महायज्ञ का महा-समारोह

December 1958

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(श्री सत्यनारायणसिंह, “साहित्य विशारद”)

गायत्री तपोभूमि की तरफ से जो देश व्यापी ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का आयोजन गत वर्ष से चल रहा था पूर्ण रूप से सफल हो गया और उसकी पूर्णाहुति ऐसे समारोह के साथ सम्पन्न की गई, जिसका उदाहरण अन्यत्र मिल सकना कठिन ही नहीं असंभव है। इस पूर्णाहुति में भाग लेने के लिये एक लाख व्रतधारी धर्म सेवक कठोर साधना में लगे हुये थे, क्योंकि तपोभूमि की ओर से घोषणा कर दी गई थी कि इस यज्ञ में वे ही व्यक्ति हवन कुण्डों पर बैठ सकेंगे जो वर्ष भर में 1। लाख जप, 52 उपवास, ब्रह्मचर्य पालन, भूमि शयन आदि तपश्चर्या कर चुके होंगे।

इस महान आयोजन की सबसे बड़ी विशेषता यह रखी गई थी कि इसे धन के भरोसे पर नहीं रचा गया था, वरन् त्याग और बलिदान के आधार पर इसे प्रतिष्ठित किया गया था। वर्तमान समय में पूँजीपति वर्ग में अनेक कारण ऐसे अनिवार्य दोष उत्पन्न हो गये हैं जिनके कारण उसके पैसे को शुद्ध सात्विक नहीं समझा जा सकता। भ्रष्टाचार, अनैतिकता, असत्य,हिंसा आदि सभी प्रकार के दोषों का आज कल के व्यवसाय में कम या अधिक परिणाम में समावेश हो गया है। वर्तमान युग में बहुत बड़े कारोबारों में धर्म और नीति का ध्यान रखा जाना असम्भव-सा जान पड़ता है। इसलिये महायज्ञ के लिये सार्वजनिक चन्दा जमा करने से इस बात की पूरी सम्भावना थी कि नीति-अनीति का द्रव्य आने से उसका उद्देश्य सफल न हो सकेगा। इस कारण यही निश्चय किया गया कि तपस्वी साधक आपस में मिल जुलकर जो कुछ थोड़ा-सा अन्न-जल जमा करेंगे, उसी से अत्यंत मितव्ययिता पूर्वक साग, सत्तू, रोटी भात का प्रबन्ध करा जायगा। अन्य अनेक कार्यों को भी अधिकाँश में इन्हीं उपासकों ने अपने श्रमदान से पूरा किया था। अनेक साधकों ने हवन सामग्री में पड़ने वाली कई सामग्रियाँ स्वयं अपने हाथों से इकट्ठी की थीं। हवन में पड़ने वाला शुद्ध घी एक-एक दो-दो छटाँक करके गाँव-गाँव से जमा किया गया। हवन कुण्ड खोदने, यज्ञशालायें बनाने, भोजन पकाने, कुँओं से पानी भरने, सफाई करने, पहरा देने आदि के कार्य प्रायः इन्हीं धर्म सेवकों द्वारा पूरे किये गये। इस प्रकार इस महायज्ञ का आधार धन-संग्रह नहीं, वरन् श्रद्धा, सेवा, परमार्थ और श्रमदान रखा गया, और मुख्य रूप से इन्हीं के आधार पर इसमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की जा सकी।

दूसरी विशेषता इसकी यह रखी गई कि याज्ञिक गण और अन्य व्यक्ति केवल आहुतियाँ डाल कर अथवा यज्ञ की परिक्रमा करके ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री न समझ लें, वरन् यज्ञ का जो वास्तविक सन्देश है, उसके भीतर जो महान उपदेश निहित हैं,उनको अपने जीवन में चरितार्थ करें। इसलिये इस यज्ञ में यज्ञ करने वालों से दक्षिणा और भेंट-पूजा के बजाय यह प्रतिज्ञा कराई गई कि वे धार्मिक और साँस्कृतिक पुनरुत्थान के रचनात्मक कार्यों में जीवन भर संलग्न रहेंगे। मनुष्यों के चरित्र में आस्तिकता, संयमशीलता, नैतिकता, सेवा, सचाई, ईमानदारी, समानता, एकता, सामूहिकता, सहिष्णुता, आत्मीयता, कर्त्तव्य निष्ठा, उदारता, विचारशीलता आदि सत्प्रवृत्तियों की स्थापना के लिये संगठित रूप से निरन्तर प्रयत्न करते रहेंगे। समाज में फैली हुई स्वार्थपरता, बेईमानी, संकीर्णता, आलस्य, विलासिता, नशेबाजी, माँसाहार, जुआ, दहेज, बाल विवाह, मृत्युभोज आदि दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध डट कर संघर्ष करने में प्राण तक उत्सर्ग करने का संकल्प करेंगे। इस प्रकार यह महायज्ञ केवल कर्मकाण्ड का एक विराट आयोजन होने के बजाय युग-निर्माण का एक ठोस कदम था।

