(श्री जगतनारायण लाल)
“वसुधैव कुटुम्बकम्” अर्थात्- संसार के सभी मनुष्य हमारे आत्मीय हैं- यह सिद्धाँत हिन्दू धर्म का मुख्य अंग है। पर यह केवल मुख से कहने की ही बात है, इस पर व्यवहार करने वाले व्यक्ति ढूँढ़ने पर भी शायद ही कहीं मिले। संसार भर के प्राणियों अथवा मनुष्यों की बात तो छोड़ दीजिये यहाँ अपने ही देश में अथवा अपने ही नगर में रहने वाले विधर्मियों को भी आत्मीय समझने की उदारता किसी में दिखलाई नहीं पड़ती। फिर क्या हम सब हिन्दुओं को ही आत्मीयता की दृष्टि से देखते हैं? कदापि नहीं-करोड़ों अछूत कहे जाने वाले व्यक्तियों को- जो राम, कृष्ण और शिव की ही उपासना करते हैं- हम घृणित और त्याज्य समझते हैं। इसलिये हमको कहना पड़ता है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का सिद्धाँत अब कथन मात्र को रह गया है।
पर यह आक्षेप केवल हिन्दू धर्म के अनुयायिओं पर ही नहीं है, सभी धर्म वालों में ऐसा ही संकीर्णता का भाव पाया जाता है। मुसलमान तो केवल अपने को ही खुदा का बन्दा और सच्चा दीनदार समझते हैं बाकी सब लोग उनकी निगाह में काफिर हैं। उसमें कोई दोष नहीं। ईसाई भी अपने को ईश्वर के चुने हुए लोगों में समझते हैं शेष सब उनकी निगाह में गुमराह और अधर्मी हैं। इसी प्रकार सभी धर्मवालों में एक ऐसी भावना पाई जाती है कि ईश्वर के पास पहुँचने के लिए उन्हीं का धर्म एक मात्र सच्चा मार्ग है, बाकी सब धर्म झूठे या पाखण्डपूर्ण हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जो धर्म परोपकार और मानव सेवा की दृष्टि से प्रचलित किये गये थे वे ही पारम्परिक लड़ाई, झगड़ों और ईर्ष्या-द्वेष के कारण बन गये हैं। इतिहास के पाठक जानते हैं कि धर्म के नाम पर अक्सर महा-भयंकर लड़ाइयाँ हुई हैं और लाखों निर्दोष व्यक्तियों का खून बहाया गया है।
क्या धर्म का असली अभिप्राय यही है? सभी ज्ञानी लोग जानते हैं कि तमाम धर्मों का मूल एक ही है। जितने धर्म प्रचारक महापुरुष हुये हैं उन सबने मनुष्यों की चारित्रिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिये धार्मिक नियमों और साधनाओं की रचना की है। यह अवश्य है कि जिस देश में, जिस काल में ये महापुरुष हुए हैं उसी समय और स्थान की परिस्थिति के अनुसार उन्होंने उपदेश दिये हैं। पर यदि आप सब धर्मों की विवेचना करके उनका तुलनात्मक अध्ययन करें तो स्पष्ट मालूम हो जायगा कि सबके भीतर सार वस्तु एक ही है। पर अज्ञानी अथवा अहंकारी मनुष्य अक्सर सार वस्तुओं के ऊपर अप्रधान या दिखावटी वस्तुओं को प्रधानता देने लगते हैं और इसी से विभिन्न धर्मों में लड़ाई-झगड़े होने लगते हैं।
भिन्न-भिन्न धर्मों या मजहबों में प्रायः दो प्रकार का अन्तर देखने में आता है। एक तो यह कि किसी में आध्यात्मिक रहस्यों का वर्णन अधिक पाया जाता है और किसी में कम। दूसरा अन्तर यह है कि एक ही धर्म-कार्य को करने की भिन्न-भिन्न मजहबों में भिन्न-भिन्न प्रकार की नीतियाँ बतलाई गई हैं। इसी साधारण से अंतर पर नासमझ लोग एक दूसरे को बड़ा और छोटा अथवा ऊँचा और नीचा बतलाने लगते हैं। अगर वे केवल इसी एक बात को समझ लें कि संसार के सब मनुष्य एक-सी प्रवृत्ति और अवस्था वाले नहीं हैं तो वे सहज में यह अनुमान कर सकते हैं कि भिन्न-भिन्न श्रेणी के लोगों से लिये अलग-अलग तरह के नियमों और साधनों का होना अनिवार्य है। एक सच्चे ज्ञानी की दृष्टि से भिन्न-भिन्न जातियों अथवा देशों के लोग अलग-अलग देशों के विद्यार्थियों की तरह हैं, जिनका पाठ्यक्रम अलग-अलग रखना आवश्यक है। अब अगर वे विद्यार्थी इस बात पर लड़ने लगें कि अमुक दर्जे का कोर्स हमसे घटिया