हमारा आध्यात्मिक धर्म

June 1957

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(स्वामी विवेकानन्द)

यद्यपि हिन्दू धर्म रूप सौध के अनेक भव्य आधार-स्तम्भ, बहुतेरी सुन्दर कमानियाँ और बहुतेरे विचित्रतापूर्ण कोने-कोने, कई सदियों तक जो देश को प्रलयमग्न करने वाली बाढ़ें आयीं, उनमें बह कर नष्ट हो गये, तथापि उसकी नींव पूर्णतः ज्यों की त्यों अटल है---मध्यवर्ती भारवाही संधि शिला सुदृढ़ है, वह आध्यात्मिक भक्ति---जिस पर हिन्दू जाति की ईश्वर भक्ति और भूत दया का अपूर्व कीर्ति-स्तम्भ स्थापित हुआ है, वह किंचित भी विचलित नहीं हुई, वरन् पूर्णवत् सुदृढ़ और सबल बनी है।

भारत की जन्मजात धार्मिक प्रकृति है, जिसके कारण उसकी अन्तरात्मा ईश्वर और उसके सन्देश में, धर्म के उस प्रबल तरंग की प्रथम गूँज का अनुभव कर रही है, जो निकट भविष्य में सारे भारतवर्ष पर अपनी सम्पूर्ण अबाध्य, शक्ति के साथ अवश्यमेव आघात करेगा और अपनी अनन्त शक्ति सम्पन्न बाढ़ द्वारा हर प्रकार की दुर्बलता और सदोषिता को दूर बहा ले जायगा तथा हिन्दू जाति को उठा कर विधि नियोजित उस उच्च आसन पर बिठा देगा जहाँ उस का पहुँचना निश्चित और अनिवार्य है, वहाँ वह भूतकाल की अपेक्षा और भी अधिक वैभवशाली बनेगा, शताब्दियों की नीरव कष्ट सहिष्णुता का उपयुक्त पुरस्कार पायेगा और संसार की समस्त जातियों के मध्य अपने उद्देश्य आध्यात्मिक प्रकृति सम्पन्न मानव जाति के विकास को- पूर्ण करेगा।

आज भारतवर्ष में जो भावमयी स्फूर्तियां काम कर रही हैं उनमें से अधिकाँश का दक्षिण भारत से उद्गम होना पाया जाता है। श्रेष्ठ भाष्यकार गण, युग प्रवर्त्तक आचार्यगण---शंकर, रामानुज और मध्व ने यहीं जन्म लिया है, उन भगवान शंकराचार्य के सामने संसार का प्रत्येक अद्वैतवादी ऋणी मस्तक झुकाता है, उन महात्मा रामानुजाचार्य के स्वर्गीय स्पर्श ने पद दलित परिया लोगों को अलवार बना दिया तथा उत्तर भारत के महापुरुष---श्री कृष्ण चैतन्य, जिनका प्रभाव सारे भारतवर्ष में है, उनके अनुयायियों ने भी उन महाविभूति मध्याचार्य का नेतृत्व स्वीकार किया।

अज्ञ आक्रमणकारियों द्वारा पुनः पुनः प्रतिवाद होते रहने पर भी आज श्रुति ही हिन्दू धर्म की सभी विभिन्न सम्प्रदायों का मेरुदण्ड है।

वेद के संहिता और ब्राह्मण भागों की महिमा, मानव जाति के इतिहास की खोज लगाने वालों के लिये और शब्द शास्त्रियों के लिये चाहे जितनी अधिक हो--पर यह सब तो भोग मार्ग है और किसी ने भी इस के द्वारा मोक्ष प्राप्ति का दावा नहीं किया। इसी कारण ज्ञान काण्ड, जो आरण्यक नामक श्रुति का श्रेष्ठ भाग है और जिसमें आध्यात्मिकता की मोक्ष मार्ग की शिक्षा दी गयी है, उसी का प्रभुत्व भारत में आज तक सदा रहा है और भविष्य में भी रहेगा।

