औरों का उपकार (Kavita)

June 1957

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मानव होकर मानवता से तुमने कितना प्यार किया है, इस जीवन में तुमने कितना औरों का उपकार किया है।

सुन पाये हो इन कानों से जग की कितनी करुण कहानी, डाल सके पर-दुख-दावा में तुम कितना आँखों का पानी।

कितनों के अवलम्ब बने हो, कितनों को भर अंक मिलाया, स्वयम् गरल पी-पी कर कितना औरों को पीयूष पिलाया।

बन कर निर्देशक कितनों को तुमने भूली राह बताई, कितनों के तमसावृत मन में तुमने जीवन-ज्योति जगाई।

लोभ, मोह, मद कितना छोड़ा, नाता काम-क्रोध से तोड़ा, विषय-वासनाओं से हट कर कितना प्रेम ईश से जोड़ा।

जीवन का क्या अर्थ यहाँ है, क्यों कञ्चन-सा तन पाया है, क्या इसको कुछ समझ सके हो, क्यों नर भूतल पर आया है।

क्या अपने की परिभाषा में—सीमित है परिवार तुम्हारा, क्यों न सुनी यह अमृतवाणी—है कुटुम्ब संसार तुम्हारा।

कितनी त्याग सके पर-निन्दा, कितना अपना अन्तर देखा, कितना रख पाये हो अब तक, अपने पाप-पुण्य का लेखा।


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