महायज्ञ के चार अनुपम बलिदान

December 1958

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गायत्री माता और यज्ञ पिता का-सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का सन्देश घर-घर पहुँचाने के लिये गायत्री-परिवार को अधिकाधिक त्याग, बलिदान करने को अग्रसर होना पड़े। कुछ आत्माओं को तो अपना अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित करना होगा। यज्ञ में बलिदान आवश्यक है। बलिदान के बिना यज्ञ पूर्ण नहीं होते। इस दृष्टि से इस महायज्ञ में चार बड़े बलिदान किये गये हैं।

जबकि अधिकाँश साधु-संत भक्ति की पूँजी जमा करने में लगे हैं; पण्डित-पुरोहित, दक्षिणा बटोरने में लगे हैं और उनका प्रधान कार्य धर्म-प्रचार एक प्रकार से रुका पड़ा है, बुड्ढ़े रिटायर्ड लोग नाती-पोतों का मोह छोड़कर घर से बाहर निकलना नहीं चाहते, ऐसी स्थिति में सच्चे गृहस्थों को ही अपने बच्चों के निर्वाह का जोखिम उठा कर भी उस धर्म-प्रचार के महान कार्य में लगना होगा। इस आवश्यकता का अनुभव गायत्री-परिवार की कुछ प्रबुद्ध आत्माओं ने किया है और उनमें से चार साधकों ने अग्रसर होकर भविष्य की सब प्रकार की कठिनाइयों का सामना करने का दुस्साहस ठान लिया है :-

1. श्री शम्भूसिंह जी

ये राजस्थान के कोटा जिले के करवाड़ ग्राम के निवासी इण्टर एस.टी.सी. हैं। रामगंज मंडी हाई स्कूल में सहायक अध्यापक रहकर पिछले सात वर्षों से गायत्री-प्रचार में संलग्न हैं। गत तीन वर्षों से राज्य कार्य से बचा, सभी समय माता गायत्री के प्रचार में लगाते हैं। पिछले महायज्ञ में ही ये अपने को इस कार्य के लिए अर्पण कर चुके थे। उस समय इनका आत्मदान स्वीकार करके 3 वर्ष की अवधि परीक्षार्थ दी थी। इन वर्षों में इन्होंने अपनी तनख्वाह में से परिवार के भोजन-वस्त्र का खर्च लेकर शेष गायत्री-प्रचार के कार्य में ही लगाया है। इनकी धर्म पत्नी लक्ष्मीदेवी ने भी एक पैसे का जेवर न बनवाने का संकल्प करके इन्हें इस मार्ग में बढ़ने का पूर्ण योग देकर प्राचीन क्षत्राणियों का प्रत्यक्ष उदाहरण किया है। इस वर्ष सहस्र कुँडी यज्ञ का कार्य आरम्भ होते ही उन्होंने संकल्प कर लिया था कि जो कुछ भी पहले का बचा जेवर व पैसा है उसे भी यज्ञार्थ व्यय करके पूर्णाहुति के अवसर पर सिवाय अपने शरीर और वस्त्रों के कुछ न रखेंगे। शम्भूसिंह अपने माता-पिता के एक मात्र पुत्र हैं और इनके इस प्रकार के त्याग से परिवार वालों को चिन्ता होना स्वाभाविक ही है। तो भी ये पिछले 6 महीने से छुट्टी लेकर राजस्थान और मध्य-प्रदेश के 14 जिलों में निरन्तर गर्मी वर्षा सहन करते हुये भ्रमण करते रहे हैं। नींद भोजन सबको गौण समझते हुए केवल माता गायत्री और यज्ञ पिता का सन्देश घर-घर पहुँचाना ही इन्होंने अपना एक मात्र ध्येय बना लिया है। इस प्रकार कार्य करते-करते जब इन्हें राज-सेवा का बन्धन असह्य जान पड़ने लगा तो हमने भी इनको सब बन्धनों से मुक्त होकर केवल धर्म प्रचार में लग जाने की अनुमति दे दी। ये अच्छे वक्ता, विचारक और लेखक हैं, जिससे हमारे लगभग सभी परिजन परिचित हैं। इनकी माता ने भी देश-धर्म के लिए अपनी संतान को प्रसन्नता पूर्वक सौंप कर माता सुमित्रा का सा उदाहरण उपस्थित किया है, जो अन्यों के लिये भी अनुकरणीय है। ये अभी 32 वर्ष के युवक ही हैं और भविष्य में गायत्री माता के कार्य की सफलता में इनसे बड़ी-2 आशायें हैं।

