मातृ−वन्दना

September 1955

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वृहद्धर्म पुराण, पूर्व खण्ड अ॰ 2

व्यास उवाच−

पितुरण्यधिका माता गर्भधारणपोषणात्।

अतोहि त्रिषु लोकेषु नास्ति मातृसमो गुरुः॥1॥

नास्ति गंगासमं तीर्थं नास्ति विष्णुसमःप्रभु।

नास्ति शम्भुसमःपूज्यो नास्ति मातृसमो गुरुः॥2॥

नास्ति चैकादशी तुल्यं व्रतं त्रैलोक्यविश्रुतम।

तपो नानशनात्तुल्यं नास्ति मातृसमो गुरुः॥3॥

नास्ति भार्यासमं मित्रं नास्ति पृत्रसमः प्रियः।

नास्ति भगिनी समा मान्या नास्ति मातृसमो गुरुः॥4

न जामातृसमं पात्रं न दानं कन्यया समम।

न भ्रातृसदृशो बन्धुर्न च मातृसमो गुरुः॥5॥

देशो गंगान्तिकः श्रेष्ठो दलेषु तुलसीदलम्।

वर्णेषु ब्राह्मणः श्रेष्ठो गुरुर्माता गुरुष्वपि॥6॥

मातंर पितरं चोमौ दृष्ट्वा पुत्रस्तु धर्मवित्।

प्रणम्य मातरं पश्चात् प्रणमेत पितरं गुरुम्॥7॥

माता धरित्री जननी दयार्द्रहृदया शिवा।

देवी त्रिभुवनश्रेष्ठा निर्दोषा सर्वदुःखहा ॥8॥

आराधनीय परमा दया शान्तिः क्षमा घृतिः।

स्वाहा स्वधा च गौरी च पद्मा च विजया जया॥9॥

दुःखहन्त्रीति नामानि मातुरेवैकविंशतिम्।

शृणुयाच्छ्रावयेन्मर्त्यः सर्वदुःखाद् विमुच्यते॥10॥

दुःखैर्महद्भिर्दूनोऽपि दृष्ट्वा मातरमीश्वरीम्।

यमानन्दं लभेन्मत्यः स किं वाचोपपद्यते॥11॥

इति ते कथितं विप्र मातृस्तोत्रं महागुणम्।

पराशरमुखात्पूर्वमश्रौषं मातृसंस्तवम् ॥12॥

सेवित्वा पितरौ कश्चिद् व्याधः परमधर्मवित्।

लेभ सर्वज्ञताँ या तु साध्यते न तपस्विभिः॥13॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भक्तिः कार्या तुमातरि।

पितर्यपीति चोक्तं वै पित्रा शक्ति सुतेन मे॥14॥

अर्थ−पुत्र के लिये माता का स्थान पिता से भी बढ़कर है, क्योंकि वह उसे गर्भ में धारण कर चुकी है तथा माता के द्वारा ही उसका पालन−पोषण हुआ है। अतः तीनों लोकों में माता के समान दूसरा कोई गुरु नहीं है॥1॥ गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है, भगवान् विष्णु के समान कोई प्रभु नहीं है, शिव के समान कोई पूजनीय नहीं है तथा माता के समान कोई गुरु नहीं है॥2॥ एकादशी के समान कोई त्रिभुवन विख्यात व्रत नहीं है, उपवास के समान कोई तपस्या नहीं है तथा माता के समान कोई गुरु नहीं है॥3॥ भार्या के समान कोई मित्र नहीं है, पुत्र के समान कोई प्रिय नहीं है, बहिन के समान मान्य कोई स्त्री नहीं है तथा माता के समान कोई गुरु नहीं है॥4॥ दामाद के समान कोई दान का सुयोग्य पात्र नहीं है, कन्यादान के समान कोई दान नहीं है, भाई के समान बन्धु और माता के समान कोई गुरु नहीं है॥5॥ देश वही श्रेष्ठ है जो गंगा के समीप हो, पत्तों में तुलसी का पत्ता श्रेष्ठ है, वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है तथा गुरुजनों में माता ही सब से श्रेष्ठ है॥6॥ धर्मज्ञ पुत्र माता और पिता दोनों को एक साथ देखने पर पहले माता को प्रणाम करके पीछे पिता रूपी गुरु को प्रणाम करे॥7॥ माता, धरिवी, जननी, दयाद्र हृदया, शिवा, त्रिभुवनश्रेष्ठा, देवी, निर्दोशा, सर्वदुःखहा, परम, अराधनीय, दया, शान्ति, क्षमा, धृति, स्वाहा, स्ववा, गौरी, पदमा, विजया, जया तथा दुःखहन्त्री ये माता के ही इक्कीस नाम हैं। जो मनुष्य इन नामों को सुनता और सुनाता है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। बड़े से बड़े दुःखों से पीड़ित होने पर भी भगवती माता का दर्शन करके मनुष्य को जो आनन्द मिलता है, उसे क्या वाणी द्वारा व्यक्त किया जा सकता है?

ब्रह्मन्! यहाँ मैंने तुम से परम गुणमय मातृ स्तोत्र का वर्णन किया है। वह मातृ स्तोत्र पूर्वकाल में मैंने अपने पिता श्री पराशरजी के मुख से सुना था। किसी परम धर्मज्ञ व्याध ने केवल माता−पिता की सेवा करके वह सर्वज्ञता प्राप्त करली, जो तपस्वियों को भी सुलभ नहीं है। इसलिए पूर्णदान करके माता और पिता के चरणों में भक्ति करनी चाहिये।


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