त्यागी और तपस्वी ही धर्म का निर्णय कर सकते हैं।

June 1957

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(श्री चन्द्रशेखर शास्त्री)

आजकल संस्कृत का ज्ञान रखने वाला धर्म का व्यवस्थापक समझा जाता है। कम से कम वह अपने को ऐसा ही समझता है और चाहता है कि दूसरे भी उसे ऐसा ही समझें। इससे बढ़कर अनधिकार चर्चा दूसरी हो ही नहीं सकती। पंडित होना अर्थात् संस्कृत भाषा का ज्ञान हो जाना धर्म व्यवस्थापक होने का प्रमाण पत्र नहीं हो सकता। यदि ऐसा हो तो सभी संस्कृतज्ञ धर्म के निर्णायक माने जायेंगे। वेदों में एक कथा आई है कि कुछ लोगों ने ऋषियों से पूछा- “महाराज, अभी तो आप लोग धर्म-व्यवस्था देते हैं। क्योंकि आपने धर्म का साक्षात् दर्शन किया है, आप यथार्थ वक्ता हैं, स्पृहाहीन हैं। आपके बाद, जब आपके सामने पुरुष न होंगे तब, धर्म की व्यवस्था कौन देगा? उस समय धार्मिक संदेहों का निराकरण कौन करेगा?”

इस प्रश्न के उत्तर में उन ऋषियों ने कहा- “उन्हीं ऋषियों के उपदेश से धर्म निर्णय होगा। धर्म के सम्बन्ध में ऋषियों ने जो तत्व बतलाये हैं, निर्णय का जो ढंग कहा है, उसी के अनुसार धर्म का निर्णय हो सकेगा।”

इसमें संदेह नहीं कि धर्म निर्णायक वही हो सकता है, जिसमें धर्म का साक्षात् दर्शन किया है, जो त्यागी और तपस्वी है। जिसने अपने स्वभाव को अपने मन को-- जानता की भलाई के लिए अर्पित कर दिया है। उसे अधिकार है कि वह धर्म की व्यवस्था दे। उसे अधिकार है कि वह जनता के लिये कल्याणकारी मार्ग का निर्देश करे। पर जिसने जीवन में कभी त्याग नहीं किया है, न तपस्या से जिसे प्रयोजन है वह भला धर्म की बातें क्या करेगा? क्या उसे यह अधिकार इसलिए मिल सकता है कि वह संस्कृत जानता है-पंडित कहलाता है।

अब इनके संस्कृत ज्ञान की बात भी सुनिये आजकल पठन-पाठन की प्रणाली ऐसी निकृष्ट हो गयी है कि जो बातें पढ़ने की हैं, उधर तो ध्यान नहीं दिया जाता। व्याकरण की 5-6 पुस्तकें, साहित्य की 10-20 पुस्तकें, न्याय की कुछ पुस्तकें पढ़ने वाला ही पंडित समझा जाने लगता है। पर सच्ची बात यह है कि इन ग्रन्थों के साधारण अध्ययन से संस्कृत का ज्ञान कुछ भी नहीं होता। अधिक से अधिक शब्द-शास्त्र की कुछ बारीकियाँ मालुम हो जाती हैं। धर्म शास्त्र, पुराण, मीमाँसा, ब्राह्मण कर्मकाण्ड आदि विषयों का सांगोपांग ज्ञान बहुत कम पंडितों को होता है। पुराण पढ़ना तो इस समय अनावश्यक करार दे दिया गया है। नये खयाल विद्वान पुराणों को निकम्मा समझते हैं। कहते हैं इनमें परस्पर विरोधी बातें हैं। अन्य लोगों की बात छोड़ भी दें तो सनातन धर्म भी, जो पुराणों को प्रामाणिक मानते हैं, उनको क्यों नहीं पढ़ते? पुराणों की महिमा तो गाते हैं, पर जहाँ पुराण कथा होती हो वहाँ कोई बड़ा पंडित नहीं पहुँचता यदि किसी बड़े पंडित से पुराण बाँचने को कहा जाये तो भी वह तैयार नहीं होता। वह इस काम को छोटा समझता है। पर हमारा खयाल है कि संस्कृत-साहित्य का पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए पुराणों का पढ़ना आवश्यक है। अधिक नहीं तो महाभारत को पढ़ना तो नितान्त आवश्यक है। तभी भारतीय-समाज के स्वरूप का कुछ पता लग सकता है। व्यवहार में धर्म का क्या रूप होता है, प्राचीन समय में लोगों ने धर्म की व्याख्या अपने आचरणों द्वारा कैसी की, इस बात का पता हम पुराणों से ही पा सकते हैं।

