(श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन)
यदि हम हिन्दू धर्म का तत्व जानना चाहें तो हम इतना ही कह सकते हैं कि इसका आधार उस सच्ची आध्यात्मिक अनुभूति पर है, जिसे हमने अपने अन्तस्थल में दृढ़तापूर्वक पकड़ रखा है। जब हम वैदिक काल को अपने धर्म का मूल स्थान कह कर स्मरण करते हैं तो इसका अर्थ यही होता है कि वैदिक ऋषि हमारे पथ प्रदर्शक थे, उन्होंने सबसे पहिले आध्यात्म तत्वों का पता चलाया था। ऋषि शब्द ‘दृश’ धातु से बना है जिसका अर्थ ‘देखना’ होता है। इसके अनुसार धर्म का अर्थ देखा हुआ, दर्शन और अनुभूति होता है। ऋषियों ने जिस सत्य की घोषणा की है वह तर्क या दर्शन-शास्त्र का मनन करने का फल नहीं है वरन् इनकी आध्यात्मिक सूझ का परिणाम है। इसी कारण ऋषियों को वेद में पाये जाने वाले सत्य तत्वों का रचयिता नहीं समझा जाता वरन् वे केवल उनके देखने वाले हैं, जिन्होंने अपनी आत्मा को विश्वात्मा से तादात्म्य करके एक परम सत्यों का दर्शन कर लिया है। उनके वचनों का आधार आवेश पूर्ण सूझ नहीं है वरन् हृदय में स्थित शक्ति और जीवन का अनवरत अनुभव है। वेदों को सर्वश्रेष्ठ प्रमाण इसीलिए माना जाता है क्योंकि वास्तविकता ही सबसे बड़ी प्रामाणिकता है। ईश्वर हमारा कोई प्रिय आदर्श नहीं है, वह तो उस सत्य नाम है जिसका हम अनुभव करते हैं। आध्यात्मिक अनुभूति का अर्थ हमारा कोई काल्पनिक विचार नहीं होता। वरन् सत्य के निकटतम साहचर्य को ही आध्यात्मिक अनुभूति का नाम दिया जा सकता है।
जिस महात्मा ने भगवान का साहचर्य प्राप्त किया है, उसने केवल उसकी चर्चा सुनकर उसे नहीं जाना है, वरन् उसको अनुभव कर लिया है। उसके लिए शंका अथवा अविश्वास की गुंजाइश ही नहीं रहती और न उसके इस अद्भुत तथा सरल निश्चय को कोई डिगा सकता है। किंतु जिन्होंने धर्म का ज्ञान दूसरों से सुनकर प्राप्त किया है, जो धार्मिक बनने का कष्ट तो नहीं उठाना चाहते पर धर्म से प्राप्त होने वाले संतोष का उपभोग करना चाहते हैं-जो चाहते हैं कि चमत्कारपूर्ण कथाओं और कर्म काण्ड की विधियों से उनको फल मिल जाये- ऐसे साधारण मनुष्यों के लिए इस अनुभूति को चित्रात्मक स्थूल रूप देने की आवश्यकता पड़ती है। इसके सिवाय अपने अनुभव को दूसरे पर प्रकट करने का उसके रहस्यों को विशद रूप से देने का, और विरुद्ध आलोचनाओं से उसकी यथार्थता की रक्षा करने का एक मात्र साधन भाषा और तर्क है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए धर्म शास्त्रों की रचना की गयी है। उन शास्त्रों में ईश्वर की व्याख्या सभी प्रकार की संस्कृति के, या सभी दर्जे के लोगों के समझने के लायक पाई जाती है- बिल्कुल स्थूल भी और परम सूक्ष्म भी।
इस अन्तर्ज्ञान को जानने वाला महापुरुष जब अपने अनुभव को साधारण तर्क की भाषा में प्रकट करना चाहता है तो वह एक प्रबल विश्वास के साथ इस अलौकिक सत्य का प्रतिपादन करता है। वह जानता है कि आत्मा का निकट- सीधा सम्बन्ध एक ऐसे लोक से है जो इन्द्रिय जगत से भिन्न है- जो इन्द्रियों के इस सामान्य लोक से अत्यधिक तेजपूर्ण होकर भी उससे किसी प्रकार कम सत्य नहीं है। तर्क, अन्तर्ज्ञान और आध्यात्मिक अनुभूति सब एक स्वर से उस