ऐसा मेला कभी देखा था?

December 1958

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(श्री बालकृष्ण जी)

वेद माता गायत्री की असीम कृपा से महायज्ञ तो सानन्द सम्पन्न हो गया, पर अपने पीछे ऐसी अनेक परम्परा बनाने वाली घटनायें छोड़ गया जिनमें हम आगे चल कर पर्याप्त लाभ उठा सकेंगे। यज्ञ तो हजारों तपस्वी याज्ञिकों द्वारा पूर्ण हुआ, परन्तु देश के भिन्न-भिन्न स्थानों से जो दर्शक आये थे उनकी भावना भी यज्ञ के तपस्वियों जैसी ही दिखाई पड़ी ।

महायज्ञ के सभी उप-नगरों में तम्बुओं, छोलदारियों शामियानों में ठहरे हुये भिन्न-भिन्न भाषाओं के बोलने वाले व्यक्ति एक ही रंग में रंगे नजर आ रहे थे। भिन्न-भिन्न प्राँतों के होते हुये भी उनका पारस्परिक व्यवहार सौहार्दयुक्त था और वे चिर−परिचित मित्रों की तरह वस्तुओं का आदान-प्रदान करते रहते थे।

सड़क के किनारे लगी दुकानों के मालिक और मुनीम बिना नाम लिखे हुए ही यज्ञ में आये हुये यात्रियों को उधार सामान तो दे ही रहे थे परन्तु साथ-साथ अपने बर्तन भी उन्हें प्रयोग के लिये बिना किसी जमानत के दे देते थे वे केवल एक वस्तु देखते थे-वह थी पीले कपड़े। इन वस्त्रों के दर्शन मात्र से मथुरा के अधिकाँश दुकानदार, जो वैसे बड़े स्याने होते हैं, इन व्यक्तियों को सच्चे ऋषि सन्तान समझ कर उधार दे रहे थे। उनका यह कहना सत्य प्रतीत होता था कि “ यह सर्व प्रथम आदर्श मेला है।” इतनी अपार भीड़ कि जंक्शन स्टेशन से वृन्दावन की सीमा तक वृद्धों और बालकों को ही नहीं, अनेक स्वस्थ पुरुषों को भी चलने में बड़ी कठिनाई प्रतीत होती थी, उसमें दुकानदारों को ग्राहकों की माँग के अनुसार शीघ्र तोलने की भी फुर्सत नहीं रहती थी, और वे बहुत सा सामान को यों ही अनुमान से उठा कर दे देते थे, और वह भी उधार। पर धन्य है पूज्य आचार्य जी की शिक्षाओं द्वारा गढ़े गये इन नीति और चरित्र का महत्व जानने वाले नर श्रेष्ठों को कि सामान के पैसे दुकानदारों के भूल जाने पर भी स्वयं हिसाब करके लौटा रहे थे। दुकानदार कह रहा था— “बाबू साहब, आप मुझसे सामान नहीं ले गये।” पर याज्ञिक कह रहा था “नहीं, ये पैसे तुमसे लिये सामान के हैं, सो तुम्हें लेने होंगे।” धन्य है यज्ञ का प्रभाव और आचार्य जी की कार्य रूप में दी गई शिक्षाओं का सुपरिणाम कि जहाँ मेले ठेलों में ग्राहक और दुकानदार प्रायः एक दूसरे की आँखों में धूल झोंकने की चेष्टा किया करते हैं, यहाँ उससे सर्वथा भिन्न प्रकार का दृश्य ही देख ने में आ रहा था।

साधारण भीड़ भाड़ के मेलों में भी स्त्री-पुरुषों में परस्पर दुर्व्यवहार का होना और गाली गलौज तक हो जाना प्रायः देखा जाता है। परन्तु इस असाधारण मेले में यज्ञ का तप करने वाले तपस्वियों के प्रताप से गंदे विचार वालों की मनोवृत्तियाँ भी बदल गई। हर एक व्यक्ति माताओं को साक्षात गायत्री स्वरूप ही देख रहा था। याज्ञिक और दर्शक सभी महिलाओं को माता और बहिन समझ कर व्यवहार कर रहे थे। गन्दे व्यवहार तो क्या तपोभूमि से यज्ञ शाला तक तो गन्दे विचार भी यज्ञ-धूम के साथ आकाश में उड़ जाते मालूम पड़ते थे। सभी नागरिक इस अद्भुत परिवर्तन पर आश्चर्य कर रहे थे।

इस प्रकार के बड़े आयोजनों में पुलिस का काफी प्रबन्ध रहने पर भी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। परन्तु इस मेले में प्रत्येक व्यक्ति एक स्वयं सेवक के रूप में एक दूसरे की रक्षा का भार अपने ऊपर समझ कर व्यवहार कर रहा था। यज्ञ नगरों की सुरक्षा तो स्वयं सेवक करते ही थे परन्तु सड़क व दुकानों की सुरक्षा के लिये भी प्रत्येक रास्ता चलने वाला ध्यान रखता था। पुलिस का व्यवहार भी इस मेले में सर्वथा सराहनीय रहा, और जैसी शिकायतें अनेक अवसरों पर सुनने में आती हैं, उनका नाम निशान भी देखने सुनने में नहीं आया। एक बड़े पुलिस अधिकारी ने हमसे कहा था कि “इतनी बड़ी भीड़ का इंतजाम करने के लिये दो हजार पुलिसकर्मियों की आवश्यकता होती है, पर इस मेले की व्यवस्था थोड़े से काँस्टेबलों ने ही अच्छी तरह संभाल ली। यह गायत्री माता का ही प्रभाव मानना चाहिये।” स्वयं नगर कोतवाल सुरक्षा सम्बन्धी प्रबन्ध में पूरा ध्यान दे रहे थे और मध्य रात्रि में कई बार नगर का चक्कर लगाकर पहरे का निरीक्षण करते थे। रात्रि के समय एक ताँगे वाला किसी यात्री का एक बंडल भूल से या किसी प्रकार इधर-उधर ले गया। पुलिस वालों को सूचना देने पर और हुलिया बतलाने पर उन्होंने उसे थोड़ी ही देर में लाकर उपस्थित कर दिया और उस बंडल का पता लगा दिया।

इस प्रकार यह मेला अन्य बड़े-बड़े मेलों से भिन्न प्रकार का और एक प्रकार से विचित्र ही था। जहाँ अभी तक हमको ऐसे अवसरों पर प्रायः धक्कम धक्का, अशिष्टता, ठगने-ठगाने के दृश्य देखने को मिला करते थे यहाँ सब लोगों में सत्य व्यवहार और सेवा-भावना दिखलाई पड़ते थे। इसमें अधिकाँश लोग यही चाह रहे थे कि इस पुण्य आयोजन में हमें भी कुछ सेवा करने का मौका मिले तो मानव-जीवन सफल हो जाये। जन-समूह की मनोवृत्तियों में इस प्रकार का अद्भुत परिवर्तन देखकर अनेक नास्तिक विचारों के व्यक्ति भी ईश्वरीय शक्ति में विश्वास करने लगते थे और बहुत से गायत्री व यज्ञ के भक्त बन गये।


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