ये पंडित कहते हैं कि हम सनातन धर्मी हैं, प्राचीन पद्धति के अनुयायी हैं। किन्तु इनकी प्राचीन पद्धति, शास्त्रीय पद्धति नहीं, वह है लौकिक व्यवहार, जो प्रणाली चली आती है, जिसका कहीं मूल भी नहीं है, उसे ही ये धर्म समझते हैं। पर मुँह से धर्म का नाम लेते हैं, धर्म की दुहाई देते हैं। ज्ञान का तो यह हाल है कि कुछ समय पहले काशी के बड़े पंडितों की एक सभा हुई थी धर्म-निर्णय के लिये। वहाँ काशी के ही एक प्रसिद्ध पंडित ने कहा था कि “शूद्रों को पुराण पढ़ने का अधिकार नहीं है।” यह सुनकर हम तो चकित रह गये। पश्चाताप हुआ उस पंडित के पाँडित्य पर। दुख हुआ अपनी धार्मिक स्थिति के अरक्षित होने पर। हम लोगों ने तो गुरुओं के मुख से यही सुना था कि स्त्री, शूद्र, तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के भी मूर्ख लोगों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है, क्योंकि वे वेदार्थ समझ ही नहीं सकते। इसमें पवित्रता-अपवित्रता अथवा उच्चता-नीचता की कोई बात नहीं। पर इन पंडित जी को इतना भी मालूम नहीं कि पुराणों की रचना तो स्त्री, शूद्र और कम पढ़े लोगों के लिये ही की गई थी। इन्हीं को पुराणों के पढ़ने का अनधिकारी बतलाया जाय, तो ऐसे ज्ञान को किस नाम से पुकारें?

बातें तो ये वशिष्ठ और बाल्मीकि के जमाने की ही करते हैं पर आप स्वयं नौकरी के लिये क्लर्कों की खुशामद करते फिरते हैं। बनियों के पीछे दौड़ते फिरते हैं। ये वैसे तो सनातन धर्म के बड़े हिमायती बनते हैं, पर व्यवहार में किसी दूसरे ही मार्ग पर चलते हैं। कुछ वर्षों पहले कलकत्ते में एक मन्दिर छोड़ दिया गया। हमने कुछ पंडितों से कहा- “चलिये एक सभा है, उसमें कलकत्ता के मन्दिर के विषय में विचार होगा।” एक बूढ़े पंडित ने कहा कि- “मन्दिर टूट गया, अब क्या विचार होगा।” हमने कहा-उसके पुनर्निर्माण के लिये शायद चन्दा किया जाए। उन्हीं पंडित जी ने उत्तर दिया- “यह तो सेठों का काम है।”

पंडितों की यह स्वार्थमयी प्रवृत्ति धीरे-धीरे लोगों पर प्रकट होती जाती है। उन लोगों की जो थोड़ी भी प्रतिष्ठ बची थी वह भी जाती रही। सब ने समझ लिया कि इनके पास सिवाय ढोंग के और कुछ नहीं। ढोंग को लाग ढोंग समझ लें तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं, पर दुख इस बात का है कि इनके प्रति अश्रद्धा होने के साथ ही साथ भारतीय सभ्यता और भारतीय धार्मिक साहित्य पर से भी नई पीढ़ी की श्रद्धा उठती जाती है। चूँकि प्रकट में इन पंडितों ने ही धर्म का ठेका ले रखा है और वे बात-बात में उसकी दुहाई देते रहते हैं। ये बातें तो करते हैं ऋषि-मुनियों के समय की-सी, पर काम करते हैं पूरे कलियुगी। वेद-विक्रय शास्त्रों में बड़ा ही निन्दित कहा गया है। पर ये स्वयं नौकरी करते हैं, विद्या-विक्रय करते हैं। कोई अच्छा विद्वान भी हो, काफी पढ़ा लिखा भी हो, पर वह कहीं नौकर न हो, तो इन पंडितों की दृष्टि में उसकी कोई इज्जत नहीं।

मनु ने कहा है- “दान लेने की शक्ति रखने वालों को भी दान नहीं लेना चाहिये।” पर सदैव मनु की दुहाई देने वाले ये पंडित दान प्राप्त करने के लिये सिफारिशें कराते रहते हैं। पहले ये बातें छिप जाती थीं। उस समय लोगों में ब्राह्मणों पर श्रद्धा अधिक थी, और पढ़ने-लिखने वाले भी बहुत कम थे। इसलिये उस समय ब्राह्मणों के कामों की नुक्ताचीनी करने वाले शायद ही कहीं एकाध दिखलाई पड़ते थे। पर अब हालत बहुत बदल गई है, अनेकों समालोचक पैदा हो गये हैं। अब जनता ने समझ लिया है कि ये पंडितगण झूठी सेवा जमा कर अपना महत्व कायम किये हुए हैं। ब्राह्मणों का और खासकर पंडितों का सबसे बड़ा लक्षण त्यागी और तपस्वी होना है। इसी से पहले जमाने में इनको किसी की परवा नहीं होती थी। जो ठीक समझते थे वही कहते थे। अब भी हिन्दू-समाज के उद्धार के लिये ऐसे ही त्यागी-तपस्वी विद्वानों की आवश्यकता है।


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