इसकी तीसरी विशेषता यह थी कि इसमें साधन, जप, हवन आदि के सभी कार्य लोगों ने अपने हाथ से किये थे। बीच के धर्म व्यवसाइयों का इसमें कोई दखल न था। हमारे देश में कितने ही समय से यह प्रवृत्ति फैली हुई है कि समस्त धर्म क्रियाएं विशेष पंडितों या पुरोहितों द्वारा ही कराई जायँ। वे ही मन्त्रों का उच्चारण करते हुए बिना कुछ समझाये-बुझाये लोगों से कठपुतली की तरह क्रियायें कराते जायें और बीच-बीच में प्रत्येक बात के लिये दक्षिणा के पैसे रखाते जायें। इसका परिणाम यह हुआ था कि लोग धर्म कार्यों की विधि, नियम और वास्तविक स्वरूप को भूल गये थे और पंडितों के सहारे चलने का उनका स्वभाव हो गया था। इससे आध्यात्मिकता का लोप हो गया था और धर्म कार्य वास्तविक आत्मोन्नति करने की अपेक्षा खिलवाड़ की तरह बन गये थे। इसलिए इस महायज्ञ में यज्ञकर्ताओं द्वारा वर्ष भर तक धार्मिक साहित्य पठन-पाठन का- स्वाध्याय का नियम रखा गया, जिससे वे इन कर्म काण्डों, धार्मिक क्रियाओं के मर्म को समझ सकें और उन्हें स्वयं अपने हाथ से करते हुये उनका वास्तविक लाभ उठा सकें। इसके लिये यज्ञ के आरम्भ में ही गायत्री-परिवार के कुलपति पं. श्रीराम शर्मा जी आचार्य ने महायज्ञ में भाग लेने वाले प्रत्येक धर्म प्रेमी के लिये पूर्णाहुति के अवसर पर निम्नलिखित तीन व्रतों को धारण करने का आदेश दिया था—

(क) व्यक्तिगत जीवन में- नैतिकता, मानवता, सेवा, सचाई, उदारता, कर्त्तव्य निष्ठा, आस्तिकता आदि आदर्शों को जीवन में ओत-प्रोत करना।

(ख) सामाजिक जीवन में— नागरिकता, सामूहिकता, समानता, एकता, सहिष्णुता, ईमानदारी, सज्जनता आदि सत्प्रवृत्तियों की वृद्धि करना।

(ग) देश में फैली हुई बुराइयों, जैसे स्वार्थपरता, भ्रष्टाचार, संकीर्णता, विलासिता, दुर्व्यसन, वैवाहिक कुरीतियाँ, मृत्यु-भोज आदि को दूर करने के लिये संघर्ष करना।

यज्ञ-नगर का निर्माण

इस विराट महायज्ञ के लिये सबसे पहली कठिनाई तो भूमि सम्बंधी उपस्थित हुई। यज्ञ के व्यवस्थापकों ने मथुरा नगर के आस-पास की समस्त जमीनें छान डालीं, पर कहीं इतनी बड़ी एक जमीन न मिल सकी कि जिसमें 1024 कुण्ड बनाये जा सकें, समस्त याज्ञिक निवास कर सकें और उनके भोजन, शौच, स्नान आदि की उचित व्यवस्था हो सके। अन्त में नगर से लगभग दो मील की दूरी पर बिरला मन्दिर के आगे की जमीनें लेनी पड़ीं और वहाँ पर सड़क के एक ओर यज्ञशाला और दूसरी ओर सभा पंडाल का निर्माण किया गया। यज्ञशाला लगभग एक फर्लांग लम्बी और इतनी ही चौड़ी थीं और यज्ञ कुण्डों के ऊपर पीले रंग की बहुत बड़ी- चाँदनियाँ तान दी गई थीं। यज्ञशाला के 1024 कुण्ड, आठ-आठ कुण्डों की 128 यज्ञशालाओं में बाँट दिये गये थे, जिनके चारों ओर जौ के हरे-हरे पौधे लहलहा रहे थे। यज्ञ के ब्रह्म तथा आचार्य के बैठने के स्थान और गायत्री माता का मन्दिर काफी सुन्दर बनाये गये थे। इसी के ठीक सामने सभामंडप भी लगभग इतनी ही लम्बी चौड़ी जमीन पर बनाया गया और उसके पास चिकित्सालय, सेवा समिति, पुलिस आदि के टेण्ट लगे थे। सभा-मण्डप के बगल में एक पक्के अहाते के भीतर प्रदर्शिनी का बाजार था, जिसमें धार्मिक पुस्तकों, माला, वस्त्र आदि की दुकानें लगाई गई थीं। इसके बाद हलवाइयों और चाय आदि की दुकानों का एक बाजार लगाया गया था, जिससे नगर से दूरवर्ती इस स्थान पर लोगों को आवश्यक वस्तुएं प्राप्त हो सकें।

आठ उप-नगर

विभिन्न प्राँत के उपासकों को ठहराने को यज्ञनगर के अंतर्गत आठ उपनगर बसाये गये थे जो गायत्री तपोभूमि से लेकर प्रेम महा विद्यालय तक फैले हुए थे। इनका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है—

(1) नारद नगर- यह तपोभूमि से लगभग सौ डेढ़ सो गज के फासले पर राजा मुरसान की कोठी में था जिसमें विशेष रूप से मध्य प्रदेश के उपासक ठहराये गये थे। इसमें एक भोजनालय भी था जिसमें नित्य कई हजार व्यक्तियों को भोजन कराया जाता था इसके व्यवस्थापक हमीरपुर के एक बहुत बड़े जमींदार श्री बजरंग वल्लभसिंह नियुक्त किये गये थे।

