मथुरा में भी सत्य की विजय हुई।

December 1958

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(श्री घनश्याम दासजी, इकौना)

सत्य पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है। कदम-कदम पर विपत्तियों के पहाड़ मार्ग रोके रहते हैं, न जाने कितनी विकट समस्याएं हतोत्साह करने को उत्पन्न हो जाती हैं, न जाने कितने प्रकार की आलोचनाएँ, निन्दा की बौछारें, कितने हृदय विदारक कठोर शब्द छाती पर पत्थर रख कर सहन करने पड़ते हैं। कार्य कुशल, कर्तव्य परायण व्यक्ति भी ऐसी विरोध की, विघ्न-बाधाओं की आँधी से घबरा जाते हैं और अनेक बार पथ से विचलित हो जाते हैं । राजा हरिश्चन्द्र भगवान राम, योगिराज कृष्ण, भगवान बुद्ध महर्षि दयानन्द, महात्मा गाँधी आदि महापुरुषों की जीवनियाँ इस बात की साक्षी हैं कि सत्यव्रती व्यक्तियों को सदैव महान विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है। पर साथ ही यह भी सच है कि इसी प्रकार के विघ्नों का सामना करने से ही लोग प्रशंसा और श्रद्धा के पात्र बनते हैं। जो जितने अधिक और बड़े विघ्नों, कष्टों को सहन करता है वह उतना ही बड़ा महापुरुष माना जाता है। इसी लिये कर्मयोगी व्यक्ति को समाज की सेवा करने, उसके दोषों को दूर करके उसे कल्याण मार्ग की ओर प्रेरित करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगानी पड़ती है। यद्यपि कुछ समय तक संसार उनके सत्य सिद्धान्तों की हँसी उड़ता है, किन्तु कालान्तर में दुनिया के यही लोग उसके त्याग और तपस्या की प्रशंसा करके अपने को धन्य मानते हैं। किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है—

है जमाना खराब अक्सर लोग कहा करते हैं। मर्द वह है जो जमाने को बदल देते हैं॥

ऐसे ही व्यक्ति युग-पुरुष और लोक-नायक माने जाते हैं। युग-युगों तक उनकी अमर कीर्ति हमको सद्प्रेरणा देती रहती है। मगर इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो स्वयं तो कोई सत्कार्य कर नहीं सकते, और अन्य लोग जो सत्कार्य करते हैं उनमें भी द्रोह या भ्रमवश अड़ंगा लगाते रहते हैं । वे प्रायः यही विचार करते हैं कि अमुक व्यक्ति ने महान कार्य करके इतनी मान्यता, कीर्ति प्राप्त कर ली है, अब हम उससे पीछे रह जायेंगे, चलो उसकी खूब बदनामी करो। खेद की बात है कि यह दूषित भावना अन्य क्षेत्रों की भाँति धार्मिक क्षेत्र में भी बहुत अधिक घुसी हुई है। अनेक लोगों ने भगवान के नाम पर अंधेरखाता मचा रखा है और धर्म को अपने घर की जायदाद समझ लिया है। वे यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि भगवान सभी के हैं और सब को अपनी रुचि के अनुकूल या सुविधाजनक ढंग से उनकी उपासना भक्ति करने का अधिकार है।

इस मनोवृत्ति का एक निकृष्ट उदाहरण मुझे मथुरा महायज्ञ में देखने को मिला। कई लोग पूज्य आचार्यजी के त्याग और तपस्या की ओर दृष्टिपात न करके स्वयं उनकी निन्दा कर रहे थे और खर्च करके दूसरों से करा रहे थे। वे लोग जात-पाँत के दूषित रूप को कायम रखने के लिये, अपने कोरे नाम की जागीरदारी को सुरक्षित रखने के लिये बड़ी दौड़-धूप कर रहे थे। ऐसे कितने ही लोगों से मेरी बड़ी बहस हुई और मैंने उनकी बातों का जड़मूल से खण्डन कर दिया। पर जिनका ध्येय ही आलोचना करना तथा निन्दा करना हो गया है, जिनके हृदय में ईर्ष्या-द्वेष की अनिष्टकारी भावनाएँ चक्कर काटती रहती हैं वे भला सत्य बातों को कब सुन और मान सकते हैं। मेरे विचार में तो यदि ऐसे व्यक्ति गायत्री मंत्र की थोड़ी सी साधना करलें तो उनकी भावनायें स्वयमेव शुद्ध हो जा सकती हैं।

यह एक शाश्वत नियम है कि सत्कार्य के पूरा होने में भले ही देर लगे, पर यह किसी की मजाल नहीं कि उसका बाल भी बाँका कर सके। इस महायज्ञ में देश के कोने-कोने से आकर लोग शामिल हुये, विरोधियों के मनमाने आक्षेप करने पर भी भारत की जनता यज्ञ-भगवान के दर्शन करने को अकुला उठी, बड़े-बड़े विरोधियों के आसन भी हिल गये और उनके अन्दर श्रद्धा का अंकुर उग आया। न जाने कितने व्यक्ति तो हमारी माताओं और बहिनों के जल-यात्रा के जुलूस को देख कर ही विरोधी के बजाय समर्थक बन गये। उनकी अन्तरात्मा ने यह स्वीकार किया कि आज प्राचीन भारतीय स्त्रियों का जीता जागता साकार रूप हमारी आँखों के सामने मौजूद है। उस समय उनकी आत्मा से यही शब्द निकले कि क्या हम स्त्रियों से भी गये बीते हैं जो बजाय यज्ञ भगवान के दर्शन करने के उनके विरुद्ध गलत प्रचार कर रहे हैं।

बस आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहते हुये संगठन का बल और शक्ति बढ़ाते रहें। हमारे परिवार की जड़ें जमीन में मजबूती से जम चुकी हैं और कोई उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।


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