चाहे वह वैशेषिकों का सूक्ष्म विश्लेषण ही हो, जिसके परिणाम में परमाणु हृदणु और त्रसरेणु के विचित्र सिद्धान्त निकाले गये हैं, चाहे वह नैयायिकों का उससे भी विचित्रतर विश्लेषण हो, जो जाति, द्रव्य, गुण, समवाय की चर्चा में दीख पड़ता है, चाहे वह परिणाम वाद के जन्मदाता साँख्यवादियों के गंभीर विचारों की प्रगति ही हो, इन सब संशोधनों के परिणामस्वरूप “व्यास सूत्र रूप” परिपक्व फल ही क्यों न हो- मानवी मन के इन विभिन्न विश्लेषणों और संश्लेषणों में वही “श्रुति” ही एक मात्र आधार है। इतना ही नहीं, वरन् बौद्धों और जैनियों के दार्शनिक ग्रन्थों में भी श्रुति की सहायता का परित्याग नहीं किया गया है और बौद्ध मत के कुछ पन्थों में और जैनियों के अधिकाँश ग्रन्थों में तो श्रुति का प्रामाण्य पूर्णतः स्वीकार किया गया है।

यदि कोई यह पूछे कि वह कौन सा विशिष्ट दर्शन है, जिसकी ओर केन्द्र की तरह प्राचीन और अर्वाचीन समन्त हिन्दू विचार प्रणालियाँ झुकी हुई हैं, यदि कोई हिन्दू धर्म के विभिन्न स्वरूपों के असली मेरुदण्ड को देखना चाहे तो निःसन्देह “व्यास सूत्र” की ही और निर्देश किया जायगा।

चाहे हिमालय के अरण्यों की हृदय स्पंदन को भी स्तब्ध कर देने वाली गम्भीरता में अद्वैत केसरी को, र्स्वनदीडडडडड के गंभीर स्वर में मिले हुए मेघ गर्जन ध्वनि में ‘अस्ति-भाति-प्रिय’ की घोषणा करते हुए सुनो, अथवा वृन्दावन के मनोहारी कुंजों में “प्रिया-प्रीतम” का कूजन सुनो, चाहे काशीपुरी के मठों में साधुओं के साथ गहरे ध्यान में मग्न हो जाओ, या नदिया के अवतार श्री गौराँग महाप्रभु के भक्तों के उन्माद पूर्ण नृत्यों में सम्मिलित हो, बड़केले और तेनकेले आदि अनेक आशायुक्त विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त के आचार्य चरणों का आश्रय लो या माध्व सम्प्रदाय के आचार्यों का उपदेश श्रद्धा के साथ श्रवण करो, साँसारिक सिक्खों का ‘वाह गुरु की फतह’ समरनाद ही सुनो या उदासी और निर्मल लोगों के “ग्रन्थ साहब” के उपदेशों को ही सुनो, चाहे कबीर दास के संन्यासी शिष्यों को “सत् साहब” कहकर प्रणाम करो और साखी (भजन) के श्रवण का आनन्द उठाओ, चाहे राजपूताना के, सुधारक दादू के अद्भुत ज्ञान भण्डार को पढ़ो या उन के राज शिष्य सुन्दर दास से लेकर उस विचार सागर के प्रख्यात लेखक निश्चल दास के ग्रन्थों को ही पढ़ो--जिस (विचार-सागर) का प्रभाव भारत में गत तीन शताब्दियों में किसी भी भाषा में लिखे हुए ग्रन्थों से अधिक है, चाहे उत्तर भारत के किसी भंगी-मेहतर से अपने लाल गुरु के उपदेशों का वर्णन करने को कहो-- तो इन सभी उपदेशकों और विभिन्न पन्थों का मूल आधार वही मत दिखाई देगा, जिसका प्रमाण ‘श्रुति है’, ‘गीता’ जिसकी दैवी टीका है, शारीरिक सूत्र जिसका संगठित रूप है और भारत के सभी प्रकार के मत-मतान्तर-परमहँस परिव्राजकों से लेकर लाल गुरु के बेचारे तिरस्कृत मेहतर शिष्यों तक के मत--जिस मत के भिन्न-भिन्न रूप हैं।