(2) दधीच नगर— यह तपोभूमि के निकट जय सिंहपुरा गाँव के ठीक सामने बसाया गया था। इसमें विशेष रूप से साधु महात्माओं के रहने की व्यवस्था की गई थी।

(3) व्यास नगर— यह जयसिंहपुरा गाँव के बाहर वृन्दावन की सड़क के दाहिनी तरफ था। इसमें सौराष्ट्र, बम्बई, बिहार, उड़ीसा, केरल आदि के उपासकों के रहने की व्यवस्था की गई थी। इसके भीतर नहाने के लिये जल रखने को एक बहुत बड़ा पक्का कुण्ड बनाया गया था। इसके व्यवस्थापक अहमदाबाद के श्री मणीभाई पटेल थे।

(4) पातंजलि नगर— यह व्यास नगर के ठीक सामने सड़क के बाँयी तरफ था। इसमें मंदसौर, श्योपुर, इंदौर, गुना, निगाड़ आदि के प्रतिनिधि ठहराये गये थे। व्यवस्थापक श्री कन्हैयालाल जी वैद्य (चचोर वाले) थे।

(5) वशिष्ठ नगर— यह पातंजलि नगर से आगे सड़क के बाँई ओर बिरला मन्दिर तक फैला हुआ था और संभवतः विस्तार में सबसे बड़ा था। इसमें राजस्थान के उपासकों का निवास था। व्यवस्थापक श्री रामस्वरूप जी गांधी थे।

(6) याज्ञवलक्य-नगर— यह प्रधान यज्ञ -शाला के चारों ओर बसाया गया था और इसमें महायज्ञ के कार्यकर्ताओं तथा विशिष्ट उपासकों का निवास था।

(7) भारद्वाज-नगर— यह आसाम, आन्ध्रा, दिल्ली, पंजाब आदि के उपासकों के लिये सभा-मंडप के बगल में और पीछे की तरफ था।

(8) विश्वामित्र-नगर— यह यज्ञशाला के आगे उसी की बगल में यू.पी. के उपासकों के लिये था। इसके व्यवस्थापक श्री जितेन्द्रवीर नियुक्त किये गये थे।

श्रमदान का अद्भुत दृश्य

इन नगरों और यज्ञशाला आदि के निर्माण और व्यवस्था में सब श्रेणियों के उपासकों ने जो श्रमदान किया उसे देखकर पूज्य आचार्य जी के ये वाक्य बिल्कुल सत्य प्रतीत हो रहे थे कि “ महायज्ञ पैसे द्वारा नहीं पसीने द्वारा पूरा किया जायगा।” वास्तव में इस अवसर पर यज्ञ नगर की सड़कों और मार्गों पर ऐसे दृश्य दिखलाई दिये जिनकी कुछ समय पहले लोग कल्पना भी नहीं करते थे। बड़े बड़े श्रीमानों और उच्च सरकारी पदाधिकारियों से लेकर साधारण कोटि के किसान और दुकानदार सब प्रकार के भेद भावों को भूल यज्ञ भगवान और गायत्री माता की सेवा समझ कर प्रत्येक काम को खुशी से कर रहे थे और जरूरत होने पर बड़े-बड़े बोझों को पीठ पर और सर पर ढोने में भी संकोच नहीं करते थे। ता. 21 को प्रातःकाल 15-20 महिलाओं ने कुछ पुरुषों और बालकों की सहायता से यज्ञ कुण्डों के चारों तरफ की भूमि को लीपने का कार्य आरम्भ किया। दोपहर के समय जब उनसे भोजन के लिये जाने को कहा गया तो उत्तर मिला कि अभी काम बहुत काफी बचा है और भोजन के लिये आने जाने में व्यर्थ ही एक डेढ़ घण्टा का समय चला जायगा। इस लिये उन्होंने स्वयं अपने पास से थोड़ा सा गुड़ व चना मँगाकर 5-7 मिनट में ही जलपान कर लिया और बराबर काम में लगी रहीं। इस तल्लीनता का परिणाम यह हुआ कि जिस कार्य को बाजार के 50 मजदूर भी कठिनता से पूरा कर पाते उसको इन देवियों ने समय के भीतर ही पूरा कर डाला। स्मरण रखना चाहिये कि ये सभी महिलायें बड़े घरों की शिक्षित स्त्रियाँ थी और बढ़िया कपड़े पहिने थीं। पर सेवा-कार्य को दृष्टि में रखकर किसी ने अपने कपड़ों के खराब होने का खयाल तक न किया। इन दृश्यों को देख कर प्रतीत होता था कि पूज्य आचार्य जी ने भारतीय धर्म और संस्कृति के पुनर्निर्माण की जो योजना तैयार की है वह इस महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद शीघ्र ही कार्य रूप में परिणित हो सकेगी और हम गायत्री उपासकों का एक समाज स्थापित कर सकेंगे जो झूँठे ढकोसलों और हानिकारक रूढ़ियों को त्याग कर सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धान्तानुसार जीवन व्यतीत करेगा।