2. श्री बालकृष्ण जी

ये झाँसी (यू.पी.) के उच्च परिवार के 32 वर्षीय युवक हैं। इनके सम्पन्न और सम्मिलित कुटुम्ब में अनेक भाई-बहिनें, माता-पिता और अन्य सम्बन्धी जन हैं। आपकी धर्मपत्नी, दो पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ हैं। आपके बड़े भाई ‘इंडस्ट्रियल कालेज’ (झाँसी) में उप-प्रधानाध्यापक हैं। ये स्वयं भी अभी तक सेंट्रल रेलवे में सीनियर ड्राँगटमैन के पद पर 250 रु. मासिक की नौकरी करते रहे हैं। आपकी रुचि आरम्भिक जीवन से ही समाज सेवा के कार्यों में रही है। देश की सुप्रसिद्ध व्यायाम संस्था “लक्ष्मी व्यायाम-मन्दिर” के संचालन तथा उन्नति के लिये 15-20 वर्ष से प्रयत्न करते आये हैं और कई वर्ष मन्त्री भी रहे हैं। संस्था के उत्थान के लिये संघर्ष करते हुए आप कारावास के लिए भी प्रस्तुत हो गये। गायत्री-मन्दिर की स्थापना के पूर्व ही आप बड़ी लगन व उत्साह से गायत्री-प्रचार व ‘अखण्ड-ज्योति’ के ग्राहक बनाने में लगे रहे। ज्यों-ज्यों आचार्य जी से संपर्क बढ़ता गया आपकी लगन व उत्साह में तीव्रता से वृद्धि होती रही। वर्तमान महायज्ञ के आरम्भिक दिनों से तो आपके हृदय की तड़पन इतनी बढ़ गई कि वह बिना आत्मदान दिये शाँत न हो सकी। इन्होंने अपने कुटुम्बियों की इच्छा के विरुद्ध भी वह साहस किया जो सामान्य भौतिक उन्नति की कामना रखने वालों के लिए असंभव है। इनकी धर्मपत्नी ने भी इस अवसर पर अपूर्व धर्म-प्रेम और सत्साहस का परिचय दिया। जहाँ अन्य कई स्त्रियों की आँखों में आँसू थे वे इनके कार्य की प्रशंसा करके अपने को धन्य मान रही थीं और अन्य बहिनों को भी साहस बंधा रही थी। पिछले वर्ष इन्होंने झाँसी और बुन्देलखण्ड के क्षेत्र में गायत्री-प्रचार का बड़ा भारी कार्य किया है और सहस्रों की संख्या में गायत्री-उपासक बनाये हैं। भयंकर ग्रीष्म की परवा न करके आपने कई सौ मील बाइसिकल द्वारा दौरा किया और अनेक नई शाखाओं की स्थापना कराई। गत कई महीने से नौकरी से छुट्टी लेकर तपोभूमि में रहकर यज्ञ की व्यवस्था में दिन-रात संलग्न रहे।