तब तो यह “अस्थान त्रयी” ही द्वैत, अद्वैत विशिष्टा द्वैत और अन्य कुछ अप्रसिद्ध व्याख्याओं के साथ हिन्दू धर्म का ‘प्रमाण ग्रन्थ’ है। वेद के संहिता भाग प्राचीन विवरण के आधुनिक स्वरूप पुराण ही इसका उपाख्यान विभाग है और वैदिक ब्राह्मण भाग का आधुनिक स्वरूप तन्त्र ही उसका “कर्म काण्ड” है।

इस प्रकार एक मात्र प्रस्थान त्रयी ही सभी सम्प्रदायों का साधारण प्रमाण ग्रन्थ है, परन्तु प्रत्येक सम्प्रदाय ने पुराणों और तन्त्रों में से अपने लिये एक-एक को अलग-अलग ग्रहण कर लिया है।

मैं ऐसा तो नहीं कह सकता कि सभी हिन्दू अपने धर्म के इस मूल के सम्बन्ध में पूर्णतः परिचित हैं। बहुतेरे लोगों ने तो इन सम्प्रदायों और इन महान प्रणालियों के नाम तक नहीं सुने हैं, परन्तु जानकर या अनजान में वे सब इसी 6 प्रस्थानत्रयी दे में निर्धारित योजना के अनुसार काम करते हैं।

दूसरी ओर देखो तो जहाँ कहीं हिन्दी भाषा बोली जाती है, वहाँ अति नीच वर्गों में भी दक्षिण बंगाल के बहुतेरे उच्चतम वर्गों की अपेक्षा वेदान्त धर्म की अधिक जानकारी है।

श्री चैतन्य का प्रभाव सारे भारतवर्ष में दिखाई देता है। जहाँ कहीं भक्ति मार्ग की जानकारी है, वहाँ उनकी पूजा-- मान्यता तथा उनके सम्बन्ध की चर्चा प्रचलित है। बल्लभाचार्य का सम्पूर्ण सम्प्रदाय श्री चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय की एक शाखा मात्र है। उनके शिष्य कहलाने वाले लोग यह नहीं जानते कि उनकी शक्ति सारे भारतवर्ष में किस तरह काम कर रही है? और वे समझें भी कैसे? इनके शिष्यगण तो गद्दी वाले बन गये, पर वे स्वयं तो भारत में नंगे पैर चाण्डाल तक के द्वार-द्वार पर जाकर भगवान के प्रति प्रेम सम्पन्न होने की भीख माँगते फिरे।

हिन्दी भाषी संसार में बड़े प्रभावशाली, प्रतिभावान, त्यागी उपदेशकों की परम्परा ने द्वार-द्वार तक वेदान्त के सिद्धान्तों को पहुँचा दिया है। विशेषकर पञ्जाब केशरी रणजीत सिंह के शासन काल में त्यागियों को प्रोत्साहन दिया गया, उसके कारण नीचातिनीचों को भी वेदान्त दर्शन के उच्चतम उपदेशों को ग्रहण करने का अवसर मिल गया। सात्विक अभिमान के साथ पञ्जाब की कृषक पुत्री कहती है :- “ मेरा सूत कातने का चरखा भी ‘सोऽहम्’ ‘सोऽहम्’ पुकार रहा है।’ मैंने मेहतर त्यागियों को भी हृषीकेश के अरण्यों में संन्यासी वेष धारण किए वेदान्त का अध्ययन कर देखा है और वे ऐसे वैसे नहीं हैं। अनेकों अभिमानी उच्चवर्णीय पुरुष भी उनके चरणों के समीप बैठकर शिक्षा प्राप्त करने में प्रसन्न होंगे।

एक संन्यासी कचू पन्थी या स्वतन्त्र पन्थी (जो अपने को किसी पन्थ में शामिल नहीं करते) ऐसे हैं जिनके द्वारा राजपूताना में सैकड़ों पाठशालाओं और दातव्य आश्रम हुए हैं। उन्होंने जंगलों में अस्पताल खोले हैं और हिमालय के दुर्गम गिरि नदियों को पार करने के लोहे के पुल बनवाये हैं और वे ऐसे पुरुष हैं जो सिक्के को अपने हाथों से छूते तक नहीं। उनके समान और कितने ही हैं। भारत वर्ष में जब तक ऐसे भूदेव पृथ्वी पर जीवित रहेंगे और अपने दैवी आचरण रूपी परकोटे ‘सनातन धर्म’ करते रहेंगे तब तक वह पुराना धर्म क्या कभी मर सकता है?

