महायज्ञ में मैंने क्या देखा

December 1958

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(श्री सीतारामजी राठी, बोरीवली, बम्बई)

[गायत्री-महायज्ञ का मूल उद्देश्य तो देश की जनता की आध्यात्मिक भावनाओं को जागृत करना ही है, पर इस बार उसका बाह्य रूप भी ऐसा विशाल और चित्ताकर्षक हो गया कि उसने सब श्रेणियों के दर्शकों को बड़ा प्रभावित किया। इस सम्बन्ध में अनेक सज्जनों के मुख से यज्ञ की प्रशंसा सुनने में आ रही है। मथुरा में तो आमतौर से यह कहा जा रहा है कि इसके समान समारोह बहुत समय से देखने में नहीं आया। इस लेख के लेखक श्री सीताराम जी राठी ने पाठकों को महायज्ञ की एक ऐसी झाँकी कराने का प्रयत्न किया है जिससे वे दूर बैठकर भी इस महान समारोह का कुछ आनन्द प्राप्त करने में समर्थ होंगे।]

भारतवर्ष में होने वाले बहुत से यज्ञों को देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है, लेकिन यह 1024 कुण्डों का मथुरा का महायज्ञ सब दृष्टियों से अप्रतिम रहा। सर्व प्रथम इसकी विशेषता यह है कि इसमें पहले बड़ी धन राशि इकट्ठा करने का कुछ भी प्रयास नहीं किया गया न किसी बड़े धनिक को सहायक, संरक्षक बनाया गया। यज्ञ में भाग लेने वाले साधारण व्यक्तियों ने स्वेच्छा से जो कुछ इकट्ठा करके अर्पण किया उसी से काम चलाया गया और दूसरे भगवान के भरोसे रहा गया।

याज्ञिकों के ठहराने के लिये जो कई हजार तम्बू लगाये गये थे उनके नाम नारद नगर, व्यास नगर वशिष्ठ नगर, विश्वामित्र नगर आदि ऐसे सुन्दर रखे गये थे कि उनको सुनते ही पूर्वज ऋषियों के जमाने की याद आ जाती थी। ये तीन मील के क्षेत्र में फैले हुये नगर बिजली के प्रकाश में ऐसे सुन्दर दिखलाई पड़ते थे कि इनके क्रिया कुशल संचालकों को धन्यवाद दिये बिना रहा नहीं जाता था। यज्ञ मंडप की सजावट भी अद्वितीय थी। विशालकाय द्वार के अन्दर माता गायत्री का सुन्दर, मनमोहक, कलायुक्त मन्दिर, आचार्य और ब्रह्म के लिये अति सुन्दर सजावट युक्त मंडप परम दर्शनीय था। सामने 1024 कुण्डों की रचना शास्त्रोक्त रीति से पीले वस्त्र युक्त इतनी सुन्दर थी कि देखने वाले अपने सौभाग्य की सराहना करते थे। हवन के समय पीतवस्त्रधारी 3000 तपस्वी याज्ञिकों के समुदाय को एक साथ आहुतियाँ देते देखकर सतयुग की याद आ जाती थी।

“हम लोगों को अपनी पचास पीढ़ियों से ऐसा यज्ञ देखने का अवसर नहीं मिला और आगे देखने को मिलेगा इसकी संभावना कम है”- पं. श्रीराम शर्मा जी का यह कथन सार्थक प्रतीत होता है। लाखों की संख्या में अथाह जन समूह ने हवन कर्ताओं द्वारा यज्ञ करते समय परिक्रमा लगाकर महान पुण्यफल प्राप्त किया। विशेष भावुक जन तो बड़े परिश्रम से साष्टाँग प्रणाम करके परिक्रमा करते भी देखे गये। यज्ञ-स्थल की शोभा जीवन में फिर देखने को मिल सकनी असंभव है।

प्रवचन-पंडाल यज्ञ-मंडप के ठीक सामने ही था जिसमें दोपहर और रात्रि को जनता ने उच्चकोटि के महानुभावों के प्रवचन सुने। पं. बिहारी लाल जी आगरे वाले ने जनता को अपने संगीत से खूब आकर्षित किया। आचार्य श्री रामजी के त्याग का उदाहरण देते हुये उन्होंने बतलाया कि ऐसा व्यक्ति विरोध की चिन्ता क्यों करेगा-

जिनका अंगारों से परिचय, उनको मरने का भय।

रोका किसने दीवानों को, जलने वाले परवानों को। छोड़-छोड़ फूलों को, झेला है शूलों को॥

