प्रत्येक भक्त हो सकता है।

September 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती)

यह ध्यान में रखने की बात है कि भक्ति —साम्राज्य में रूप−रंग−लिंग−वर्ण आदि किसी का भी भेदभाव नहीं होता। महर्षि शाण्डिल्य भी अपने सूत्र से कहते हैं “छोटी जाति के स्त्री−पुरुषों को भी भक्ति का समान अधिकार है।” एक पक्का गिरहकट, सब से बड़ा पापी और दुष्ट नर−संघाती भी व्यक्ति का अभ्यास कर सकता है। किसी को भी भक्ति के लिये निराश होने का मौका नहीं है। भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं—”यदि कोई घोरतम पापी भी मुझे हृदय से प्रेम और श्रद्धा के साथ पूजता है, तो वह भी सच्चे−संकल्प वाला ही है, कारण कि उसने दृढ़ता से सत्य−पथ ग्रहण कर लिया है। शीघ्र ही वह कर्तव्यनिष्ठ होकर आन्तरिक शान्ति प्राप्त कर सकता है। हे कौन्तेय! यह तुम निश्चय जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता। हे पार्थ! जो मेरी शरण में आते हैं, चाहे वे कितने ही पापी हों और चाहे वैश्य−शूद्रादि कुछ भी हों, शीघ्र ही सच्चे पथ पर आरुढ़ होते हैं।”

यदि किसी चाण्डाल के हृदय में भक्ति हो तो वह भी प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर सकता है। दक्षिण−भारत के चिदम्बरम् नामक स्थान में एक नन्दन (जो बहुत ही उच्च जाति की शेखी मारने वाले व्यक्तियों की दृष्टि में बहुत अधिक नीच−जाति का था)नायक भक्त हो गया है, जिसे अपने प्रभु भगवान् नटराज के साक्षात् दर्शन हो चुके हैं। अब भी मद्रास प्रान्त के भागवत उक्त भक्तराज की कथा बड़े चाव से कहा करते हैं।

तिरुकुरल नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ का निर्माता तिरुवलवार अत्यन्त नीच जाति का था। सन्त दादू जाति का जुलाहा था। ऐसा ही भक्त कबीर था। अव्वयर (जो एक कुमारी थी और बहुत उच्च श्रेणी की भक्त थी) एक नीच जाति की थी; वह श्रीराम की बड़ी भक्त थी। गुह−निषाद भी तो नीच जाति का था। वह भगवान् श्रीरामचन्द्र जी का बड़ा भक्त था। जब श्रीराम वनवास को पधारे थे तो भक्त गुह−निषाद ने उनका कितने प्रेम से स्वागत किया था? भगवान् श्रीराम ने भी स्वच्छन्द और प्रसन्नचित्त से उसकी आवभगत एवं पूजा स्वीकार की थी। गुह−विषाद तो अपने प्रभु भगवान् श्रीराम का सखा बन गया और उनसे बराबर मित्रता का व्यवहार करने लगा। रविदास, एक प्रसिद्ध भक्त, नीच जाति का था। शबरी, जो भीलनी थी, भगवान् श्रीराम की बड़ी भक्त थी। उसने अपने प्रभु भगवान् श्रीराम को अपने जूठे बेर तक खिलाये थे। साधना, जो कसाई थी, भक्त थी। स्त्रियाँ भी भगवान् का सान्निध्य प्राप्त कर सकती हैं। कारण कि उनका हृदय बड़ा कोमल और स्वभावतः प्रेम पूर्ण होता है। वे पुरुषों से अधिक भगवद्भक्ति कर सकती हैं। उनके चित्त में स्वभाव से ही स्नेह−वृत्ति रहती है।

सुरदर्जि जो भगवान् की बड़ी प्रसिद्ध भक्त थी, एक बार अपने स्वसुर के साथ श्री वृन्दावन के जंगलों में भगवद्दर्शन के लिये गई। वहाँ एक स्थान पर जब वह अपनी समाधि में तल्लीन थी, तब एक मुसलमान आया और उसने अपनी काम−वासनापूर्ण करनी चाही उसी समय उसके प्रभु एक शेर के रूप में वहीं प्रकट हुए और तत्क्षण ही उस दुष्ट मुसलमान का भक्षण कर गये। भगवान् अपने भक्त की सर्वदा रक्षा करते हैं। यदि कोई भक्त सच्चे हृदय से भगवान् को अपना आत्म−समर्पण कर उन्हीं के ध्यान में लगा रहे, तो वे उसके अहिर्निश क्षेम के दायित्व को अपने ऊपर ले लेते हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः प्रत्येक व्यक्ति भगवद्भक्ति द्वारा भगवान् का भक्त हो सकता है।

एक उच्च−श्रेणी का भक्त कहता है−“मैं अपने प्रियतम प्रभु से कुछ नहीं चाहता। मेरी तो यही कामना है कि मेरा मन सर्वदा उनके पावन चरणकमलों में ही लगा रहे। मेरी आत्मा सदैव ही उनके निकट रहे।” यदि एक भक्त एक बार भी भगवत्प्रेम के रस का स्वाद ले लेता है। तो फिर वह भगवान् से और चाहना ही क्या कर सकता है?

भक्त बालक ध्रुव ने जंगल में बैठ कर भगवान श्रीहरि के चिन्तन द्वारा उनका दर्शन प्राप्त करके यह कहा था−”मैं राज्य नहीं चाहता, मेरे पास मेरे परम प्रियतम अब मौजूद हैं। श्रीहरि के साक्षात् दर्शन करके अब मेरी समस्त आकाँक्षायें तृप्त हो गईं। मेरे चित्त में किसी साँसारिक वस्तु की चाह नहीं है।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118