अब श्रद्धा की परीक्षा का समय आ गया।

June 1957

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गायत्री परिवार के सदस्यों से व्रतधारी बनने का अनुरोध

(श्रीराम शर्मा आचार्य)

नियमित रूप से संकल्प लेकर गायत्री उपासना करने वाले- गायत्री परिवार के सदस्यों की संख्या अब इतनी हो चुकी है जिस पर प्रसन्नता प्रकट की जा सकती है। यों प्रत्येक हिन्दू धर्मानुयायी का परम् उपास्थ मंत्र गायत्री उसी प्रकार है जिस प्रकार मुसलमानों का कलमा। वह मुसलमान किस काम का जो कलमा नहीं जानता। वह हिन्दू भी अपने धर्म से दूर है जिसे गायत्री उपासना से अनभिज्ञता या अरुचि है। इसलिए शिखा सूत्र की भाँति जब गायत्री माता भी प्रत्येक हिन्दू की उपासनाओं में स्थान प्राप्त कर लेगी तभी यह कहा जा सकेगा कि भारतीय समाज से एक भारी अभाव की पूर्ति हुई।

गायत्री उपासना के अनेक लाभ हैं। इससे भौतिक जीवन की अनेक कठिनाइयों तथा कमियों की पूर्ति में सहायता मिलती है। आत्मबल का विकास होकर अनेक दुर्गुणों का शमन और अनेक सद्गुणों का विकास होता है बुद्धि में सात्विकता एवं दूरदर्शिता की प्रतिष्ठापना होती है। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा लाभ भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का है। जो कुछ हिन्दू धर्म में है वह सब गायत्री मंत्र में मौजूद है। यह 24 अक्षरों का हमारा सबसे छोटा-किन्तु सबसे उत्कृष्ट धर्म शास्त्र है। इन 24 अक्षरों में सन्निहित शिक्षाएं मानव जीवन की समस्त समस्याओं को पूरी तरह हल करने में और इस भूतल को स्वर्गीय सुख शान्ति में परिपूर्ण कर देने में समर्थ हो सकती हैं।

अ.भा. गायत्री परिवार की स्थापना से इस दिशा में आशाजनक प्रगति हो रही है। लक्ष की पूर्ति तो तब होगी जब प्रत्येक भारतीय के हृदय में गायत्री माता तथा यश पिता के लिए समुचित सम्मान उत्पन्न हो जायगा। पर संतोष उस समय किया जा सकता है जब कुछ नर-रत्न उद्देश्य की पूर्ति के लिये कुछ त्याग और श्रम करने को कटिबद्ध हो जाय। लक्ष पवित्र एवं सच्चा हो और उसे पूर्ण करने के लिये ईमानदार लगन के, एवं योग्यता सम्पन्न मनुष्य खड़े हो जाएं तो फिर और कोई कठिनाई सफलता के मार्ग में नहीं रह जाती। बड़ी से बड़ी विघ्न बाधाओं को लक्ष की श्रेष्ठता एवं कार्य कर्ताओं की लगन के आधार पर पार किया जा सकता है।

कम से कम एक माला जप करने- आदि पाँच प्रतिज्ञाओं को मान्यता देने वाले, गायत्री परिवार सदस्यों की- संकल्प लेकर नियमित उपासना करने वालों की संख्या अब संतोषजनक हो चली है और लगता है कि यह प्रगति आगे भी चलती रहेगी अब इन दिनों अपने परिवार द्वारा प्रतिदिन 24 लक्ष सामूहिक अनुष्ठान की पूर्ति होती है। जिस दिन नित्य 24 करोड़ जप सामूहिक अनुष्ठान के अंतर्गत होने लगेगा, उसी दिन से भारत की आध्यात्मिक अन्तरात्मा जाग पड़ेगी और ऋषियों के प्राचीन युग का प्रमाण इस भूमि पर प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगेगा। गायत्री संजीवनी विद्या है। उससे मृत जी सकते हैं, निष्प्राण प्राणवान हो सकते हैं। भारतीय भूमि और भारतीय संस्कृति में नव चेतना का प्रादुर्भाव होना भी गायत्री महामंत्र की प्रचण्ड शक्ति द्वारा पूर्णतया संभव है।