प्रज्ञाचक्षु महाराज ने मानवता का सुन्दर संदेश सुनाते हुये कहा- “ बड़ी डिग्रियाँ मानवता की कसौटी नहीं हैं। मानव वह है, जो समाज की सेवा करता है और समाज को जिसकी आवश्यकता प्रतीत होती है। आप सबको इस महायज्ञ में यह व्रत लेना चाहिये कि पारस्परिक भेद होने पर भी हम प्रेम पूर्वक एकता का भाव रखेंगे।”

आगरा के श्री पूर्णचन्द जी एडवोकेट ने सदाचार पर सारगर्भित भाषण करते हुये कहा- “बेईमान नहीं, ईमानदार बनो। बेईमान का साथ कोई नहीं चाहता, बेईमान भी ईमानदारों का साथ चाहता है। जो एक जगह बिक्री करता है उसे 100 जगह खरीदार बनना पड़ता है। बिक्रीदार एक जगह बेईमानी कर सकता है, पर जब अन्य 100 जगह उसके साथ भी वैसा ही बर्ताव किया गया तो क्या नतीजा निकलेगा।

श्री तेजपाल जी कवि ने पाँच-सात मिनटों में गायत्री-माता की स्तुति में जो भजन सुनाया उसे जनता ने बहुत पसन्द किया। अन्त में उन्होंने यही कहा—

चार वेद षट शास्त्र में बात मिली हैं दोय। सुख देये सुख होत है, दुख देये दुख होय॥

बहिन सुमन गुप्ता ने आचार्य जी के विरोधियों के छक्के छुड़ाने वाला भाषण करते हुये कहा—

“भगवान बुद्ध के समय में उनका एक भी ऐसा अनुयायी नहीं था जो साथ देता। दूसरी तरफ विरोधी कमर कसे खड़े थे। लेकिन सत्य के प्रभाव ने विरोधियों को परास्त किया और वे ही विरोधी भगवान-बुद्ध के अनुयायी शिष्य बने। इसी प्रकार वह दिन भी जल्दी आ सकता है जब आचार्य जी के विरोधी उन्हीं से दीक्षा लें।” बहिन सुमन गुप्ता कालेज की डबल ग्रेजुएट हैं। फिर भी उसने यही कहा कि “कालेज की शिक्षा अधूरी है। अगर वह पूरी होती तो आज जो शिक्षित बेकार फिर रहे हैं वे तब बेकार न रह सकते ।”

साबरमती के ब्रह्मानन्द जी ने तो समस्त विरोध करने वालों को चैलेंज देकर कहा कि- “भाइयों, गायत्री जपने से जो कुछ पुण्य मिले वह तो आपका, और जिस किसी को यह शंका हो कि स्त्रियों और अन्य वर्णों के गायत्री जपने से पाप लगेगा तो इस सम्पूर्ण पाप का मैं जिम्मेदार हूँ। भगवान को साक्षी रखकर तीन बार कहता हूँ कि अगर इसमें पाप होता हो तो वह मेरे सिर पर रहे। दुनिया में ऐसा कोई रोग नहीं है जो गौ का दूध सेवन करने और गायत्री जप करने से दूर न हो जाय।”

महान गायत्री-प्रचारक श्री शंभुसिंह जी ने आचार्य जी को ईश्वरत्व की भावना से देखते हुये कहा—”अब भगवान राम रावण का नाश करने के लिये धनुष बाण लेकर नहीं आवेंगे। अब भगवान कृष्ण कंस को मारने के लिये छाती पर चढ़ के मुक्के मारने से काम नहीं ले सकते। अब तो भगवान समय के अनुसार लेखनी अथवा एटम बम लेकर आयेगा-विज्ञान वेत्ता बनकर आयेंगे।”

