महायज्ञ की दैवी सफलता

December 1958

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(श्री अवधूत, गुप्त मंत्र विद्या विशारद, गोरे गाँव, बम्बई)

मेरे अनेक साथी मथुरा महायज्ञ के विषय में मेरे साथ यज्ञ-आयोजन की सफलता, असफलता के सम्बन्ध में तरह-तरह की बातें करते थे। वे इस विषय में बहुत से प्रश्न शंका की दृष्टि से पूछते रहते थे। इन सब का उत्तर देने के लिये मुझे बहुत सूक्ष्म विचार करना पड़ता था। जब गायत्री मन्त्र का जप करते-करते मैं अनेक प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने का प्रयत्न करता तब मुझे गायत्री की दैवी शक्ति द्वारा जो अनुभव होता वही अपने साथियों को बतलाता रहता। कितने ही व्यक्ति यह प्रश्न करते थे कि यह सब कैसे पूर्ण हो सकेगा? 20 ता. हो जाने पर भी पूरी-पूरी तैयारियाँ नहीं हो सकी थीं। हमको ऐसा नहीं जान पड़ता कि यह कार्य निर्विघ्न पूरा हो सकेगा? ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर मुझे गायत्री माता की दिव्य शक्ति द्वारा यही प्राप्त होता था कि श्री आचार्य जी को उच्च लोगों की आत्माओं की बहुत सहायता मिल रही है और ये आत्माएँ उन व्यक्तियों पर प्रभाव डालकर, जिन्होंने वर्ष भर तक गायत्री जप, मंत्र लेखन, चालीसा पाठ, अनुष्ठान, ब्रह्मचर्य, भूमि शयन आदि द्वारा अपनी देह को पवित्र किया है, इस कार्य को सफल बनायेंगी। इस प्रकार जो संदेश मुझे प्राप्त होते थे उनको मैं अपने साथियों को सुना देता और सुनने के बाद उनको प्रायः आश्चर्य ही हुआ करता था।

पर यह बात इतनी सत्य सिद्ध हुई कि जब मैं इस लेख के लिखने के एक दिन पहले मथुरा के जनरल पोस्ट आफिस में अपना तार मनीआर्डर स्वयं लेने गया, तब वहाँ के मनीआर्डर विभाग के सुपरवाइजर साहब श्री सकुरेन्द्रनाथ जी गुप्ता के साथ महायज्ञ के सम्बन्ध में चर्चा हुई। उस समय उन्होंने मुक्त कंठ से स्वीकार किया कि “ऐसा यज्ञ मथुरा नगरी के वर्तमान व्यक्तियों में से किसी ने कभी नहीं देखा था। मुझे महायज्ञ के 1024 कुण्डों में प्रत्येक गायत्री के रूप में ही दृष्टिगोचर होता था। जलयात्रा में प्रत्येक महिला का स्वरूप मुझे गायत्री माता के समान जान पड़ता था, जिनके ऊपर मथुरा के कमरों से स्थान स्थान पर पुष्प वर्षा की जा रही थी। पूर्णाहुति के बाद निकलने वाले विशाल जुलूस के घोड़े और उसके सभी व्यक्ति मुझे साक्षात गायत्री के रूप में दिखाई पड़ते थे। इसमें कोई दिव्य और अदृश्य शक्ति काम कर रही है, ऐसा मेरे हृदय और आँखों को अनुभव हो रहा था।” इन शब्दों को जब मैंने वहाँ हुये 5-7 व्यक्तियों के समक्ष सुना तो मुझे ऐसा लगा कि श्री आचार्य जी को इस ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की प्रेरणा करने वाला और कोई नहीं,स्वयं गायत्री माता ही हैं।