या बढ़िया क्यों रखा गया तो उनको मूर्ख के सिवा और क्या पदवी दी जा सकती है? पर धर्म के सम्बन्ध में हम ऐसा ही व्यवहार करते हैं और इस बात का अभिमान करते हैं कि हमारा धर्म सर्वश्रेष्ठ है तथा हम दूसरे सब लोगों से उत्तम हैं। वे इस बात को नहीं समझ पाते कि जिस देश या जिस जाति में जिस मनुष्य का जन्म हुआ है उसके लिए वहीं का धर्म उत्तम और कल्याणकारी है, क्योंकि वह वहाँ की परिस्थिति के अनुसार रचा गया है। भगवान कृष्ण की “स्वधर्मे निधनं श्रेयः पर धर्मो भयावहः” वाली उक्ति का वास्तव में यही तात्पर्य है। आवश्यकता यही है कि हमारे धर्म का जो कुछ भी उपदेश है उस पर हम सचाई के साथ आचरण करें।
प्रत्येक धर्म में सत्य के किसी एक विशेष अंग पर जोर दिया गया है। यहाँ पर विभिन्न मजहबों की तुलना करने लायक स्थान नहीं है पर यदि गौर से देखा जाये तो इस बात का पता सहज में लग सकता है। इसलिये अपने धर्म के विशेष तत्व को ग्रहण कर लेने से मनुष्य के उस धर्म में जन्म लेने का अभिप्राय पूरा हो जाता है। कुछ महात्माओं का तो यह भी कहना है कि जीव विभिन्न धर्मावलम्बी जातियों में इसीलिए जन्म लेता है कि वह उस धर्म के प्रधान तत्व को ग्रहण कर ले। इस प्रकार वह कई जन्मों में धर्म के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त करके ऊँचे आध्यात्मिक दर्जे पर पहुँच सकता है। पर खेद है कि मूर्ख व्यक्ति इस तत्व को न समझ कर मजहबों की भिन्नता को झगड़ों का कारण बना लेते हैं और धर्म के द्वारा आत्म-कल्याण करने की बजाय पतन की ओर जाने लगते हैं। वे यह ख्याल नहीं करते कि इस जन्म में हम हिन्दू हैं, दूसरे जन्म में बौद्ध हो सकते हैं, तीसरे धर्म में ईसाई और चौथे में मुसलमान हो सकते हैं। इसलिए अगर हम प्रत्येक जन्म में उस धर्म के सार-तत्व को ग्रहण करते रहें और उसी के सिद्धान्तों के अनुसार विशुद्धता का जीवन बितायें तो यही सबसे अच्छा मार्ग है। ऐसी दृष्टि रखने वाला व्यक्ति अपने धर्म पर आरुढ़ रहता हुआ भी दूसरे धर्मों को सच्चा समझेगा और उनके प्रति आदर-सम्मान का भाव रक्खेगा।
वैसे तो इस समय सभी धर्मों का बहुत कुछ पतन हो गया है- लोग सार वस्तु को त्याग कर दिखावटी बातों को ही असली धर्म समझने लगे हैं-- पर यह समझ में नहीं आता कि आध्यात्मिक ज्ञान के पुजारी हिंदू धर्मावलम्बी ऐसे संकुचित विचारों के कैसे हो गये? इस धर्म में तो भगवान ने स्पष्ट शब्दों में गीता में कहा कि “जिन-जिन रास्तों से मनुष्य मेरी ओर आते हैं, उन्हीं रास्तों से में उनका स्वागत करता हूँ। क्योंकि मनुष्यों द्वारा ग्रहण किये सभी रास्ते मेरी ओर आते हैं।” इसके सिवाय यदि हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों को देखा जाये तो मालूम होता है कि शायद मनुष्यों के विचार जितने प्रकार के हो सकते हैं, उन सबके लिये इस धर्म में स्थान है। इसकी सहनशीलता तो यहाँ तक बढ़ी हुई है कि जो ईश्वर को माने वह भी हिन्दू और जो न माने वह भी हिंदू। हिंदू धर्म में ऐसा कोई धार्मिक सिद्धाँत, या कोई खास देवता, या कोई खास पूजा की विधि नहीं है, जिसका पालन करना हर एक व्यक्ति के लिए अनिवार्य हो और जिसके न मानने से मनुष्य को हिन्दू धर्म से अलग समझा जाय। जिस धर्म का क्षेत्र इतना विस्तृत है उसमें संकीर्णता के विचार कैसे घुस पड़े यह वास्तव में आश्चर्य की ही बात है। उसी संकीर्णता का फल है कि आज हमको अनेक अवसरों पर नीचा देखना पड़ता है। अब भी यदि हम अपने प्राचीन आदर्शों के अनुसार आचरण करने की चेष्टा करें तो हमारा देश फिर संसार का आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक बन सकता है।