कार्य जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही कठिन है। इन दिनों तमोगुण के सूक्ष्म वातावरण की इतनी अभिवृद्धि हो गई है कि धर्म मार्ग में चलने वाले को पग-पग पर मूर्च्छा आती है। थोड़ा उत्साह उत्पन्न होता है पर वह दो कदम चलकर ही ठण्डा पड़ जाता है। विचारवान लोग उपासना की उपयोगिता और आवश्यकताओं को मानते हैं अपने कल्याण के लिये उसे अनिवार्य भी समझते हैं इतने पर भी भीतर से उसकी क्रिया को करने के लिए तीव्र उत्साह नहीं जगता। जो थोड़ी गर्मी आती है सो भी आलस्य और उत्साह के तमसाच्छन्न वातावरण में ठण्डी पड़ जाती है। इस जमाने में तब तक कोई धर्म-चेतना जीवित नहीं रह सकती जब तक उसे सजीव रखने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न न किये जावें।

गत मास की अखण्ड-ज्योति में विस्तारपूर्वक बताया जा चुका है कि इस युग में धर्म पंगु है। यदि उसे कंधे का सहारा न दिया जायगा तो उसका चलते रहना तो दूर खड़े रहना भी कठिन हो जायेगा। यह बात गायत्री आन्दोलन के लिए भी पूरी लागू होती है। इस वर्ष सन् 57 में - ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की दैनिक 24 लक्ष जप आदि का पंच सूत्री संकल्प चला है। उत्साहपूर्वक अनेक स्थानों पर सदस्य बने हैं और शाखाएं कायम हुई हैं, पर सत्संगों में जिस उत्साह से लोग आरम्भिक दिनों में आते हैं उससे कुछ ही दिनों बाद शिथिलता आने लगती है। उपस्थिति घटती जाती है। संकल्प लेकर उपासना करने वालों में से केवल एक माला के जप को भी लोग आलस्यवश छोड़ बैठते है। यों कहने को तो सत्संग में न आने, उपासना न करने के लिए कोई न कोई कारण गिनाया जा सकता है पर वस्तुतः एक मात्र कारण अश्रद्धा आलस्य एवं अनुत्साह ही होता है। यह एक व्यापक कठिनाई है। इसका दोष किसी व्यक्ति विशेष को देना व्यर्थ है। इस अवसाद का कारण तो अन्तरिक्ष में व्याप्त हुआ-तमसाच्छन्न अदृश्य वातावरण ही है। इस अन्धकार को चीरने योग्य प्रकाश की व्यवस्था न होगी तो चलने वाला अनुभवहीन नया पथिक देर तक चलता न रह सकेगा। अन्धकार की सघनता उसके मस्तिष्क को, पैरों को, गतिहीन बनाकर ही छोड़ेगी। उसकी यात्रा रुके बिना न रहेगी।