याज्ञिकों और उपासकों की अपार भीड़

महायज्ञ के याज्ञिकों का आना तो कई दिन पहले से आरम्भ हो गया था, पर 21 ता. से आने वाली भीड़ का ताँता लग गया। दिन रात में किसी भी समय स्टेशन से यज्ञ नगर तक याज्ञिकों को मोटर, बस, ताँगा, रिक्शा, इक्का में आते हुये देखा जा सकता था। रात के तीन बजे भी यज्ञ नगर के कैम्पों में नवीन आगन्तुक उतरते थे और उनके लिये स्थान की व्यवस्था की जाती थी। 22 ता. से तो यह जन-समूह एक बरसाती नदी की तरह उमड़ने लगा और कुछ प्रेक्षकों के अनुमानानुसार 23 ता. को प्रातःकाल तक यज्ञ-नगर में ठहरने वालों की संख्या 50 हजार तक पहुँच गई। इसके बाद भी प्रतिदिन नवीन भागीदार और दर्शक आते रहे और 25 ता. को आचार्य जी ने अपने भाषण में समस्त आगंतुकों की संख्या एक लाख तक बतलाई। इसमें तो सन्देह नहीं कि तपोभूमि से लेकर प्रेम महाविद्यालय तक का विस्तीर्ण भूभाग, तमाम सड़कें, मैदान, खेत आदि इस समय नरमुँडों से भरे नजर आते थे और एक मील का रास्ता तय करने में एक घंटे के लगभग लग जाता था। चारों तरफ विभिन्न प्रकार की पोशाकें पहिने, तरह- तरह की भाषाएँ बोलने वाले व्यक्तियों के समूह दिखलाई पड़ते थे। स्टेशन पर प्रत्येक ट्रेन यात्रियों से ठसाठस भरी आ रही थी जिनमें पौन हिस्सा पीले वस्त्र वाले ही दिखलाई पड़ते थे। यात्रियों की जबानी यह भी सुनने में आया कि अनेक स्टेशनों पर यज्ञ में आने वाले लोगों की भीड़ इतनी ज्यादा है कि टिकट देना बन्द कर दिया गया है। एक व्यक्ति ने बतलाया कि ग्वालियर स्टेशन पर 300 व्यक्तियों को टिकट न मिलने से वापस जाना पड़ा। कोटा में भी सैंकड़ों व्यक्ति स्टेशन से लौटा दिये गये।

याज्ञिकों का अपूर्व उत्साह

यद्यपि सब शाखाओं को सूचना दे दी गई थी कि पहले से स्वीकृति पाने वाले और श्रद्धालु याज्ञिक ही भेजे जायें। जो लोग किसी कारणवश आने में हिचकिचाते हों उनको अवश्य रोक दिया जाय क्योंकि अत्यधिक भीड़ हो जाने से ठीक व्यवस्था न हो सकेगी। फिर भी लोग असुविधा का ध्यान न करके सैंकड़ों कोस की दूरी से चले आये। अनेक उत्साही व्यक्तियों ने तो कई-कई सौ मील का रास्ता बाइसिकल पर ही तय किया। सौराष्ट्र के ध्राँगध्रा नगर से श्री शशिकाँत और श्री रिषीकेश नाम के दो सदस्य 600 मील से अधिक की यात्रा करके मथुरा पहुँचे थे इसी प्रकार सौराष्ट्र के ही लाखनका नामक स्थान के निवासी श्री पुरुषोत्तमदास पोपट लाल सोनी और श्री मूलजी नरसी पटेल इससे भी अधिक दूर से बाइसिकल द्वारा आये। रायपुर(म.प्र.) के भी कई युवक यज्ञारम्भ से कई दिन पहले बाइसिकलों पर मथुरा पहुँच गये थे और यहाँ पर उन्होंने आसपास के स्थानों में भ्रमण करके यज्ञ का प्रचार-कार्य भी किया। इटावा से भी श्री महावीर सिंह और मिश्रा जी मथुरा तक बाइसिकलों पर ही आये थे। ये समस्त गायत्री-भक्त रास्ते भर यज्ञ और गायत्री का प्रचार करते तथा परचे बाँटते हुये आये थे। रास्ते में जितने बड़े कस्बे नगर मिले उन सबमें इन्होंने गायत्री तपोभूमि का सन्देश सुनाया। सीसोली शाखा से भी श्री अजबदत्त नाम के वृद्ध व्यक्ति जो दृष्टिहीन थे अकेले ही कई सौ मील की यात्रा करके यज्ञ नगर में पहुँच गये।

प्रभात फेरी

22 ता. को प्रातःकाल चार बजे ही जोर की घण्टा ध्वनि ने दूर-दूर के स्थानों में ठहरे उपासकों को जगा दिया और विभिन्न दल झण्डे और अपनी शाखाओं के साइन बोर्ड लेकर प्रभातफेरी के लिये निकल पड़े। इनमें से कितने ही तो यज्ञ नगर की सड़कों और मार्गों पर भजन और कीर्तन करते हुये भ्रमण करते रहे और लगभग 4-5 हजार उपासकों का एक बड़ा दल नगर की ओर गया और समस्त मुख्य सड़कों पर कीर्तन गाते हुये और ‘गायत्री माता’ तथा “यज्ञ भगवान” की जय-जयकार की ध्वनि करता हुआ लगभग साढ़े आठ बजे वापस लौटा। इस धर्म फेरी से मथुरा नगर निवासियों को महायज्ञ की धूमधाम आरम्भ होने की सूचना मिल गई और वे भी उसमें सम्मिलित होकर दर्शन करने को प्रस्तुत हो गये।