सत्ता की यथार्थता के साक्षी हैं जो इस सबका आधार है। उसी के सम्बन्ध में कहा गया है कि ‘अमरता और मृत्यु उसकी प्रतिच्छाया है’--(यस्यछाया मृतम् यस्य मृत्यु :--ऋग्वेद 10, 121।) आध्यात्मिक अनुभूति का मुख्य लक्षण यही है कि वह अनिर्वचनीय होती है, अर्थात् उसको शब्दों द्वारा ठीक-ठीक प्रकट नहीं किया जा सकता। जब हम अनुभूत सत्य का वर्णन करना चाहते हैं तब हमें रूपों तथा शब्दों का सहारा लेना पड़ता है, पर साथ में यह भी जान लेना चाहिए कि सत्य को प्रकट करने के लिए बड़े से बड़े शब्द और रूप भी अपर्याप्त हैं।
भगवान बुद्ध ने आध्यात्मिक अनुभूत की यथार्थता को स्वीकार किया है, पर इस अनुभूति द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है, इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न होने के कारण वे इतना ही कह कर संतुष्ट हो जाते हैं कि दिखलाई पड़ने वाले स्थूल जगत में एक सूक्ष्म भाव-जगत भी समाया हुआ है। इसी सम्बन्ध में शंकराचार्य जी का कहना है कि सभी रूपों में मिथ्या का अंश रहता है और सत्य उन रूपों से परे है; इस प्रकार चाहे हम उपनिषदों के सिद्धान्त को मानें, चाहे बुद्ध के मत पर विचार करें और चाहे शंकराचार्य के कथन को स्वीकार करें सब का तात्पर्य यही है कि वह अविभक्त तथा अद्वैत सत्ता इस अनेक रूप वाले अनित्य जगत से परे है, अथवा वह उसी में व्याप्त विशुद्ध तेजपूर्ण आत्मा है जिसे हम एक निर्गुण सखा के रूप में जानते हैं, पर न तो उसका वास्तविक ज्ञान ही सम्भव है और न उसका वर्णन ही किया जा सकता है। इसलिए हम कुछ न जानकर भी यह मान लेते हैं कि ईश्वर की महत्ता अज्ञेय (न जानी जा सकने वाली) है और वह मन तथा वचन की पहुँच के बाहर है। उपनिषदों ने भी कह दिया है---”वह ज्ञात से भिन्न है और अज्ञात से भी श्रेष्ठ है” (केनोपनिषद 1-3) “वहाँ तक दृष्टि नहीं पहुँचती, तथा मन और वाणी भी नहीं पहुँचती” (वृहदारण्यक उपनिषद्, 3-8-8)
यद्यपि इस ईश्वरीय-तत्व की पूर्णात् साँसारिक पदार्थों से भिन्न है, फिर भी वह हम में पाई जाने वाली श्रेष्ठतम वृत्तियों से कुछ मिलती-जुलती है। क्योंकि ब्रह्म का स्वरूप यदि मानव की आत्मा से बिल्कुल भिन्न होता तो उसका अस्पष्ट आभास पा सकना भी हमारे लिये संभव न था। तब हम यह भी न कह सकते कि ब्रह्म सर्वथा भिन्न गुणों वाला है। मनुष्य की आत्मा में, उसके अन्तस्थल में, उनकी बुद्धि के परे भी एक ऐसा तत्व है जो ब्रह्म से मिलता-जुलता है। मनुष्य के हृदय में ही ब्रह्मानुभूति का आधार मौजूद है। ईश्वर और मनुष्य की आत्मा (जीवात्मा) में किसी प्रकार समानता होने से ही आध्यात्मिक भावों की उत्पत्ति हुई है। यह केवल अनुमान का विषय नहीं है आध्यात्मिक अनुभूति में आत्मा तथा परमात्मा का भेद नहीं रहता। ‘तत्वमसि’ (तुम वही हो) इस महा-वाक्य में इसी सत्य का परिचय दिया है। ईश्वर वह अनंत तत्व है जो हमारे भीतर भी है और बाहर भी है। यदि हमारे भीतर परमात्मा न होता तो हमें उसकी आवश्यकता का अनुभव ही न होता और यदि वह हमारे बाहर न होता तो उसकी उपासना की कोई न जरूरत होती। इसलिए हमें यही स्वीकार करना पड़ता है कि परमात्मा मनुष्य की आत्मा का सबसे श्रेष्ठ रूप है।