3. श्री चमनलाल जी

ये एक अच्छे धनी मानी पंजाबी परिवार के युवक हैं जिनकी आयु लगभग 30 वर्ष की है और अभी तक बरेली के रेलवे दंगतर में 175) रु. मासिक की नौकरी करते थे। पिछले दो वर्षों से इन दोनों पति-पत्नि का जीवन गायत्री तथा यज्ञ प्रचार में ही लगा रहा है। गायत्री-परिवार से इनका सम्बन्ध दिसम्बर 1954 में हुआ और जनवरी 1955 के अखण्ड-ज्योति के ‘गायत्री ज्ञान अंक’ की हजारों प्रतियाँ इन्होंने बरेली के घर-घर और दुकान-दुकान में पहुँचा कर उल्लेखनीय प्रचार कार्य किया। स्वयं भी ‘गायत्री से समाज-सुधार’ और ‘यज्ञ क्यों करना चाहिए?’ नाम की दो पुस्तकें छपा कर लोगों को वेद माता की उपासना के लिए प्रेरित किया। नित्य-प्रति दंगतर से घर लौटते ही भोजन करने के पश्चात ये और इनकी पत्नी प्रचार कार्य में लग जाते थे। इनका यह संकल्प था कि जब तक कम से कम एक नया गायत्री-उपासक न बना लेंगे तब तक सोयेंगे भी नहीं। इस प्रकार इनको कई बार रात-रात भर जागरण करना पड़ा है। इस प्रकार इन्होंने केवल बरेली शहर में 1300 गायत्री-परिवार के सदस्य बनाये और बीसियों स्थानों पर यज्ञ कराये। जब से महायज्ञ का आयोजन किया गया इन्होंने बरेली, बदायूँ, पीलीभीत, सीतापुर, लखीमपुर, हरदोई, मुरादाबाद, मेरठ, बुलन्दशहर, बिजनौर, लखनऊ, बाराबंकी, गोंडा, बहराइच, रामपुर, शाहजहाँपुर आदि उत्तर-प्रदेश के अनेक जिलों का दौरा करके नवीन शाखाओं की स्थापना कराई और एक उप-केन्द्रीय संगठन बनाया। ये निरन्तर घूमकर शाखाओं को दृढ़ बनाते रहे और इनके द्वारा यज्ञ कराके स्वयं ही उनका संचालन करते रहे। इनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुलोचना देवी मैट्रिक पास हैं और इस वर्ष ट्रेनिंग कालेज में अध्ययन कर रही हैं। ये अपने पति के कार्यों में जिस प्रकार पूर्ण रूप से सहयोग कर रही हैं उसे देखते हुए धर्मपत्नी कहलाने की पूर्ण रूप से अधिकारिणी हैं। गत 6 महीने से ये अपनी नौकरी से छुट्टी लेकर तपोभूमि के दंगतर के काम को संभाल रहे थे।

4. श्री गिरिजासहाय जी

ये बानपुर (जिला झाँसी) के निवासी हैं और एक पाँच भाइयों के संपन्न परिवार में सबसे छोटे भाई हैं। इनकी आयु इस समय 31 वर्ष की होगी। इनके धर्मपत्नी,3 पुत्र और एक पुत्री है। सेंट्रल रेलवे में एक अच्छी जगह पर गत 12 वर्ष से कार्य कर रहे हैं। आपका प्रारम्भिक जीवन तो बड़ा सात्विक था पर नौकरी में आते ही बड़ा भोग-लिप्सा का और तामसिक प्रवृत्तियों से युक्त हो गया। पर गत 3 वर्ष से, जब से आचार्य जी के संपर्क में आये हैं और गायत्री परिवार के सदस्य बने हैं तब से साधुओं का सा त्यागमय जीवन व्यतीत करने लगे हैं और निरन्तर दिन-रात एक करके गायत्री-प्रचार में लगे रहते हैं। जब कभी इनको देखा गया इसी कार्य में संलग्न पाया। झाँसी में झोला टाँगे सदैव परिवार के कार्यों से घूमते ही दिखलाई पड़ते थे। जहाँ कहीं यज्ञ का समाचार पाया दौड़कर वहाँ पहुँचे और उसके संचालन में सब तरह का योग दिया। छुट्टियों के दिनों में तो सदैव कहीं न कहीं बाहर जाकर यज्ञ कराते रहे और शाखाओं की स्थापना करते रहे। झाँसी नगर के गायत्री-परिवार को संगठित करने और उसे व्यवस्थित रूप से संचालित करने में आपने बड़ा परिश्रम किया है। आप श्री बालकृष्ण जी के अन्यतम सहयोगी हैं और गत ग्रीष्म ऋतु में आपने उनको साथ लेकर बाइसिकलों पर 500 मील का दौरा किया था। इसमें दतिया, झाँसी, टीकम-गढ़, छतरपुर, हमीरपुर, बाँदा, कानपुर एवं इटावा तक जाकर आपने गायत्री और महायज्ञ का संदेश सुनाया जिसका परिणाम महायज्ञ के अवसर पर प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ रहा था। गत 6-7 मास से आप अपनी नौकरी की परवाह न करते हुये लगातार तपोभूमि में रहकर विविध यज्ञ सम्बन्धी पर लेन−देन की बहुत बड़ी जिम्मेदारी के कार्य को रात-दिन परिश्रम करके इस प्रकार संभाला कि कहीं कोई गड़बड़ी न हो सकी। आपकी धर्मपत्नी तथा बच्चे भी इनकी इच्छानुसार चलकर धर्म-कार्य में सहयोग देने वाले हैं।