जल-यात्रा

प्रभात फेरी की तरह जल-यात्रा का जुलूस भी दर्शनीय था, जो इसी दिन सुबह 9 बजे पूज्य आचार्य जी की धर्मपत्नी माता भगवती देवी के नेतृत्व में निकाला गया। इसमें 128 देवियाँ तो यज्ञ के मंगलघट लिये थीं और कई सौ उनके पीछे जुलूस के रूप में चल रही थीं। पुरुषों की संख्या अधिक न थी वे केवल मार्ग की व्यवस्था ठीक रखने के लिये साथ गये थे। सच पूछा जाय तो इस जल-यात्रा ने मथुरा नगर के अधिवासियों पर अपूर्व प्रभाव डाला और यज्ञ के सम्बन्ध में उनके भाव बहुत अधिक सहानुभूति पूर्ण हो गये। जैसे ही यह महान शोभा-यात्रा चौक और मुख्य बाजारों में होकर निकली सब लोग मंगलघट धारिणी देवियों के दिव्य तेज के सामने नत मस्तक हो गये। उस समय कोई दुरात्मा व्यक्ति भी ऐसा नहीं था जो उनकी ओर किसी प्रकार के निकृष्ट भाव से आँख उठाकर देखने का साहस कर सके। इतना ही जैसे-जैसे जुलूस अग्रसर होता जाता था, दर्शक गण यज्ञ की महानता से प्रभावित हो स्वयं ही इसके आयोजन कर्ताओं की प्रशंसा करने लगते थे। बाजार के दुकानदार कह रहे थे कि “ देखो गायत्री माता की कृपा से अकेले आदमी ने कैसा चमत्कार करके दिखा दिया! तुम्हारे मथुरा शहर से एक पैसा चन्दा नहीं माँगा और ऐसा अभूतपूर्व यज्ञ रच दिया जैसा आज तक इस नगर में दिखलाई नहीं पड़ा।”

तपोभूमि की अपूर्व शोभा

इस अवसर पर तपोभूमि की शोभा भी देखने लायक थी। जन-समूह का तो वहाँ ठिकाना ही न था फाटक में भीतर घुसते समय कई मिनट तक ठहरना पड़ता था जब रास्ता मिल सकने में और भी कठिनाई होने लगी तो बाँस और रस्सी बाँध कर मार्ग दो भागों में बाँट दिया गया और एक से लोग भीतर जाने और दूसरे से बाहर निकलने लगे। रात के समय गायत्री माता के मन्दिर के ऊपर शिखर तक रंग बिरंगी बिजली की रोशनी का दृश्य भी बड़ा मनमोहक जान पड़ता था। यज्ञशाला के बाहर खम्भों पर बिजली के बड़े रॉड (डण्डे) लगाये गये थे जिनसे वहाँ दिन की तरह प्रकाश जान पड़ता था। बाहर के फाटक के ऊपर भी सैंकड़ों बिजली के बल्ब लगे थे जिनसे दूर-दूर तक प्रकाश रहता था और किसी को चलने फिरने में असुविधा नहीं होती थी।

यज्ञ का उद्घाटन

23 तारीख को उषाकाल में ही पूज्य आचार्य जी ने सहस्रों याज्ञिकों के साथ पहुँचकर प्रथम दिन की कार्यवाही आरम्भ कर दी। यज्ञशाला के मुख्य प्रबन्धक श्रीराम कुमार श्री रामलाल आदि ने 1025 कुण्डों पर समस्त यज्ञीय उपकरणों, सामग्री, समिधा आदि की व्यवस्था पहले से ही ठीक कर रखी थी सूर्योदय के पूर्व ही याज्ञिकों की प्रथम टोली जिसमें लगभग तीन सहस्र से कुछ अधिक होता होंगे, यज्ञ कुण्डों के चारों ओर बैठ गई। उत्तर प्रदेशीय हिन्दू महासभा के प्रधान तथा संसद सदस्य श्री विशन चन्द्र सेठ ने महायज्ञ का उद्घाटन करते हुये कहा कि “ यह गायत्री-यज्ञ तो अगले देशव्यापी कार्य क्रम की भूमिका है। यज्ञ तो एक प्रतीक मात्र है। गायत्री परिवार के सदस्यों को देश में चरित्र निर्माण और सामाजिक बुराइयों एवं कुरीतियों को दूर करने का महान कार्य करना है। इस यज्ञ के बाद इसी सेवा व्रत की प्रतिज्ञा लेनी है। सारे भारत में गायत्री परिवार की जो दो हजार शाखायें और सवा लाख सदस्य हैं उन सबको देश सेवा के इस पुनीत एवं ठोस कार्य में लग जाना चाहिये।”

गायत्री-परिवार के कुलपति और यज्ञ के संयोजक आचार्य श्री राम शर्मा ने अपने प्रवचन में यज्ञ के होताओं को उनके कर्तव्य की ओर प्रेरित किया और कहा कि मथुरा नगर के कुछ व्यक्ति इस यज्ञ का विरोध इस कारण कर रहे हैं क्योंकि वे समझते हैं कि इससे उनके स्वार्थों को धक्का पहुँचेगा। आज के युग में जब कि देश में समाज वादी व्यवस्था का निर्माण हो रहा है, यह नहीं हो सकता कि देश के आधे अंग अर्थात् मातृ-वर्ग को गायत्री मंत्र के जप से वंचित रखा जाय। हिन्दू शास्त्रों और हिन्दू-धर्म के इतिहास में सदा से लोच रहा है और वह कभी अनुदार नहीं रहा। समय की गति के साथ उसमें परिवर्तन हुये हैं और युग की परिस्थितियों के अनुसार वह अपने उचित स्थान पर ही स्थित रहा है। यही कारण है कि हिन्दू जाति और हिन्दू -संस्कृति अनेक प्रहार होने पर भी आज तक जीती जागती अवस्था में है। गायत्री परिवार के सदस्यों को अपने विरोधियों के प्रति भी बुरी भावना नहीं रखनी चाहिये, बल्कि उनके साथ भी सहानुभूति और उदारता का व्यवहार ही करना चाहिये।