गायत्री संस्थाएं अभी स्थापित हो रही हैं। आरंभिक दिनों में उत्साहपूर्वक चल रही हैं, पर अदृश्य आकाश में जो तमसाच्छन्न वातावरण संव्याप्त है वह देर तक इस गतिविधि को चलने न देगा। ब्रह्मसूत्र अनुष्ठान पूरा होते न होते इनमें से अधिकाँश का उत्साह ठण्डा पड़ेगा और एक आशाजनक शुभारम्भ का दुःखद अंत हो जायगा। इस स्थिति से बचने का यदि कोई उपाय है तो एक ही है कि इन संगठनों के पीछे कुछ प्रेरणा देते रहने वाली- पंगु धर्म को कंधा देते रहने वाली- कुछ आत्मा से अवश्य उठें। इन प्रेरकों का एक ही प्रधान कार्य होगा कि वे ‘धर्म फेरी’ करते रहें। अपनी पोजीशन, बड़प्पन, अहंकार और संकोच को ताक पर उठा कर रख दें और घर-घर जाकर लोगों को धर्म कार्यों में सम्मिलित होने के लिये प्रेरणा करें। साधारण लोगों को एक ‘अशक्त रोगी’ मान कर उन्हें स्ट्रेचर पर लाद कर अस्पताल पहुँचाने की लगन रखने वाले धर्म प्रेरक ही इस युग में अपने धर्म संगठनों को जीवित रख सकेंगे। जहाँ इस वस्तु की कमी होगी वहाँ अन्य सब साधन होते हुए भी संगठन मृतप्राय हो जायगा। इसलिये जहाँ ऐसी इच्छा हो कि यह धर्म संगठन जीवित रखा जाय वहाँ यह भी प्रबन्ध किया जाय कि इसे चलाने के लिये घर-घर जाकर धर्म प्रेरणा देने-लोगों को आग्रहपूर्वक एकत्रित करने या किसी कार्यक्रम में लगाने के लिये धर्म फेरी करने को कौन-कौन तैयार होगा। जहाँ कहीं कुछ लोग ऐसे होंगे और जब तक उनमें उत्साह शेष रहेगा तब तक निश्चित रूप से- छोटे या बड़े रूप में - तीव्र या मंद गति से वह धर्म संगठन भी चलता रहेगा।

इस संगठन तत्व को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने समझा है। वे लोग प्रातःकाल ही घर-घर जाकर लड़कों को अपनी शाखा में लिवा कर लाते हैं और अपना कार्यक्रम चलाते हैं जो लोग आना बंद कर देते हैं उनके यहाँ बार-बार जाकर असाधारण प्रेम से समझाते हैं और किसी प्रकार उसे फिर आने के लिए तैयार कर लेते हैं। नये सदस्य बढ़ाने के लिए भी वे घर-घर जाने की प्रक्रिया अपनाते हैं। यदि इस धर्म फेरी के कार्यक्रम को उनकी गतिविधि में से हटा दिया गया होता तो निश्चय ही वह संगठन भी अनेकों अन्य संगठनों की भाँति कब का मृतप्राय हो गया होता। संगठन को सजीव रखने की यह अत्यन्त आवश्यक पद्धति हम सीख सकें, उस पर चल सकें तो ही गायत्री परिवारों और उनकी गतिविधियों को जीवित रखने की कुँजी प्राप्त कर सकें। इस प्रक्रिया के अभाव में इस संगठन का भी दुखद अन्त वैसे ही हो जायगा जैसे अब तक बने अनेकों उपयोगी संगठनों का मरण हो चुका है।

गायत्री परिवार के लोग लगभग 15 हजार सदस्य बन चुके और सात सौ से अधिक शाखाएं बन चुकीं। 24 हजार सदस्य बनाने एवं 1 हजार शाखाएं स्थापित करने की प्रथम वर्षीय योजना आसानी से पूर्ण हो जायेगी। आगे का कार्य बढ़ाने से पूर्व अब हमें एक ही काम करना है कि इन संगठनों को जीवित रखने की व्यवस्था कर ली जाय। अपने घर बैठ कर अपना निज का जप करने वाले साधारण सदस्यों का स्वागत है, उनका कदम सराहनीय है। पर उनको मार्गदर्शन करने एवं प्रेरणा देने के लिए ऐसे इंजनों की आवश्यकता है जो इन डिब्बों के पहियों को अपनी प्रयत्नशीलता एवं शक्ति के द्वारा चलते हुए बनाये रहें। इस कार्य के लिए लोगों के घरों पर जाने और उन्हें प्रेरणा देने की धर्म फेरी के लिए उन्हें कुछ समय नियमित रूप से देना पड़ेगा।

