मानव अकेला जा रहा है (Kavita)

June 1957

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(श्री रामगोपाल शर्मा ‘दिनेश’ एम.ए.)

आँख खोलो, सामने देखो, सवेरा आ रहा है।

निविड़तम तप पी धरा का, ज्योति में भर प्राण अपने।

साधना का दीप ले जो, कर गया साकार सपने॥

स्वर्ग से भू पर उतर आलोक उसका गा रहा है,

आँख खोलो, सामने देखो, सवेरा आ रहा है।

देश की काली निशा फिर, हँस उठे आ लोक पाकर।

स्नेह का मधु-दान करता, जी सके मानव धरा पर॥

प्रेम का सन्देश अम्बर को जगाने जा रहा है,

आँख खोलो, सामने देखो, सवेरा आ रहा है।

शोध-शालाएँ करो अब, बन्द सब विज्ञान की ये।

बन रही हैं आज ग्राहक, मनुजता के प्राण की ये॥

रक्त की ले प्यास मानव, असुर बनने जा रहा है।

आँख खोलो, सामने देखो, सवेरा आ रहा है।

तुम न अणु बम से सकोगे, जीत मानव के हृदय को।

सो रहे हो, जाग जाओ, क्यों बुलाते हो प्रलय को॥

हो रही है शंख-ध्वनि, युग एक बीता जा रहा है,

आँख खोलो, सामने देखो, सवेरा आ रहा है।

चाहते हो सुमन बनकर, भू-गगन में सुरभि भरना।

झूल जीवन-डाल पर यदि, प्रेम-जग में झूम झरना॥

तो हृदय खोलो, मिलो, मानव अकेला जा रहा है।

आँख खोलो, सामने देखो, सवेरा आ रहा है।

*समाप्त*


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