भारतवर्ष के सभी सम्प्रदाय स्थूल रूप से ज्ञान मार्गों और भक्ति मार्गों-इन दो श्रेणियों में विभक्त किये जा सकते हैं। श्री शंकराचार्य कृत शारीरिक भाष्य भूमिका में ज्ञान की निरपेक्षता के सम्बन्ध में पूर्ण विवेचन मिलेगा, इसमें सिद्धान्त यह निकाला गया है कि ब्रह्म की अनुभूति और मोक्ष की प्राप्ति किसी अनुष्ठान, मत, वर्ण, जाति या सम्प्रदाय पर अवलम्बित नहीं है। कोई भी--साधन चतुष्टय सम्पन्न साधक उसका अधिकारी बन सकता है।

भक्ति मार्ग के विषय में भक्ति के कई आचार्यों ने यह घोषणा की है कि जाति, वंश, लिंग आदि की आवश्यकता मोक्ष के लिये नहीं है। केवल एक आवश्यक वस्तु है भक्ति।

समाज किसी को सामाजिक नियम भंग करने के अपराध में शासित करे, पर अति नीच पतित के लिए भी हिन्दू धर्म में मोक्ष मार्ग कभी बन्द नहीं किया गया।

त्यागी सन्त श्री निश्चलदास ने अपने---” विचार सागर” में स्पष्टतापूर्वक कहा है-- “जो ब्रह्मविद वही ब्रह्मताको वाणी वेद। संस्कृत और भाषा में करत भरम का छेद॥”, “जिसने ब्रह्म को जान लिया वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है और उससे अज्ञान का अंधकार दूर हट जायगा, चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या आधुनिक भाषा में हो। “

अब हिन्दुओं की मूर्त्ति पूजा कही जाने वाली तथा-कथित प्रथा को लीजिये---प्रथम तो आप जाकर पूजा के विभिन्न प्रकारों को सीखिये और यह निश्चय कीजिये कि वे उपासक यथार्थ में पूजा कहाँ कर रहे हैं-मन्दिर में, प्रतिमा में या अपने देह-मन्दिर में? पहले यह तो निश्चय रूप से जान लीजिये कि वे क्या कर रहे हैं और तब वेदान्त दर्शन की दृष्टि से वह बात अपने आप ही समझ में आ जायगी।

वह भारत जो प्राचीन काल से सभी उदात्तता, नीति और आध्यात्मिकता का जन्म-स्थान रहा है, वह देश जिसमें ऋषिगण विचरण करते रहे हैं, जिस भूमि में देव तुल्य मनुष्य अभी भी जीवित और जागृत हैं, क्या मर जायगा? तब तो संसार से सारी आध्यात्मिकता का समूल नाश हो जायगा। सारे सदाचार पूर्ण आदर्श-जीवन का विनाश हो जायगा। धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्ट हो जायगी और सारी भावुकता का भी लोप हो जायगा और उसके स्थान में काम रूपी देव और विलासिता रूपी देवी राज्य करेगी। धन उसका पुरोहित होगा। प्रतारण, पाशविक बल और प्रतिद्वन्द्विता ये ही उनकी पूजा पद्धति होगी और मानव आत्मा उनकी बलि सामग्री हो जायगी, पर ऐसी दुर्घटना कभी नहीं हो सकती। क्रियाशक्ति की अपेक्षा सहनशक्ति कई गुनी बड़ी होती है। प्रेम का बल, घृणा के बल की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक है।

सर्वप्रथम हमें ईर्ष्या रूपी कलंक को धो डालना चाहिए। किसी से ईर्ष्या न करो। भलाई के काम करने वाले प्रत्येक को अपने हाथ का सहारा दो। तीनों लोकों के जीवमात्र के लिए शुभ कामना करो अपने धर्म के उसी एक केन्द्र पर खड़े हो जाओ, जो हिंदू और बौद्ध और जैनियों के लिए पैतृक सम्पत्ति है।

आत्मा की शक्ति का विकास कीजिये और सारे भारतवर्ष के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दीजिए और जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्ति हो जायेगी।


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