सभी मनुष्यों के पास कुछ न कुछ अवकाश अवश्य रहता है। न रहता हो तो भी अपने प्रिय विषय के लिए कोई न कोई समय निकाला जा सकता है। फुरसत उस काम के लिए नहीं मिलती जो अरुचिकर एवं उपेक्षणीय मालूम देता है। जो गायत्री उपासक-गायत्री माता की महत्ता और प्रसार की आवश्यकता को सच्चे मन से स्वीकार करेगा उसे उस कार्य के लिए समय न मिले यह हो नहीं सकता। अनेकों अत्यधिक कार्यव्यस्त गायत्री परिवार के उत्साही कार्यकर्ताओं ने गायत्री प्रचार के लिए इतना अधिक कार्य कर डाला है कि आश्चर्य होता है। रामगंज मंडी के मास्टर शम्भू सिंह, बरेली के श्री चिममलाल सूरी, बिजनौर की तपस्विनी विद्यावती, नवाबगंज के पं0 रामाभिलाष त्रिपाठी, बारा के पं0 श्रीकृष्ण शर्मा, आरंभ के पं0 विद्य प्रसाद मिश्र आदि बीसियों सज्जन ऐसे हैं जिन्होंने अपने बहुमूल्य समय में धर्म फेरी के लिए समय दिया और अपने क्षेत्रों में कई-कई सौ-कई-कई हजार नैष्ठिक उपासक बनाये तथा छोटे-बड़े अनेक सार्वजनिक यज्ञानुष्ठानों का आयोजन किया। इस सफलता में उनकी योग्यता एवं परिस्थिति नहीं- एक मात्र लगन की ही विशेषता है। जिस किसी में भी थोड़ी लगन हो वह आश्चर्यजनक कार्य करके दिखा सकता है। लगन की महत्ता असाधारण है इस महाशक्ति के द्वारा तुच्छ व्यक्ति भी महान कार्यों का सम्पादन कर सकता है।

अब तक गायत्री परिवार संगठन में (1) ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के अंतर्गत अपनी उपासना करने वाले सदस्यगण (2) पत्र व्यवहार एवं व्यवस्था करने वाला एक मंत्री, यह दो ही विभाग थे। अब एक तीसरी श्रेणी ‘व्रतधारी सक्रिय कार्यकर्ताओं’ की और बनाई जा रही है। प्रत्येक शाखा संगठन की कार्यकर्त्ती सेना एवं प्राणवाहिनी धमनी, एवं पथ प्रदर्शक प्रकाश ज्योति की भाँति यह तीसरी श्रेणी ही रहेगी। अपनी निज की उपासना के अतिरिक्त इन व्रतधारी कार्यकर्ताओं के प्रमुख कार्य यह होंगे। (1) गायत्री संस्था की विचारधारा और कार्यशैली पर अधिकाधिक गम्भीर विचार करना और उसकी उपयोगिता पर अपनी आस्था दिन-दिन बढ़ाये जाना। ताकि उस निष्ठ के आधार पर कुछ अधिक कार्य कर सकने की अन्तः प्रेरणा अपने भीतर दिन-दिन तीव्र गति से प्रस्फुटित होती रहे। (2) अपने अवकाश के समय में से ऐसा समय धर्मफेरी के लिए निकालना जो लोगों को भी सुविधाजनक हो। उस समय का लोगों के घरों पर जाना और संगठन, सामूहिक कार्य शैली तथा सच्चरित्रता संच्चत्रित एवं साँस्कृतिक विचार धारा की महत्ता समझाना (3) सप्ताह में कम से कम अपने एक दिन के भोजन के बराबर पैसों का सद्ज्ञान प्रसार के लिए दान करना। इन तीन प्रतिज्ञाओं का पालन करने वाले गायत्री उपासक व्रतधारी कह लावेंगे। उनके प्रतिज्ञा पत्र प्रत्येक शाखा में भेजे जा रहें हैं और आशा की जा रही है कि संस्था संचालक सज्जन अपने सदस्यों में कुछ व्रतधारी तैयार करेंगे। व्रतधारी बनने के लिए जोर पूरा पूरा देना चाहिए पर संकल्प पत्र तभी भराना चाहिए जब वह स्वेच्छा एवं सच्चे मन से कर्तव्य पालन के लिए तैयार हो जाय। कह सुनकर फार्म भरवा लेने की कागजी कार्यवाही इस संबंध में कदापि न करनी चाहिए।

