महायज्ञ में सेवा का उच्च आदर्श

December 1958

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(डॉ. चमनलाल)

महात्मा भर्तृहरि ने लिखा है कि संसार में तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं। पहली श्रेणी के श्रेष्ठ पुरुष वह होते हैं जो अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को तिलाञ्जलि देकर निरन्तर प्राणी मात्र के कल्याण में लगे रहते हैं अर्थात् अपने स्वार्थ को दूसरों के स्वार्थ के साथ मिला देते हैं। दूसरी श्रेणी के पुरुष वह होते हैं जो अपनी व्यक्तिगत पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटाने के साथ-साथ समाज कल्याण के परोपकारी कार्यों में लगे रहते हैं। तीसरी श्रेणी के नीच पुरुष वह होते हैं जो अपने स्वार्थों के लिए दूसरों का गला घोंटते हैं और झूँठ, छल, कपट, बेईमानी, घूस आदि जैसे घृणित से घृणित कार्यों को अपनाने में कोई संकोच नहीं करते। वह दूसरों के हानि लाभ पर कोई ध्यान नहीं देते। अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये वह नीच से नीच कार्य करने पर उतारू हो सकते हैं। विवेक बुद्धि को भट्टी में झोंक कर साँसारिक उन्नति करना उनका जीवन-लक्ष्य होता है। ऐसे मनुष्य पशु श्रेणी में गिने जाते हैं। मनुष्य तो वह है जो मनुष्य के लिये जीता है। जो केवल अपने लिए जीता है, अपने लिये सोचता है, केवल अपने लिए पकाता है, वह पशु है, चोर है, मनुष्य कहलाने योग्य नहीं। पशुता से मनुष्यता व देवत्व की ओर बढ़ने की पहिचान यही है कि उसने कहाँ तक अपने स्वार्थों को समाज के स्वार्थों के साथ मिला दिया है।

मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह व्यक्तिगत उन्नति के साथ-साथ दूसरों की उन्नति के लिए जीवन भर प्रयत्न करता रहे। हम तो यहाँ तक कहने को तैयार हैं कि अपनी उन्नति के लिये दूसरों की उन्नति करना आवश्यक है। स्वयं, सुख, शान्ति प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि वह दूसरों की सुख, शान्ति के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहे। इसीलिये परोपकार को हमारे शास्त्रकारों ने सबसे बड़ा धर्म माना है। इस तत्व को भली प्रकार समझ कर अ.भा. गायत्री-परिवार के संचालकों ने प्राणी मात्र में इस परमार्थ बुद्धि को कूट-कूट कर भर देने का निश्चय किया है। गायत्री-परिवार के सदस्यों को यह आदेश मिलते रहते हैं कि उन्हें व्यक्तिगत उपासना के साथ-साथ धर्मफेरी करके जनता में धार्मिक भावनाओं को जागृत करना चाहिये। गायत्री महायज्ञ के एक लाख भागीदार बनाने के लिये हजारों सदस्यों ने दिन-रात एक कर दिया। अपने तन-मन को गायत्री माता व यज्ञ पिता के चरणों में न्यौछावर कर दिया। वह बिना वेतन के महीनों का अवकाश लेकर ग्राम-ग्राम व शहर -शहर की खाक छानते फिरे, असुरता के प्रकोप सहते रहे। यह उनके अथक निःस्वार्थ परिश्रम का ही परिणाम है कि लाखों की संख्या में जनता, होता, यजमान व दर्शक के रूप में आई। समाज सेवा की आदर्श भावना उनकी नस-नस में भर चुकी है। ऐसे धर्म सेवी गृहस्थों को महान आत्मा-महात्मा ही कहना चाहिये। हमारा पूर्ण विश्वास है कि जो साधक अपनी व्यक्तिगत साधना को कम करके भी परोपकार व सेवा के कार्यों में अधिक समय लगाता है,उसकी आत्मिक उन्नति उस साधक से बहुत ही शीघ्र होती है जो केवल अपनी साधना में ही निरन्तर लगा रहता है और धर्म सेवा को आवश्यक नहीं समझता।

महायज्ञ से पहले डेढ़ महीने के शिक्षण शिविर में भाग लेने वालों ने सेवा का उच्च आदर्श उपस्थित किया है। अपनी सामाजिक स्थिति को भूलकर वह महायज्ञ की तैयारी में लगे रहे। वह महायज्ञ के होताओं के निवास स्थानों की सफाई व कुण्डों आदि की खुदाई में निःसंकोच कार्य करते रहे। अपने घरों में जिन व्यक्तियों को कोई शारीरिक कार्य न करना पड़ा हो, उनका फावड़ा व कुदाल उठाकर मिट्टी खोदने आदि के कार्य करने लगना उनकी उच्च पवित्र भावना के द्योतक हैं। कुण्डों की लिपाई पुताई व रंगाई में कुछ स्त्रियों व पुरुषों ने जिस उच्च सेवा भावना को प्रकट किया, उसको गायत्री-परिवार के संचालक कभी भूल नहीं सकते। वह प्रातः काल छः से शाम के छः बजे तक बिना विश्राम के अपने कार्य में लगे रहे। श्रमदान का यह कार्य महायज्ञ की एक स्मृति रहेगी।