आचार्य श्री राम जी ने अपने 3-4 दिन के सारगर्भित भाषणों में कहा— हमको त्यागी, तपस्वी निःस्वार्थ जन सेवक चाहियें जो जन-जन के मन-मन में सच्ची सेवा और त्याग का महात्म्य बतावें। जब हमारा समाज स्वार्थ में डूबे हुये लाखों साधुओं को रबड़ी मालपुआ खिलाता है तो क्या निःस्वार्थिओं को रोटी भी नहीं मिलेगी? अवश्य मिलेगी, और इसकी जिम्मेदारी हम लेते हैं। जो व्यक्ति कुछ करने की क्षमता रखते हों और जिनका स्वास्थ्य ठीक हो वे धर्म-प्रचार में लगने को तैयार हो जायें, हम उन्हें सिखायेंगे, पढ़ायेंगे, संगीत, भाषण आदि की शिक्षा देकर भारतीय संस्कृति का प्रचारक बनायेंगे। आप हमारे साथ काम करने के लिये अपना समय दें, फिर कार्य करने की व्यवस्था करना हमारा काम है पर हमें ऐसे एक-दो नहीं हजारों, लाखों जन-सेवक चाहियें। देश में धर्म की जागृति का कार्य करना बड़ा जरूरी है देश ऐसे आदर्श बलिदानियों की माँग करता है जो शंकराचार्य की तरह भगंदर का फोड़ा होते हुये भी समस्त भारतवर्ष में एक कोने से दूसरे कोने तक धर्म प्रचार करते हुए भ्रमण करते रहे। हमको ऐसे प्रचारक चाहियें जो ऋषि दयानन्द की तरह समाज में नवीन जागृति का मंत्र फूँक दें। हमको शिवाजी जैसे वीरों की आवश्यकता है जो धर्म रक्षा हेतु सदैव प्राणों को हथेली पर लिये रहें। हम आपका स्वागत करते हैं और यही कहते हैं कि धर्म के लिये कुछ कुर्बानी करो। हमारी यह भूख कुछ आदमियों से तृप्त होने वाली नहीं है— यह ऋषि जमदग्नि की भूख है- लाखों आदमियों के बलिदान की भूख है।”

यज्ञ आरम्भ होने से प्रथम दिन जलयात्रा का जुलूस बड़ा प्रभावशाली था। माता भगवती देवी (आचार्य जी की धर्म पत्नी) सबसे आगे अन्य स्त्रियों के साथ यज्ञ का कुम्भ लिये ऐसी जान पड़ती थीं मानों अमृत बरसाने जा रही हों। अन्य समस्त पीत वस्त्र धारिणी महिलाओं का दृश्य भी ऐसा ही लग रहा था मानो वे जमना मैया से अमृत माँगने जा रही हों।

पूर्णाहुति के बाद जो विशाल जुलूस निकाला गया उसके विषय में तो सभी मथुरा निवासी यह कह रहे थे कि ऐसा जुलूस शायद ही कभी यहाँ निकला हो। जुलूस के आगे नारद, राजा हरिश्चन्द्र, भगवान बुद्ध, महात्मा गाँधी, महर्षि दयानन्द आदि के दर्शनीय चित्र झाँकियाँ सजा कर निकाले गये थे। गायत्री मंत्र से युक्त यज्ञ-भगवान का रथ 10 सफेद अश्वों के साथ जुलूस के मध्य में चल रहा था। उसके पीछे सैंकड़ों शाखाओं के याज्ञिक अपने-अपने झंडे लेकर, जिन पर गायत्री मंत्र लिखा था, चल रहे थे। “गायत्री माता” तथा “यज्ञ भगवान” के जय घोष से आकाश गूँज रहा था। ‘पूज्य आचार्य जी की जय हो’ ‘हमारा युग निर्माण का संकल्प पूरा हो’ ‘विश्व का कल्याण हो’—आदि के नारे लगाये जा रहे थे। आचार्य जी जुलूस के साथ पैदल चल रहे थे। रास्ते के सब मकानों की छतें और सड़कें जुलूस देखने के लिये एकत्रित जन समूह से भरी थीं। जुलूस पर निरन्तर फूलों की वर्षा हो रही थी और थोड़ी-थोड़ी दूर पर आचार्य जी को फूलों के हार पहिनाये जा रहे थे। इस अद्वितीय समारोह के पचासों स्थानों पर फोटो खींचे गये। जब जुलूस घीयामंडी में आचार्य जी के निवास स्थान के सामने होकर निकला तो आचार्य जी की माता तथा बहिनों ने उनकी आरती उतारी, मानो वे अपनी इस अमूल्य निधि को धर्म और जाति की सेवा के लिये अर्पण कर रही हों, इस पुनीत दृश्य को देखकर अनेक लोगों के नेत्रों से प्रेमाश्रु बहने लगे। इस प्रकार जुलूस सम्पूर्ण नगर की 5 मील की परिक्रमा करके रामदास की मंडी होता हुआ रात के 9 बजे यज्ञ नगर में वापस आया। तपोभूमि में वापस आने पर श्री द्रोपदी देवी जी ने आचार्य जी तथा चारों बलिदानी वीरों की आरती उतारी।

कार्तिक शुक्र 15 को देवताओं की दीपावली मनाई जाती है। उस दिन स्वर्ग में देवताओं ने गाजे बाजे के साथ उत्सव किया होगा। इधर भूमंडल में माता गायत्री ने अपने लाड़ले पुत्र श्री राम शर्मा जी की मंगलमय दिवाली मनवाई और भू (पृथ्वी) को धन्य-धन्य किया।


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