(1) साधारणतया लोग किसी भौतिक लोभ या लाभ की प्रेरणा से कुछ कार्य करते हैं पर पंगु धर्म को कंधा देकर व्रतधारी का कर्तव्य पालन करने में कोई आर्थिक या भौतिक लाभ नहीं है। ऐसी दशा में मनुष्य की साँसारिकता प्रधान बुद्धि उसे इन कार्यों में दूर रहने या उतना ही समय देने जितने में मान बड़ाई मिले की सलाह देती रहती है। फलस्वरूप कार्यकर्ता का मन शिथिल हो जाता है। इस स्थिति से बचने, अपनी आन्तरिक निष्ठ को सुदृढ़ रखने के लिए निरन्तर यह विचार करना चाहिए कि हाथ में लिया हुआ कार्य कितना महत्वपूर्ण है, कितना महान है, उससे हमारा अपना कितना बड़ी आत्म कल्याण है तथा संसार की कितनी बड़ी सेवा है। प्रायः नित्य ही व्रतधारी को इस प्रकार के विचारों का चिन्तन करना, निस्वार्थ भाव से धर्म सेवा करने वाले लोगों के जीवन वृत्तांत पढ़ना, ऐसी ही चर्चायें, करना तथा सुनना आवश्यक है। यदि अपने को उत्साहित करते रहने वाली प्रेरणा प्राप्त न करते रहा जायगा तो व्रतधारी का उत्साह भी ठण्डा पड़ जायगा। इसलिए व्रतधारी का प्रथम कर्तव्य आत्म प्रेरणा प्राप्त करते रहना है।

(2) निद्रा, भोजन, स्नान विश्राम आदि शारीरिक कृत्य और आजीविका उपार्जन के निर्धारित समय के अतिरिक्त का या अन्य कोई न कोई समय प्रत्येक व्यक्ति को मिल सकता है जिससे वह अपने निकटवर्ती लोगों को सन्मार्ग की प्रेरणा देने के लिए लगा सके। नौकरी पेशा वालों को तथा व्यापारियों को सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलती है। त्यौहारों पर भी आम छुट्टी रहती है। इसमें से कुछ न कुछ समय धर्म प्रचार के लिए-धर्म फेरी के लिए देना चाहिये। गर्मी के दिनों में खेती का तथा शिक्षा का कार्य बन्द रहता है, वह तथा ऐसे ही अन्य समयों को सार्वजनिक कार्य के लिए लगाना चाहिए। अपनी ही अभिरुचि के कुछ साथी और भी मिल जाते हैं तो एक डेपूटेशन के रूप में धर्म प्रचार के लिए भ्रमण करना एक बड़ा मनोरंजक कार्य बन जाता है। पुराने समय में पैदल तीर्थ यात्रा का उद्देश्य यही था कि रास्ते में पड़ने वाले गाँवों में धर्म प्रचार करते हुए जावें और नियत तीर्थ में नियत पर्व पर, एकत्रित होने वाले अपने समान विचारधारा के अन्य तीर्थ यात्रियों-धर्म सेवियों से संपर्क बनावें एवं एक दूसरे से प्रेरणा प्राप्त करें। अब तीर्थों का, पर्वों का, यात्रियों का दृष्टिकोण बदल गया है और वह सब एक आडम्बर मात्र रह गया है। धर्म फेरी चाहे अपने गाँव तक ही सीमित हो, चाहे लम्बे दौर के रूप में हो तीर्थ यात्रा का वास्तविक उद्देश्य पूर्ण करती है। पंगुधर्म को कन्धा देकर आगे बढ़ाने के लिए श्रवण कुमार जैसे व्रतधारी चाहिएं जो गायत्री माता और यज्ञ पिता की काँवर अपने कंधे पर रखकर उन्हें सम्पूर्ण भारत की यात्रा करा सकें।