गायत्री महायज्ञ में लाखों की संख्या में होता यजमान व दर्शकों ने भाग लिया। महायज्ञ के निवास, भोजन, यज्ञ प्रवचन आदि के कार्य सभी सुव्यवस्थित ढंग से चलते रहे। इतने विशाल आयोजनों को सफल बनाने के लिए हजारों स्वयं सेवकों की आवश्यकता पड़ती है। हजारों तम्बुओं में निवास की व्यवस्था करना, हजारों याज्ञिकों का भोजन प्रबन्ध, 1000 कुँडों में सामग्री, घी, समिधा आदि की यज्ञीय व्यवस्था करना और परिक्रमा करती हुई लाखों की भीड़ को कन्ट्रोल करना कोई हंसी खेल नहीं है। मथुरा निवासियों का यह कहना है कि सैंकड़ों वर्षों से मथुरा में कोई ऐसा बड़ा आयोजन या मेला नहीं हुआ है, जिसमें इतना विशाल जन समूह एकत्रित हुआ हो। मथुरा शहर से यज्ञ-नगर तक की सड़क पर प्रातःकाल छः बजे से रात के 11 बजे तक चलती हुई भीड़ को देख कर आयोजन की विशालता और सफलता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था। इस विशाल आयोजन और अभूतपूर्व यज्ञ की विशेषता व सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इसमें एक भी ऐसी कोई दुर्घटना नहीं हुई जिसकी आशंका थी और जो मेलों में प्रायः हुआ करती हैं। यह सब यज्ञ के भागीदारों व व्यवस्था करने वाले प्रबन्धकों की परमार्थ व सेवा-बुद्धि से उत्पन्न हुई सतोगुण शक्ति का ही परिणाम है। जिन साधकों ने साल भर से ब्रह्मचर्य पूर्वक जप, अनुष्ठान, व्रत व धर्म प्रचार किया था, व भोजन, यज्ञ, प्रवचन और तीर्थ यात्रा आदि सभी कार्यों को भूल कर अपने कार्य में जुटे रहते थे। वह यज्ञ में भाग लेने से कर्तव्य पालन व सेवा कार्य को प्रधानता देते। सत्य तो यह है कि यदि जप, अनुष्ठान व यज्ञ करने से ऐसी सेवा बुद्धि नहीं बनती है तो यह समझना चाहिए कि उनकी साधना पूरी तरह से सफल नहीं हो रही है। निःस्वार्थ भाव से सेवा करना उच्चकोटि के साधकों का मुख्य चिन्ह है, यही सच्चा यज्ञ है।

महायज्ञ में हजारों यजमानों को उपाध्याय की उपाधि दी गई। यह उपाध्याय गायत्री ज्ञान मन्दिरों अर्थात् ब्रह्म विद्यालयों के अध्यक्ष व मुख्य शिक्षक रहेंगे। गायत्री तपोभूमि द्वारा प्रकाशित सद्ज्ञान साहित्य का प्रचार करना। इनका उद्देश्य रहेगा। इन लोगों ने संकल्प किया है कि वह अपनी जीविका में से निश्चित धन ज्ञान प्रसार में लगायेंगे और धर्म सेवा को परम पुनीत कर्तव्य मानकर अपने क्षेत्र में धर्मफेरी करके गायत्री व यज्ञ प्रचार करेंगे। गायत्री-परिवार की आगामी योजनाएं इन्हीं उपाध्यायों पर अवलम्बित हैं। इन्हें ही धर्म युद्ध में उतर कर विजय पताका फहरानी है।

यज्ञ में स्थूल वस्तुओं को सूक्ष्म बनाकर उनकी शक्ति को हजारों गुना बढ़ा दिया जाता है उस शक्ति द्वारा जहाँ अनेकों प्रकार के भौतिक लाभ होते हैं वहाँ सूक्ष्म सात्विक एवं पवित्र वातावरण की उत्पत्ति होती है, असुरता का नाश और देवत्व की वृद्धि होती है। तप, त्याग, परमार्थ व सेवा की उच्च भावनाएं जागृत होती हैं। इनका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें याज्ञिकों की मनोदशा का अध्ययन करने से मिलता है। पिछले वर्ष में हमें उत्तर प्रदेश के 20 जिलों की शाखाओं का संगठन बनाकर उनमें भ्रमण करने का अवसर मिला है। उनमें से अधिकाँश शाखा मन्त्रियों के निकट संपर्क में रहे हैं। महायज्ञ में जो शाखा मन्त्री भाग लेने आये थे उनके मनों में उत्साह उछल-उछल रहा था। वह नये सदस्य बनाने, शाखाएं स्थापित करने 101,51,25,9 अथवा 5 कुण्डों के यज्ञ अपने क्षेत्रों में करवाने का शक्ति सामर्थ्य अनुसार संकल्प करके गये हैं। अब यह दिखाई दे रहा है कि अगले वर्ष में यज्ञों की बाढ़ सी आ जायेगी और भारत भूमि पुनः यज्ञ भूमि बनकर रहेगी। अगले वर्ष में 23000 कुण्डों के यज्ञ कराने का जो शुभ संकल्प परम पूज्य आचार्य जी ने किया है उसकी पूर्ति के लिए 2000 शाखा मंत्री कटिबद्ध हो रहे हैं ऐसा लगता है कि गायत्री व यज्ञ की ढाल तलवार को लेकर निकले हुए हजारों योद्धा भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान व युग निर्माण के संकल्प की पूर्ति में अवश्य विजयी होंगे। अब गायत्री-परिवार का प्रत्येक सदस्य धर्म सेवा के लिए तत्पर हो रहा है। यदि उन्हें अब धर्म प्रचार में अपने शरीरों की आहुति भी देनी पड़े तो वह संकोच नहीं करेंगे।


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