ‘वेद निर्मिताम्’ देवताओं द्वारा बसाई गई नगरी कहा है।

परन्तु इच्छाक वंश का राज्य मथुरा में स्थायी नहीं हुआ, बाद में चन्द्रवंशी नरेशों ने इस पर अधिकार कर लिया और वह भारत के गणतंत्रों में शूरसेन जनपद की राजधानी के रूप में विकसित हुआ। बाद में समय की गति के साथ मथुरा की राजसत्ता में भी परिवर्तन होते गये जिसका ज्ञात और अज्ञात इतिहास स्वयं अपने आप में एक ग्रंथ का विषय है। यहाँ हम केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि मथुरा भारत का एक प्राचीन ऐतिहासिक केन्द्र रहा है और यहाँ की सम्पन्नता पाँडित्य तथा कला, सदा-सदा से संपूर्ण देश को आकर्षित करती रही थी। यही कारण है कि भारत वर्ष में जब भी कोई साँस्कृतिक उत्थान या धार्मिक आन्दोलन आरम्भ हुआ उसे अपनी सर्वमान्यता स्वीकार कराने के लिए मथुरा की ओर देखना ही पड़ा। और मथुरा की उदार संस्कृति परंपरा में देर सबेर, उन सभी को प्रश्रय मिला।

कहा जाता है कि जब भगवान् बुद्ध धर्म प्रचार के लिए पहली बार मथुरा आये तो यहाँ उनका अच्छा स्वागत नहीं हुआ। उस समय मथुरा में यक्षों का बाहुल्य था और यहाँ कुत्ते बहुत थे जिन्होंने भगवान बुद्ध को भी परेशान किया, परन्तु बाद में वैदा नामक प्रसिद्ध यक्षिणी ने उनका धर्म स्वीकार कर लिया और यहाँ बौद्ध विहारों की एक लम्बी शृंखला ही बन गई। भगवान बुद्ध की परम्परा में उपगुप्त तथा नगर नर्तकी वासवदत्ता ने भी बाद में बौद्ध धर्म स्वीकार किया और मथुरा बौद्ध धर्म का प्रधान केन्द्र बना।

यही नहीं जैन धर्म को भी मथुरा में भारी प्रश्रय मिला। जैनों ने भगवान नेमिनाथ को जो भगवान श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे अपने 23 वें तीर्थंकर के रूप में स्वीकार किया था और वर्त्तमान कंकाली टीला यहाँ जैनधर्म का प्रधान केन्द्र बना। मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में इस टीले से प्राप्त जैन सामग्री पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हुई है, जिसमें एक विशाल देव निर्मित स्तूप भी है। जैन और बौद्ध धर्म के साथ वासुदेव धर्म का भी मथुरा केन्द्र था। भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि कटरा केशवदेव पर ईसवी शती से पूर्ण ही राजा षोड़ाष के समय ही वहाँ भगवान कृष्ण का मंदिर स्थापित हो चुका था। इस पावन स्थल को, एक अत्यन्त प्राचीन शिला लेख में ‘महास्थल’ नाम से कथन किया गया है। चन्द्रगुप्त मौर्य के राज दरबार में स्थित सिल्युकस के राजदूत मैगस्थनीज ने विश्लोवरा के नाम से इस स्थल का विस्तृत वर्णन किया है और यहाँ के वैभव और संवृद्धि की विस्तार से चर्चा की है। यही कारण है कि महमूद गजनवी ने मथुरा को भी अपनी लालची वृत्ति की पूर्ति का एक साधन बनाया और भगवान श्री कृष्ण के जन्मस्थान को अपने आक्रमण का केन्द्र बनाकर ध्वस्त किया था। यहाँ से वह अपार धन राशि लेकर गजनी लौटा यह सर्वविदित है। क्या मुहम्मदशाह अब्दाली, क्या नादिर शाह और क्या अन्य विजेता गण सभी ने मथुरा के वैभव तथा यहाँ के साहित्य और संस्कृति का सर्वनाश करने में कोई कोर−कसर न रखी और दिल्ली तथा आगरा के मध्य में स्थित होने के कारण मथुरा को हर बार विजेताओं से पददलित होना पड़ा परन्तु मथुरा आज भी जीवित है यही एक संतोष की बात है, यद्यपि उसकी स्थितियाँ आरंभ से लेकर अब तक यमुना के प्रवाह के साथ ही बदलती रही हैं।