(3) भावना और श्रम के दो उपरोक्त कार्यों के अतिरिक्त धर्म सेवा का तीसरा तत्व दान है। हर धार्मिक व्यक्ति को अपनी कमाई में से कुछ न कुछ दान धर्म सेवा के लिए अवश्य करना चाहिए। आज लोग दान तो करते हैं पर उसका अधिकाँश भाग कुपात्रों और मुफ्तखोरों के पेट में जाता है। ऐसे दान से दाता की, दान लेने वाले की तथा समाज की हानि ही होती है। दान, मनुष्य की धर्म प्रवृत्ति को विकसित करने का सब से आवश्यक अंग है। इसलिए हिन्दू धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य दान के साथ ही सम्पन्न होता है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता मनुष्यों में सद्विचार उत्पन्न करने की है, सद्विचारों की प्रेरणा से ही मनुष्य सत्कर्म करता है। इसलिए ज्ञान दान को, ब्रह्मदान को, सबसे बड़ा दान माना गया है। शास्त्रों में लिखा है कि अन्न दान की अपेक्षा ज्ञान दान का पुण्य सौगुना अधिक है।

आज जनता की मनोवृत्ति को नैतिक एवं साँस्कृतिक स्तर पर निर्माण करने की बड़ी भारी आवश्यकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गायत्री तपोभूमि अत्यन्त ही सस्ता-वितरण करने योग्य साहित्य छापना चाहती है। जिसमें मानव जीवन के प्रत्येक पहलू पर प्रेरणाप्रद विचार दिये जाएँ। व्रतधारी कार्यकर्ता प्रति सप्ताह एक दिन का भोजन इस कार्य के लिए दान करें। जिनकी आर्थिक स्थिति अनुकूल है वे साप्ताहिक उपवास में अल्पाहार आदि करते हुए भी कम से कम दिन के भोजन के पैसे और अधिक से अधिक जितनी अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य हो, उतना निकालें। जिनकी सामर्थ्य नहीं है वे सप्ताह में एक दिन दोनों समय का या कम से कम एक समय के भोजन का पैसा बचाकर, उससे सस्ता साँस्कृतिक प्रचार साहित्य खरीदते रहें और उसे अपने क्षेत्र में दूर-दूर तक बराबर पहुँचाते रहने का प्रयत्न किया करें। यह उपवास से बचाया हुआ पैसा इस प्रकार अगणित व्यक्तियों के अन्तःकरणों में ज्ञान सुधा की अमृतमयी बूँदें टपकाने में अत्यन्त ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है। एक दीपक से दूसरा दीपक जलाने की भाँति एक व्रतधारी अपने सद्भाव श्रम एवं दान के द्वारा अनेकों आत्माओं को प्रकाशवान बना सकता है।

इस ब्रह्मदान, ज्ञान यज्ञ के अंतर्गत व्यापक संस्कृति विश्व विद्यालय की योजना भी जुड़ी हुई है गत नवम्बर माह की अखण्ड-ज्योति में प्रति सप्ताह एक पुस्तिका सदस्यों के लिए निकालने की योजना छपी थी, पर उसके छपाने का कागज छपाई खर्च एवं पोस्टेज की कोई व्यवस्था न होने के कारण उसे चालू करना संभव न हो सका। गायत्री परिवार का संगठन करने और शाखाएं बनाने में कागज, छपाई, पोस्टेज आदि में बहुत धन व्यय हुआ है पर संगठन से आय एक पैसे की भी न होने से वह खर्च, ऋण रूप चढ़ा हुआ है। खर्च निरन्तर हो, आय कुछ भी न हो तो कोई योजना चल नहीं सकती। इसलिए व्रतधारी सदस्यों के साप्ताहिक उपवास द्वारा बचाये हुए अन्न पर साँस्कृतिक ज्ञान प्रसार का आधार रखना निश्चय किया गया है।