यज्ञ के ब्रह्मा डी. ए. वी. कालेज, कानपुर के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष पं. हरिदत्त जी शर्मा सप्ततीर्थ ने होताओं को यज्ञ आरम्भ करने का आदेश देते हुये कहा कि “ गायत्री के ॐ और तीनों व्याहृतियों में चारों वेदों का ज्ञान का सार समाया हुआ है और इसी लिये गायत्री को वेद जननी के नाम से पुकारा जाता है। गोपथ ब्राह्मण में गायत्री-मंत्र के मुख्य शब्द ‘भर्ग’ को सृष्टि के उत्पत्ति, पालन और विनाश तीनों का प्रतीक बतलाया गया है। ‘भ’ से भासित अथवा सृष्टि के प्रकट होने का, ‘र’ से ‘रमयति’ अथवा रक्षा करने का, और ‘ग‘ से ‘गमयति’ अथवा विनाश का तात्पर्य है। इस प्रकार गायत्री विश्व की उत्पत्ति, विकास और लय तीनों का ज्ञान प्रदान करने वाली है। हमारे शास्त्रों में यह भी लिखा है कि जिस समय ब्रह्मा जी ने सृष्टि निर्माण का कार्यारम्भ किया उस समय अनायास ही यह मंत्र गायन के रूप में उनके मुख से निकल पड़ा जिससे इसका नाम ‘गायत्री पड़ा। यह गायत्री हमारे धर्म के समस्त मंत्रों में शिरोमणि है और उसके बिना धर्म की पूर्णता नहीं मानी जा सकती।”

आगे चलकर पं. हरिदत्त जी ने कहा कि “गायत्री का मंदिर ब्रजभूमि में ही क्यों स्थापित किया गया और यह गायत्री-यज्ञ जमुना जी के किनारे करने का क्या महत्व है, यह भी एक ध्यान देने योग्य विषय है। इस सम्बन्ध में गायत्री परिवार के पूज्य आचार्य पं. श्री राम शर्मा ने एक विशेष व्याख्या की है कि ‘ग’ से गौलोक अथवा गौरक्षण का अर्थ निकलता है। इसका दूसरा अर्थ ‘गति’ से भी है। इस प्रकार जहाँ गौएं भ्रमण करती हैं अथवा मुक्त पुरुष चलते हैं उसके लिये ‘ग‘ अक्षर रखा गया है। दूसरे अक्षर ‘य’ से यमश्वसा अर्थात् जमुना महारानी का अभिप्राय निकलता है। जमुना जी वैसे अनेक कस्बों और नगरों में होकर गई हैं पर उनको पूज्यनीय और दर्शनीय रूप मथुरा वृन्दावन में ही मिला है। अंतिम अक्षर ‘त्री’ का अर्थ ‘तीर’ या ‘तट’ से है। इस दृष्टि से मथुरा वृन्दावन के बीच जमुना तट पर यज्ञशाला निर्माण करके महायज्ञ करना सब प्रकार से उपयुक्त और कल्याणकारी है इसमें सन्देह नहीं ।”

प्रवचन कार्यक्रम

महायज्ञ में प्रतिदिन दोपहर के 2 से 5 बजे तक तथा रात में 7॥ से 10 तक प्रवचनों की व्यवस्था की गई थी। प्रवचन-पंडाल इतना बड़ा बनाया गया था कि उसमें 40-50 हजार व्यक्ति आसानी से बैठ सकते थे। जगह-जगह लाउडस्पीकर लगाये गये थे जिससे प्रत्येक भाषण पंडाल के बाहर भी स्पष्ट सुनाई देता था। भाषण कर्ताओं में श्री बिहारी लाल जी शास्त्री, श्री भदत्त ब्रह्मचारी, श्री आनन्द भिक्षु, श्री पूर्णचन्द जी एडवोकेट आदि अनेक विद्वान थे। ब्रह्मचारियों द्वारा सस्वर वेद पाठ भी बड़ी उत्तम रीति से किया गया। पूज्य आचार्य जी का प्रवचन भी प्रतिदिन होता था और वे प्रायः आगामी कार्यक्रम तथा अन्य काम की बातें बतलाते रहे। प्रथम दिन उन्होंने विशेष रूप से यज्ञ की व्यवस्था पर प्रकाश डाला और कहा कि हमारे अनुमान से कहीं अधिक जन-समूह के इकट्ठा हो जाने से व्यवस्था में व्यतिक्रम हो गया है, जिससे अनेक व्यक्तियों को असुविधा सहन करनी पड़ रही है तो भी हम हर सम्भव उपाय से और व्यय का ख्याल न करते हुए अधिक से अधिक प्रयत्न करेंगे कि किसी की उपेक्षा न की जाय।