एक बार श्री आचार्य जी ने भी अपने प्रवचन में बतलाया था कि “इस प्रेरणा का आयोजन मैंने अपने दिमाग से नहीं किया। आयोजन करते समय मेरे चित्त में जो प्रेरणा उत्पन्न हुई उसी से यह कार्य सम्पन्न हुआ है। लोग शायद मुझे पागल कहें, तो भी यह ठीक है। क्योंकि यह कार्य मैंने अपने विचार से नहीं किया है। वरन् मेरे हृदय में न जाने क्यों ऐसी प्रेरणा हुई और उसी से मैंने इस कार्य का संकल्प कर डाला।” इससे समझा जा सकता है कि हृदय का महत्व कितना अधिक है। बुद्धिमान व्यक्ति जिस कार्य को मस्तिष्क-शक्ति से नहीं कर सकता उसे हृदय में रहने वाली शक्ति की प्रेरणा से कर सकता है। गायत्री-पंचाँग में भी हृदय का महत्व अधिक है। गायत्री का जप हृदय से करने से गायत्री देवी का निवास तुरन्त हृदय में हो जाता है। श्री आचार्य जी ने जैसा कि “गायत्री महाविज्ञान” में लिखा है कि “गायत्री का साधक साहस कर सकता है, वह मरुभूमि में भी हरियाली उत्पन्न कर सकता है।” इस बात की सचाई श्री आचार्य जी ने इस ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की सफलता द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध करके दिखा दी है।

जिस आयोजन की सफलता के सम्बन्ध में अनेकों को शंका थी, अनेकों को हँसी मजाक की सी बात जान पड़ती थी, और अनेकों को जिस पर पूर्ण श्रद्धा भी थी, उसकी सफलता असफलता की बहुसंख्य व्यक्ति प्रतीक्षा कर रहे थे। वह आयोजन आज सम्पूर्ण रीति से सफल हो चुका है। इसी शक्ति के आधार पर उनका समस्त भारत में 23 हजार कुण्डों के यज्ञ कराने का आयोजन भी सफल हुये बिना नहीं रहेगा। यह बात ऐसी है जो समय आने पर सब को प्रत्यक्ष दिखलाई दे जायगी। दूसरी बात यह भी है कि सच्चा गायत्री उपासक किसी दूसरे व्यक्ति से धन का दान नहीं माँगता। बिना माँगे जो कोई श्रद्धा पूर्वक जो कुछ भी भेंट करता है उसी को स्वीकार किया जाता है। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण भी श्री आचार्य जी ने इस आयोजन में दिखला दिया है, और इससे गायत्री-उपासकों को शिक्षा लेनी चाहिये। अभी इसी महीने की बात है कि मैंने स्वाभाविक रीति से आचार्य जी के सम्मुख अपना यह विचार प्रकट किया कि “मैं अपने साथियों द्वारा 24 हजार रु. इकट्ठा करके गायत्री तपोभूमि को भेंट करूं।” पर इसके उत्तर में उन्होंने शुद्ध हृदय से कहा कि “गायत्री तपोभूमि के लिये इस प्रकार धन इकट्ठा करके भेजने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। ईश्वर मेरे हर एक कार्य को अपनी इच्छा से पूरा कर ही देता है। उस धन का उपयोग तुम्हीं अपने प्राँत में गायत्री-ज्ञान प्रचार के निमित्त करते रहो। जहाँ धन इकट्ठा होगा वहाँ झगड़ा भी होगा, इस लिये मुझे इस बात की कुछ भी आवश्यकता नहीं जान पड़ती,” अस्तु।

एक विशेषता यह भी है कि तपोभूमि में जो धन, सामग्री आदि जनता द्वारा दिया जाता है उसे इकट्ठा करके संग्रह नहीं किया जाता। पर इसे शीघ्र से शीघ्र उपयुक्त स्थानों में उपयुक्त व्यक्तियों द्वारा खर्च कर दिया जाता है। इस बात से मेरे हृदय में श्री आचार्य जी के लिये ऐसा अनुमान होता है कि शायद कभी वे वास्तव में संन्यास तो नहीं ले लेंगे? गायत्री तपोभूमि का समस्त भार वे महायज्ञ के आत्मदानियों को देते जाते हैं और स्वयं अपने को पूर्ण रूप से ईश्वरेच्छानुसार जन-सेवा के लिये अर्पित करने चले जा रहे है। जिस प्रकार श्री शंकराचार्य जी अपना सब कार्य अपने चार शिष्यों को सौंपकर निवृत्त हो गये थे, उसी प्रकार श्री आचार्य जी को भी चार आत्मदानी ईश प्रेरणा से प्राप्त हो गये हैं। यद्यपि श्री आचार्य जी के संकल्प बहुत गुप्त होते हैं, पर उनके हृदय को जानने वाले उनको समझ ही लेते हैं, और उनके निश्चय किये हुये संकल्पों को कोई रोक भी नहीं सकता।


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