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इन चार आत्म-दानियों के तप और त्याग को देखते हुए ही हमने इनको अपनी वर्तमान नौकरियों को छोड़कर समस्त जीवन गायत्री और यज्ञ के कार्य में लगाने की अनुमति दी है। ये लोग जीवन भर दान व चन्दा के पैसे को अपने लिए काम में न लायेंगे, वरन् अपने निज के परिश्रम और उद्योग से अपनी आजीविका उपार्जन करते हुए धर्म-प्रचार का कार्य करेंगे। चारों यद्यपि विभिन्न स्थानों में और विभिन्न परिवारों में पैदा हुए हैं, पर अब इन्होंने सहोदर भाइयों के समान आध्यात्मिक समाज बाद के आधार पर अपना एक कुटुम्ब बना लिया है। चारों के पास जेवर, मकान, नकदी या पैतृक सम्पत्ति के रूप में कुल मिलाकर लगभग 20 हजार की सम्पत्ति होगी। इसे इकट्ठी करके ये प्रेस, प्रकाशन गोपालन आदि कोई उद्योग आरम्भ करेंगे। इन चारों में से क्रमशः एक-एक व्यक्ति एक साल तक उस उद्योग की देखभाल करके सब परिवारों के निर्वाह की व्यवस्था करेगा और शेष तीन गायत्री-प्रचार के कार्य में पूर्ण निःस्वार्थ भाव से लगे रहेंगे। इस प्रकार व्यक्तिगत स्वार्थ और संग्रह वृत्ति को त्यागकर अपनी अच्छी आर्थिक सुविधाओं के आधार पर बने हुए सुख साधनों को छोड़कर ये उस धर्म को करेंगे जिससे साधु, संन्यासी, बाबाजी, पंडित, पुरोहित आदि विमुख हो गए हैं।

ऐसे अनुपम उदाहरण सब प्रकार स्तुत्य हैं। जिन घरों में कई व्यक्ति हैं वे यदि अपने परिवार में से एक-एक काम का व्यक्ति दे दें तो युग निर्माण की साँस्कृतिक पुनरुत्थान की महान् आवश्यकता की बहुत अंशों में पूर्ति हो सकती है। जिन नर- नारियों के ऊपर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नहीं हैं, जिनके मन में धर्म सेवा की लगन है उनके लिए तो इस आत्मदान का अनुकरण करना ही उचित है।

महायज्ञ में हुए यह चार बलिदान चार प्रकाश स्तम्भों की तरह प्रज्ज्वलित होकर सारे राष्ट्र में सद्-विचार पूर्ण सन्देश पहुँचावेंगे ऐसा विश्वास है। बलिदान की-आत्मदान की-जो पुनीत परम्परा इन चारों ने आरम्भ की है वह इन तक ही सीमित न होगी वरन् सहस्रों नर-नारी इनका अनुकरण करेंगे यह निकट भविष्य में ही स्पष्ट हो जायगा। युग निर्माण के लिए निश्चय ही ऐसे सहस्रों आत्मदानी शिल्पियों की आवश्यकता है यह आवश्यकता माता पूरी करेगी।

