महायज्ञ में जनता की सेवा-भावना

December 1958

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(ब्रह्मचारी योगेन्द्रनाथ)

यज्ञ का अर्थ है त्याग, उदारता। जहाँ नित्य कर्मकाण्ड में हवन को स्थान देकर हम प्राणीमात्र के लिये सेवा और परोपकार की भावनाओं को अपने में धारण करते हैं, वहाँ महायज्ञों में हम अकेले ही नहीं सामूहिक रूप से गुणों को अपनाने की प्रतिज्ञा करते हैं।

अभी दो सप्ताह पहले इन्हीं भावनाओं की बाढ़ जन-समाज में स्पष्ट दिखलाई पड़ रही थी। क्या बच्चे क्या बूढ़े, क्या स्त्री, क्या पुरुष, सभी यह अभिलाषा करते दिखाई देते थे कि महायज्ञ में हम भी कुछ सेवा कर सकें। महायज्ञ से कुछ दिन पूर्व जब हम यज्ञ-सम्बन्धी कुछ वस्तुएँ खरीदने बाजार में जाते थे तो दुकानदार लोगों के मुँह से अन्त में यह बात निकल ही पड़ती थी कि “ब्रह्मचारी जी, क्या यज्ञ में हमें भी सेवा करने का कुछ सुअवसर मिल सकता है? हम किस प्रकार की सेवा कर सकते हैं? इस प्रकार के प्रश्न करने वालों में बड़े-बड़े धनी मानी, सेठ साहूकार, डॉक्टर, वैद्य, पंडित सभी श्रेणी के लोग हुआ करते थे। हमारा एक ही होता था कि “महायज्ञ में सैंकड़ों लोगों के चौबीस घण्टा सहयोग की आवश्यकता है। आप जिस प्रकार चाहें और जो समय निकाल सकें उसी में सेवा कर सकते हैं। “

महायज्ञ से पूर्व नवरात्रि से ही गायत्री-परिवार के जो सदस्य आये थे वे भी प्रबंधकों की आज्ञानुसार धूप और सर्दी-गर्मी की परवाह न करते हुए पूर्ण उत्साह, लगन के साथ श्रमदान में लगे रहते थे। जिस समय वे फावड़ा, कुदाल कंधों पर रख कर “विश्व को बनावें स्वर्ग अपने से यही एक प्रार्थना हमारी भगवान से” का गायन करते हुये चलते थे उस समय एक बार मुर्दा, कायर हृदय भी धर्म-क्षेत्र में कूद पड़ने को तड़फ उठता था।

यही दशा स्वेच्छा सहयोग के सम्बन्ध में थी। लोग बड़ी ही भक्ति और श्रद्धा से अपनी शक्ति के अनुसार थोड़ी बहुत यज्ञ-सामग्री लाते थे और अत्यन्त आग्रह से उसे यज्ञ-भंडार में जमा कराते थे। वे बार बार अपनी वस्तुओं के विशुद्ध होने का विश्वास दिलाते थे और वास्तव में उनमें से कोई झूठ नहीं कह रहा था। आश्चर्य और साथ ही आनन्द का विषय है कि जहाँ लोगों को काफी खर्च करने पर भी विशुद्ध पदार्थ नहीं मिलते, महायज्ञ में लोगों की श्रद्धा भावना ने इस असंभव काम को भी संभव करके दिखला दिया।

आश्चर्य की बात है कि जहाँ दक्षिणा के लोभी हो हल्ला मचा कर इस पुनीत कार्य में बाधक बनने में संकोच नहीं करते थे, वहाँ ये सीधे साधे श्रद्धालु व्यक्ति सच्ची भावना से यज्ञ में किसी प्रकार की सेवा सहयोग करने को उत्सुक हो रहे थे। हमारी तो यही कामना है कि यह भावना राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति में समा जाय। आचार्य जी का संकल्प वास्तविक रूप से तभी पूरा होगा जब लोग यज्ञ के असली अर्थ को समझ जायेंगे। जब जन-जन के मन-मन में परमार्थ की, लेने की नहीं देने की भावना, सहयोग और अपरिग्रह की प्रवृत्ति उत्पन्न होगी तभी हमारा जीवन सुखी बन सकेगा। महायज्ञ का वास्तविक लक्ष्य मानवता का प्रसार, परोपकार की वृत्ति, सबको आत्मवत् समझना ही है। पूज्य आचार्य जी ने महा यज्ञों की जो योजना बनाई है उसके पीछे यही उद्देश्य है।


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