हमारे पाँच आध्यात्मिक शत्रु

June 1957

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(श्री बुद्ध देव जी)

संसार में मनुष्य को दुःख देने वाले तीन प्रकार के शत्रु हुआ करते हैं। एक आधिदैविक, जैसे अतिवृष्टि, तूफान, भूकम्प आदि। दूसरे आधिभौतिक, जैसे सर्प, बिच्छू, टिड्डी, डाका, युद्ध आदि। तीसरे आध्यात्मिक, जैसे अज्ञान, स्वार्थ, विक्रोश, आलस्य और अभाव। इनमें से आधिदैविक और आधिभौतिक कष्ट बाहर से आते हैं और हम समय सूचकता तथा दूरदर्शिता के सहारे उनसे बहुत कुछ अपनी रक्षा कर सकते हैं। पर हमारे आध्यात्मिक शत्रु हमारे अपने मन या स्वभाव के ही विकार हैं इसलिये उनका प्रतिकार तब तक नहीं किया जा सकता जब तक हम स्वयं अपना सुधार न कर लें।

(1) अज्ञान -श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि “नहिज्ञानेन सदृशम् पवित्रमिह विद्यते।” अर्थात् “ज्ञान के सदृश्य पवित्र वस्तु संसार में दूसरी नहीं है।” इससे स्पष्ट है कि अज्ञान के समान अपवित्र वस्तु भी दूसरी नहीं है। हम अज्ञान को सबसे बड़ा शत्रु इसलिये कहते हैं कि इसके प्रभाव से हमारे हितैषी भी हित के बजाय हमारा अहित कर डालते हैं। जिन मनुष्यों ने सत्य का प्रकाश करने वाले विज्ञानवेत्ताओं के धमकाया, सताया, जीते जी जला तक दिया, वे अपनी समझ से तो संसार का और स्वयं विज्ञानवेत्ताओं का भी हित ही साध रहे थे।

किसी मनुष्य को केवल विचारों के प्रकट करने के लिए दण्ड नहीं दिया जाना चाहिए। क्योंकि न जाने जिन विचारों को आज हम सर्वथा सत्य समझते हैं, कल उनमें कुछ परिवर्तन हो जाय। यह विचार-स्वातंत्र्य की भावना कोई गम्भीर तत्व की बात नहीं है। परन्तु इतनी छोटी-सी बात का ज्ञान न होने के कारण न मालूम कितने पूजा के योग्य महापुरुषों का बलिदान कर दिया गया। जब इस विषय पर हम विचार करते हैं तो बड़ा आश्चर्य होता है कि मनुष्य अज्ञान से कैसा अंधा हो जाता है। इसलिये हम चरक महाराज के इस मत को सर्वथा ठीक मानते हैं कि “प्रज्ञापराधो मूलं सर्व रोगाणाम्” अर्थात् “समझ का दोष सब रोगों की जड़ है।”

इस समय मानव जाति के संगठन के सम्बन्ध में जो अज्ञान फैला हुआ है, आज तक सामाजिक उन्नति की साधारण-सी बातों को लोक-व्यवहार में प्रचलित करने में जितना प्रयत्न करना पड़ा है, और जितना अभी शेष है, उसे देखकर तो और भी आश्चर्य होता है। जो साधारण-सी भूलें हम एक छोटे-से परिवार के सम्बन्ध में होना सहन नहीं कर सकते वे ही सारे मानव समाज को दुःख दे रही हैं, यह देख कर किसे विस्मय न होगा? यह सब अज्ञान का ही प्रभाव है और इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि हमारे जितने भी कष्ट, आपत्तियों और हानिकारक बातें देखने में आ रही हैं उनमें से तीन चौथाई का कारण हमारा अज्ञान ही है।

(2) स्वार्थ--संसार का दूसरा शत्रु स्वार्थ अथवा तृष्णा है। वैसे तो कुछ महात्माओं को छोड़कर प्रत्येक मनुष्य में स्वार्थ और प्रेम का सम्मिश्रण होना अनिवार्य है, पर कितने ही लोगों में यह स्वार्थ असाधारण मात्रा में पाया जाता है और वह समाज के लिए बड़ा घातक सिद्ध होता है। इस सम्बन्ध में भर्तृहरि जी ने बड़े

सुन्दर ढंग से लिखा है :--

एकेतेपुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थ विनिघ्नन्तिये, सामान्यास्तु परार्थ मुद्यमभृतः स्वार्था विरोधेजये