दूसरे दिन के भाषण में आपने कहा कि “ कुछ स्थापित लोग यह ख्याल करते हैं कि हमने पैर पुजाने और धन कमाने का यह ढंग निकाल लिया है। पर ऐसे व्यक्तियों को हम कोई दोष नहीं देते, क्योंकि यहाँ तो रोज यही धन्धे होते रहते हैं। पर हमारे गायत्री-परिवार के सब सदस्य तो सारी परिस्थिति को भली प्रकार समझते हैं। हमारा उद्देश्य केवल दक्षिणा लेकर मुक्ति का टिकट काटना या धन, संतान आदि दिलाना नहीं है। हमारा लक्ष्य सदा से इस देश के नैतिक स्टैंडर्ड को ऊँचा रखना रहा है। उसी के आधार पर हम प्राचीन काल में और अब भी सर ऊंचा उठाने में समर्थ हो सकते हैं। राजा हरिश्चन्द्र और दधीचि जैसे दानी संसार में और कहाँ पैदा हुए हैं? गाँधी, दयानन्द आदि जैसे मानव-रत्न केवल यही भूमि पैदा कर सकी है जिनकी ओर समस्त दुनिया देखती रही है। अब भी दुनिया यही आशा कर रही है कि इस संकटपूर्ण अवस्था में भारतवर्ष से ही प्रकाश आयेगा। गायत्री-आन्दोलन इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये चलाया गया है। हमको नैतिक, सामाजिक और मानसिक क्राँति करनी है। हम देश का चारित्रिक स्तर ऊंचा करना चाहते हैं। भोग, विलास में ही पड़े रहने वाले व्यक्ति भारतीय संस्कृति के लिये शोभनीय नहीं माने जा सकते। हमको तो देश में ऋषियों की यज्ञीय परम्परा को पुनर्जीवित करना है। जब मैं यह कहता हूँ तो मेरी दृष्टि गायत्री परिवार के समस्त सवा लाख सदस्यों पर रहती है। आज हमारे अपने चारों तरफ जो भ्रष्टाचार अनैतिकता फैली हुई है, उसकी छाती पर मार्च करने को यह एक लाख की सेना तैयार बैठी है। अभी परसों ही तपोभूमि में एक-विवाह संपन्न किया गया है जिसमें दहेज की प्रथा को चकनाचूर कर दिया गया। अभी हमें ऐसी अनेक कुरीतियों को दूर करना है। उदाहरण के लिये मृत्युभोज की कलंकपूर्ण प्रथा को देखिये कि किसी के घर में तो निर्वाह करने वाले व्यक्ति के मर जाने से शोक और अन्धकार छाया है, पर दूसरी ओर जाति वाले खीर, मालपुआ, मिठाई खाने को तैयार बैठे हैं। ऐसे लोगों को राक्षस कहा जाय तो इसमें क्या अनुचित है? ऐसी कुरीतियों ने हिन्दू-समाज को खोखला कर दिया है। मृत्यु के समय दावतें करना बन्द होना चाहिए। इसकी प्रतिज्ञा सब गायत्री- परिवार वाले करेंगे।

जब हमारा संगठन मजबूत हो जायगा दहेज, मृत्युभोज, नशा, माँसाहार, गोवध आदि दोषों को दूर करने को हमारी यह सेना तैयार रहेगी। यह यज्ञ इसी कार्यक्रम को आगे बढ़ाने और पूरा करने को रचा गया है, केवल आहुति देकर चला जाना इसका उद्देश्य नहीं है। हमने अपने कार्यक्रम और प्रचार-कार्य के लिए कभी किसी से चन्दा नहीं माँगा, न हमारे एजेन्ट कहीं चन्दा की रसीद बुकें लेकर घूमा करते हैं। इस समय भी यज्ञ में जन-संख्या इतनी अधिक बढ़ जाने पर भी हमने चिन्ता नहीं की, यद्यपि कितने ही मित्र सलाह देने लगे कि अब तो सहायता माँगना उचित और आवश्यक ही है। पर हम आपसे कभी पैसा जैसी छोटी चीज नहीं माँगना चाहते। हमें तो आपसे कोई बढ़िया चीज माँगनी है, जिसे पाकर हम भी संतुष्ट हों और आपको भी प्रतीत हो कि वास्तव में हमको कुछ देना पड़ा। हम आपसे इस पुनरुत्थान के कार्य में सहयोग की, कदम से कदम मिलाकर चलने की माँग करते हैं। जैसे सरकार की पंच-वर्षीय योजना में बिजली, बाँध, पुल आदि के निर्माण की बातें हैं, वैसे ही हमें नैतिकता, चरित्र-निर्माण, भ्रष्टाचार निवारण के लिये बहुत बड़ी योजना तैयार करके काम करना है। इसको सिद्ध करने के लिये बलिदानों की आवश्यकता है जीवित मनुष्यों द्वारा निजी स्वार्थ, अपनेपन के बलिदान की। लोग इस पर शंका करते हैं, पर अब काम आरम्भ कर दिया गया है और आज ही चार व्यक्तियों ने आत्म-बलिदान किया है। अगर हमारा काम केवल लेख और भाषणों तक सीमित होता तो कोई बड़ा काम नहीं हो पाता। हमारा कार्य तप और त्याग के आधार पर चल रहा है और चलेगा। हमको ऐसे काम करने वाले, ऐसे ही सहयोगी चाहियें। ये चारों व्यक्ति अपनी वर्तमान नौकरियों को छोड़कर और अपनी समस्त सम्पत्ति इकट्ठी करके कोई छोटा रोजगार आरम्भ करेंगे। इनमें से एक उस कारोबार का संचालन करके सबके कुटुम्बों का पालन करेगा और शेष तीन निःस्वार्थ भाव से प्रचार कार्य में लगेंगे। इनके घर वाले इनके इस निश्चय पर खेद कर रहे हैं, पर बिना इस प्रकार की कुरबानी के हम आगे बढ़ नहीं सकते। इसीलिये यह त्याग और बलिदान की परम्परा जारी की जा रही है। हिन्दू धर्म में तो प्राचीन काल से वानप्रस्थ आश्रम की यह परम्परा प्रचलित थी कि जब लड़का बड़ा हो जाय तो उसे घर का भार देकर स्वयं समाज सेवा में लग जाते थे। हम इस ढंग से प्रचार करेंगे तो अपने परिवार की शाखाओं को दो हजार से दस हजार तक और सदस्यों को एक करोड़ तक पहुँचा सकते हैं।”