इस प्रकार आज का मथुरा अपने अतीत गौरव पर आधारित एक छोटा, किन्तु फिर भी एक महत्वपूर्ण नगर है। इसका वर्त्तमान महत्व वास्तव में 16 वीं शताब्दी में विकसित वैष्णव भक्ति के केन्द्र के रूप में ही है। भारत में मुसलमान शासन स्थापित होने के उपरान्त सगुण भक्ति धारा की जो सबल रसधारा प्रवाहित हुई उसमें मथुरा मंडल ही कृष्ण- भक्ति का केन्द्र बना। आचार्य बल्लभ, रूप सनातन गोस्वामी, नारायण भट्ट, स्वामी हरिदास, हित हरिवंश आदि अनेक महापुरुष एक साथ मथुरा और इसके समीपस्थ स्थलों में बसे और यहाँ से कृष्ण भक्ति की जो मधुर मुरली बजी उसने संपूर्ण देश को विमोहित करके इसे फिर से गौरवान्वित किया, यही मथुरा की देन है।

यद्यपि श्रीमद्भागवतकार ने मथुरा का ब्रज से पृथक कथन किया है, परन्तु भक्ति युग में मथुरा को ब्रज की मधुर भक्ति का साँस्कृतिक केन्द्र इन आचार्य ने स्वीकार किया और पौराणिक आधार पर मथुरा की गौरव गाथा फिर दिग्दिगंत में गूँज गई—

जपोप वासनिय तो मथुरायं षडानन। जन्मस्थानं समासाद्य सर्वपापैः प्रभुच्यते॥

(स्कंद पुराण)

भक्ति युग में मथुरा को फिर कृष्ण जन्मभूमि के गौरवपूर्ण पद की मान्यता प्रदान की गई, यहाँ के प्राचीन स्थलों को पुनः खोजा गया। रास रंगमंच का पुनरुद्धार मथुरा के विश्रामन्तघाट पर ही हुआ और मथुरा जन जन के आकर्षण का केन्द्र बना ही रहा। आज भी मथुरा में यम द्वितीया, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी तथा झूला दर्शन के लिए संपूर्ण देश के वैष्णव एकत्रित होते हैं, और यहाँ की रज को मस्तक पर धारण करके अपने को धन्य मानते हैं। यही नहीं कृष्णभक्ति के साथ-साथ मथुरा आज भी भारत की सिद्धपीठ के रूप में मान्य है। अभी अभी ता. 23,24,25,26 नवम्बर को पं. श्री राम शर्मा आचार्य ने प्राचीन वैदिक परंपरा के अनुसार एक सहस्र कुँड स्थापित करके यहीं एक गायत्री महायज्ञ का भव्य आयोजन किया, जिसमें लगभग 2 लाख दर्शनार्थियों ने मथुरा में कुँभ जैसा दृश्य उपस्थित कर दिया और ॐ भूर्भुवः स्वः के स्वर समस्त वातावरण में गूँज उठे। इस प्रकार मथुरा अब भी विभिन्न भारतीय संस्कृतियों के समन्वित रूप का एक सजीव प्रतीक बना हुआ है। ब्रज प्रदेश की साँस्कृतिक राजधानी के रूप में इसका गौरव सदा ही अक्षुण्ण रहेगा।

हरिरपि भजमानेभ्यः प्रायो मुक्त ददातिं न तु भक्तिम्। विदित तदुन्नत सत्राँ मथुरे धन्या नमामि त्वाम्॥


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