तेऽर्मा मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निन्नन्तिये

ये मित्रन्ति निरर्थकम् परहितं ते के न जानीमहे॥

अर्थात् “इस संसार में चार प्रकार के मनुष्य होते हैं-एक वे महात्मा जो अपने स्वार्थ को त्याग करके दूसरों का हित करते हैं। दूसरे वे सामान्य लोग जो यदि उनके स्वार्थ को हानि न पहुँचती हो, तो यथाशक्ति परोपकार भी करते हैं। तीसरे वे राक्षस स्वभाव के व्यक्ति जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरों के स्वार्थ का नाश करते हैं। चौथे वे लोग जो बिना कारण, बिना किसी प्रकार के अपने लाभ के दूसरों की हानि करने में तत्पर रहते हैं। भर्तृहरि जी कहते हैं, ऐसे लोगों को किस नाम से पुकारा जाय यह समझ में नहीं आता।”

इस प्रकार स्वार्थ का अनुचित भाव मनुष्य को राक्षस बना देता है। यही काम, लोभ, मोह और अभिमान के रूप में प्रकट होता है।

(3) विक्रोश- मनुष्य जाति का तीसरा शत्रु विक्रोश है। यह वह दुर्गुण है जिसके कारण वे मनुष्य उत्पन्न होते हैं, जिन्हें भर्तृहरि जी ने चौथी श्रेणी में रखा है। कुछ मनुष्यों में दूसरों के दुःख में आनन्द लेने की स्वाभाविक दुष्प्रवृत्ति होती है। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि किसी भी कारण से नहीं, किंतु अकारण ही दूसरों को पीड़ा देते हैं। उनके हृदय में जो स्वाभाविक विध्वंसकारिणी प्रवृत्ति होती है उसी को विक्रोश का नाम दिया है। इसे क्रूरता तथा दुष्टता की प्रवृत्ति भी कह सकते हैं।

(4) आलस्य- मानव समाज का चौथा शत्रु आलस्य है। यह दुष्टों और अज्ञानियों में ही नहीं, परमात्मा और भले समझे जाने वाले लोगों में भी पाया जाता है। गीता में कहा है :--

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्व देहिनाम्। प्रसादालस्य निद्राभिस्तन्निवध्नाति भारत॥14। 6

अर्थात् “अज्ञान से तम उत्पन्न होता है जो सब प्राणियों को मूढ़ बना देता है। यह तमोगुण प्राणियों को प्रसाद, आलस्य और निद्रा के बन्धनों से बाँधता है।”

बहुत से मनुष्य ऐसे पाये जाते हैं जो अपने संचित धन में से सहस्रों रुपये दान करते हैं। उनमें पराये दुःख में संवेदना भी पाई जाती है। वे दान भी करते हैं। इस दशा में उनको स्वार्थी कैसे कहा जाय? वे किसी को दुःख भी जहाँ तक बन पड़ता है नहीं देते हैं। परन्तु स्वयं करते कुछ नहीं। इनका दोष आलस्य है। संसार में किसी को ‘दुःख न देना’ इतने मात्र से मानव समाज की उन्नति नहीं हो सकती। प्रत्येक मनुष्य को क्रियात्मक रूप में कुछ न कुछ देना भी चाहिए।

वेद में इस क्रिया को ‘सवन’ के नाम से पुकारा गया है। अर्थात्-प्रत्येक मनुष्य का धर्म है कि वह किसी न किसी पदार्थ में से सार को खींच निकाले। जो ‘सवन’ नहीं करते वे प्रभु के प्यारे नहीं हैं।

वेद का वचन है :--

“यः सुन्वतः सखा तस्मा इन्द्राय गायत”

(ऋग. 1। 4।10)

अर्थात्--”जो सवन करने वालों का सखा है इस इन्द्र के (अथवा परमात्मा व राजा के) गीत गाओ।”

(5) अभाव - पाँचवाँ शत्रु अभाव है। वास्तव में इसका मूल अज्ञान अथवा आलस्य ही है। किंतु अनेक अवस्थाओं में यह उन मनुष्यों से भी पाप कराता है जो स्वभाव से दुष्ट अथवा आलसी नहीं है। किसी ने ठीक ही कहा है-

वुभुक्षितः किन्न करोति पापम् क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति।

इस प्रकार का अभाव दो कारणों से उत्पन्न होता है।

(1) उपभोक्ताओं (खर्च करने वालों) की अतिवृद्धि से। ज्ञानी पुरुष और समाज के दूरदर्शी नेता पहले से सोचकर इन विपत्तियों का प्रतिकार कर सकते हैं।


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