कन्या- भोज व जुलूस

ता. 25 की रात्रि को पूज्य आचार्य ने अपना अन्तिम भाषण देकर समस्त उपासकों को आगामी कार्यक्रम समझा दिया, क्योंकि 26 ता. को अन्य कार्यक्रमों के कारण प्रवचनों के लिये समय मिल सकना असम्भव था। 26 ता. को पूर्णाहुति का दिवस था और सब होता शीघ्र से शीघ्र उसमें भाग लेने की चेष्टा कर रहे थे। इसके लिये कल शाम को ही मथुरा के बाजार में गोला और नारियलों के ढेर लगे थे जिन्हें सभी याज्ञिक खरीद रहे थे। जगह-जगह ढ़केलों में भरकर गोला और नारियल जगह-जगह बेचे जा रहे थे, जिससे प्रत्येक याज्ञिक जहाँ कहीं भी हो आवश्यकतानुसार खरीद सके। लगभग 10 बजे तक पूर्णाहुति चलती रही। इसके पश्चात् व्रतधारी याज्ञिकों ने आगामी कार्यक्रम को पूरा करने की प्रतिज्ञाएँ कीं। 11 से 2 बजे तक पूर्णाहुति के उपलक्ष में कन्या भोजन कराया गया। पूज्य आचार्य जी गतवर्ष से निरन्तर यह प्रचार कर रहे हैं कि आज कल सच्चे सत्पात्र ब्राह्मणों का अधिकाँश में अभाव हो गया है, इसलिये या तो ब्रह्मभोज के स्थान पर ज्ञानवर्द्धक साहित्य बाँटा जाय या छोटी कन्याओं को भोजन कराया जाय जिन्हें सभी देवी का स्वरूप मानते हैं। इस कार्य द्वारा आचार्य जी नारी जाति की प्रतिष्ठा भी बढ़ाना चाहते हैं। इस भोज में मथुरा नगर की और यज्ञ नगर में टिकी हुई कन्याएँ बहुत बड़ी संख्या में आई थीं और उनको दक्षिणा भी दी गई। महायज्ञ का अन्तिम प्रोग्राम नगर परिक्रमा का महाविशाल जुलूस दो बजे के बाद निकलना आरम्भ हुआ और रात के 8-9 बजे वापस आया। जुलूस में सबसे आगे कृष्ण, नारद, बाल्मीकि, दयानन्द, बुद्ध, गुरुनानक, राजा हरिश्चन्द्र आदि महान पुरुषों की झाँकियाँ बनाकर सजाई गई थीं। उसके बाद एक फर्लांग से भी अधिक लम्बा महिलाओं का जुलूस था। इसके पीछे 10 घोड़ों की सजी हुई मोटर में गायत्री-मन्त्र की हस्तलिखित पुस्तकें और गायत्री माता का चित्र आदि सजे हुये चल रहे थे। गायत्री माता के पीछे पूज्य आचार्य जी पैदल चल रहे थे और उनके बाद गायत्री परिवार की सैंकड़ों शाखाओं के उपासक अपने-अपने झण्डे और नामों के बोर्ड लिये हुये थे। इस प्रकार दर्शकों की भीड़ से ठसाठस भरे हुए बाजार में 5 मील की परिक्रमा करके जुलूस तपोभूमि वापस आया और महायज्ञ का अंतिम कार्यक्रम स्मरणीय रूप में पूर्ण हुआ।

विरोध का निरर्थक प्रयास

जहाँ एक ओर भक्ति और श्रद्धा का यह अपूर्व प्रवाह बह रहा था कुछ लोग निरर्थक विरोध करने में अपनी शक्ति और साधनों का अपव्यय कर रहे थे। उन लोगों ने दो-तीन परचे निकाल कर गायत्री यज्ञ के होताओं को यह समझना चाहा कि जोर-जोर से गायत्री मंत्र का उच्चारण करना, हवन कुँडों पर स्त्रियों को बैठाना, शुक्रास्त में यज्ञ करना आदि कार्य शास्त्रविरुद्ध हैं, इसलिये इस आयोजन में भाग नहीं लेना चाहिये। पर ये परचे बहुत थोड़े लोगों के हाथों तक पहुँचे और शायद ही किसी याज्ञिक ने इनके कारण यज्ञ-कार्य स्थगित किया हो। गायत्री परिवार के सदस


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