हर शाखा अपने यहाँ यज्ञ का

आयोजन करें

ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान में भाग लेने वाले 1 लाख व्रत धारियों में से मथुरा थोड़े से ही आये थे। शेष की साधना की पूर्णाहुति के लिए उनके क्षेत्रों में ही सामूहिक गायत्री यज्ञों की व्यवस्था होनी चाहिए। मथुरा से जाने के बाद प्रत्येक शाखा के संचालकों को अपने क्षेत्र में एक गायत्री यज्ञ का आयोजन करने में लगना है। उसका संकल्प प्रत्येक शाखा को यहाँ पूर्णाहुति के समय ही करके जाना चाहिए।

बहुत बड़े यज्ञों की व्यवस्था में अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ आती हैं। आज का युग असुरता प्रधान है। ईर्ष्या, द्वेष, जलन, अहंकार, आक्रमण की दुर्भावनाओं से भरे हुए लोगों के मन अनायास ही किसी को अच्छा काम करते देखकर जल भुनकर खाक हो जाते है और उसमें तरह-तरह के अड़ंगे लगाते हैं। धर्म व्यवसायी लोग तो इसे अपनी आजीविका का खतरा समझते हैं। पूजा पाठ, जप हवन, दूसरे लोगों को भी करते देखकर उन्हें अपना एकाधिकार नष्ट होता प्रतीत होता है। ऐसे लोग असत्य, भ्रम, पाखण्ड का आधार लेकर इन सत्कार्यों में सहयोग देने वाले लोगों के मनों में बुद्धि-भ्रम ही नहीं पैदा करते पर आक्रमणात्मक कार्य भी करते हैं। जिन्हें प्रचुर दक्षिणा एवं मलाई मिठाई न मिले वे ही दुश्मन बन जाते हैं।

यह कठिनाई महायज्ञ तक ही सीमित नहीं हर शाखा के सामने उपस्थित रहेगी। बहुत आयोजनों की आवश्यकताएं भी बहुत बड़ी होती हैं और उनमें विघ्न भी बहुत आते हैं इसलिये प्रत्येक शाखा छोटे-छोटे यज्ञ आयोजन करे। पाँच या नौ कुण्डों के सामूहिक यज्ञों की व्यवस्था आसानी से हो सकती है। जिस प्रकार मथुरा यज्ञ के लिए एक निश्चित जप उपवास संख्या बनाई गई है, वैसे ही प्रत्येक शाखा 24 लक्ष या सवा करोड़ सामूहिक जप का संकल्प करे। उपासक अधिकाधिक बनाये जाएं जप पाठ या लेखन में जिसे जो प्रिय हो वह उसी उपासना को करे। नियत अवधि में जब साधना पूरी हो जाय तो उन उपासकों या उनके परिवार वालों के द्वारा ही हवन कार्य सम्पन्न किया जाय। 24 लक्ष जप के लिए 24 हजार आहुतियों का और सवा करोड़ साधना के लिए सवा लाख आहुतियों के हवन पर्याप्त है। 24 हजार आहुतियों के लिए 5 कुण्डों का, सवा लाख आहुतियों के लिए 9 कुण्डों का यज्ञ पर्याप्त है। तीन दिन का कार्यक्रम रखा जाय नित्य-प्रातः हवन तथा तीसरे पहर एवं रात के प्रवचनों की व्यवस्था रहे। पूर्णाहुति में नारियल, सुपाड़ी अन्य धर्मप्रेमी भी चढ़ा सकें।

इन यज्ञ आयोजनों की व्यवस्था तथा अन्य आवश्यक बातों के सम्बन्ध में मार्ग दर्शन करने के लिए अगले मास की गायत्री-परिवार-पत्रिका में एक विस्तृत लेख छाप दिया जाएगा।

जिस प्रकार तीर्थ यात्रा से घर लौटने पर ब्राह्मण भोजन करा देने पर वह तीर्थ यात्रा पुण्य मानी जाती है, उसी प्रकार मथुरा महायज्ञ में आने वाले याज्ञिकों का पुण्य तभी पूर्ण माना जायगा जब वे अपने यहाँ जाकर एक सामूहिक यज्ञ की व्यवस्था करें। इस आयोजन का संकल्प हर याज्ञिक को मथुरा महायज्ञ में ही कर लेना चाहिए।


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