प्रति सप्ताह एक छोटी सी अत्यन्त सुन्दर और सस्ती पुस्तिका छापी जाय, जिसकी लागत डाक खर्च समेत लगभग तीन आना पड़े। व्रतधारी के पास यह पुस्तक हर हफ्ते पहुँचे। प्रतिदिन एक व्यक्ति के पास जाकर वह उस पुस्तिका को पढ़ने दे और दूसरे दिन उससे वापिस लेकर दूसरे को दें। इस प्रकार छः दिन में दो व्यक्तियों के द्वारा वह पुस्तक पढ़ ली जाय। सातवें दिन साप्ताहिक सत्संग में उस पर विचार विनिमय किया जाय। पुस्तक व्रतधारी के पुस्तकालय में जमा कर दी जाय। अगले सप्ताह फिर एक नई पुस्तक का क्रम उसी हिसाब से चल पड़े। इस प्रकार प्रत्येक व्रतधारी अपने संरक्षण में कम से कम छः व्यक्ति ले और तपोभूमि द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक प्रचार पुस्तिका द्वारा उनका शिक्षण करता रहे। इस प्रकार वह अपने छः छात्रों का एक अध्यापक होगा व्रतधारी यह प्रयत्न करेगा कि इन छः छात्रों में से भी व्रतधारी निकलें और वे भी इसी क्रम से छह-छह अपने छात्र बढ़ावें। इस प्रकार यह शृंखला फैलती हुई लाखों करोड़ों व्यक्तियों के मनः क्षेत्रों का निर्माण करती हुई उन्हें सदाचारी, सज्जन, सेवाभावी बना सकती है। साँस्कृतिक विश्व विद्यालय के व्रतधारी अध्यापकों की बढ़ती हुई संख्या घर-घर में अपने छात्र बनाकर लोक शिक्षा का भारी काम कर सकता है। इसका आर्थिक आधार व उपवास से बचाया हुआ अन्न ही होगा। यह अन्न-धन सत्साहित्य खरीदकर अपनी समीपवर्ती जनता को पुस्तकें पढ़ाने तब पर्चे बैस्लेट जैसी छोटी-छोटी ज्ञानवर्धक वस्तुएं बिना मूल्य वितरण करने में ही होगा। यह थोड़े से पैसे वह काम कर सकते हैं जो बड़े-बड़े धनिकों द्वारा आडंबरपूर्ण कार्यों में खर्च किये गये लाखों करोड़ों रुपये भी नहीं कर सकते।

गायत्री शाखा के संगठन का प्रारम्भिक कार्य गत छः महीने में बहुत कुछ हो चुका। अब आगे कदम बढ़ाने में पूर्व अब तक के किये हुए कार्य को संभाल लेना चाहिए। अब प्रत्येक शाखा संचालन से तथा प्रत्येक सदस्य से अनुरोध किया जा रहा है कि वह अपने संगठन में अधिक से अधिक व्रतधारी उत्पन्न करे। जिस प्रकार अच्छी घड़ियों में ‘जुएलों’ की संख्या उसकी उत्कृष्टता का चिन्ह माना जाता है उसी प्रकार प्रत्येक शाखा की स्थिरता तथा उसके भविष्य की उज्ज्वलता व्रतधारियों की संख्या पर ही निर्भर है। अब अगला कदम उठाने का समय आ गया। प्रत्येक गायत्री उपासक को व्रतधारी सक्रिय कार्यकर्ता एवं संस्कृति विश्वविद्यालय का उपाध्याय बनाने के लिये सादर आमंत्रित किया जा रहा है।


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